आज भी तलवार से तेज है कलम
-आदित्य नरेन्द्र
'है बात वुछ ऐसी कि हस्ती मिटती नहीं हमारी' कभी यह पंक्ति हमारे देश हिन्दुस्तान और उसकी हजारों साल पुरानी सयता के लिए कही गईं थी। लेकिन यह पंक्ति भारतीय अखबार उदृाोग पर भी सौ फीसदी फिट बैठती है। क्योंकि पिछले लगभग 240 सालों के दौरान अनेक झंझावातों के बावजूद अखबारों ने न केवल अपने अस्तित्व को बचाए रखा है अपितु उसे पहले से भी ज्यादा मजबूत और उपयोगी बनाने का प्रायास किया है। यदि भारतीय अखबारों के इतिहास को देखें तो यहां पहला अखबार 29 जनवरी 1780 को जेम्स ऑगस्ट हिक्की के द्वारा प्राकाशित किया गया था। राजनीतिक एवं वाणिज्य खबरों पर आधारित इस अखबार का नाम कलकत्ता जनरल एडवाइजर था। हिक्की ईंस्ट इंडिया वंपनी के एक कर्मचारी थे। उन्होंने इस अखबार को साप्ताहिक के रूप में शुरू किया था लेकिन इस अखबार के प्राकाशन के बाद भारत के ब्रिटिश प्राशासन में हो रही गड़बिड़यां बाहर आने लगीं। तब से अब तक हालात में काफी बदलाव आया है। देश को गुलामी से मुक्ति मिली। आजादी के बाद कईं सरकारें भी बदलीं लेकिन अखबारों की प्रामुख भूमिका में कोईं परिवर्तन नहीं हुआ है। आज भी अखबारों का मुख्य उद्देश्य समाज को सूचना, शिक्षा और मनोरंजन प्रादान करना है। अखबारों की भूमिका को समाज में वाच डॉग के रूप में देखा जाता है। अपनी इस भूमिका पर अखबार आज भी खरे उतर रहे हैं।
समय के साथ तकनीक बदली और टीवी चैनल सामने आए लेकिन इन्हें चलाने के लिए भी अखबार से जुड़े लोगों की ही मदद लेनी पड़ी थी। इस तरह यदि यह कहा जाए कि टीवी चैनलों का जन्म अखबारों की कोख से हुआ है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। अखबारों के महत्व का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि अधिकांश लोग अपने दिन की शुरुआत टीवी के न्यूज चैनलों से नहीं करते बल्कि चाय की चुस्कियों के साथ अखबार से करते हैं। दरअसल टीवी चैनलों पर वुछ खबरों या प्राोग्रामों को ही सारे दिन रिपीट किया जाता है।
अखबारों को खबरों की संख्या और विश्वसनीयता के मामले में बढ़त हासिल है। आमतौर पर अखबारों में आईं खबरों पर पाठक सवालिया निशान नहीं लगाते। उस पर दुश्मनी या नफरत को बढ़ावा देने के आरोप भी चस्पा नहीं होते। अखबार पढ़ने से दिमाग की एक्सरसाइज भी होती रहती है जिससे दिमाग चुस्त-दुरुस्त रहता है और भाषा ज्ञान मजबूत होता है। इसलिए स्वूलों में भी शिक्षक विदृार्थियों को अखबार पढ़ने की सलाह देते हैं। अखबारों में आप देश-विदेश से लेकर गलीमोहल्ले तक की ऐसी खबरों को देख सकते हैं जिन्हें टीवी पर स्थान मिलना मुश्किल है। अखबारों के स्थानीय संस्करणों की पहुंच गांव-गांव तक होती है। अखबारों में पाठकों की चिट्ठी बहुत वुछ कह जाती है जिससे सरकार को निचले स्तर तक के हालात का पता चलता रहता है। इस तरह अखबार प्राशासन और जनता के बीच की खाईं को पाटने में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। अखबार का एक और फायदा इसका सुविधाजनक होना है।
अखबार को कहीं भी पढ़ा जा सकता है। इसके लिए बिजली, डिश, सैटेलाइट या स्मार्टफोन की जरूरत नहीं होती। नीति-निर्माता जनता का मूड भांपने के लिए अखबारों पर कहीं ज्यादा भरोसा करते हैं। सभी मंत्रालयों और प्रामुख विभागों में रोज सुबह का पहला काम उनसे संबंधित खबरों की कटिग कर फाइल तैयार करना होता है। अखबार निजी एवं सरकारी विज्ञापनदाताओं के लिए आर्थिक रूप से भी फायदेमंद साबित होते हैं क्योंकि यह सस्ते पड़ते हैं। उधर पाठकों को इसमें महत्वपूर्ण घटनाओं का जो तर्वपूर्ण विश्लेषण पढ़ने को मिलता है वह मीडिया के दूसरे माध्यमों में संभव नहीं है। टीवी पर तो ऐसी बहसें कईं बार शोरशराबे के साथ शुरू होती हैं और शोरशराबे के साथ ही खत्म हो जाती हैं। बेचारे दर्शक के पल्ले वुछ भी नहीं पड़ता। ऐसा लगता है कि बड़ी संख्या में यू-ट्यूब चैनलों के आने से टीवी चैनलों का नुकसान होगा। यदि यह नुकसान ज्यादा हुआ तो आने वाले दिनों में टीवी चैनल अतीत की चीज हो जाएंगे। कलम की ताकत पहले भी तलवार से ज्यादा थी आज भी है और भविष्य में भी रहेगी।