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राजनीति का गिरता स्तर

👤 Veer Arjun | Updated on:19 July 2020 6:01 AM GMT

राजनीति का गिरता स्तर

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-आदित्य नरेन्द्र

यदि राजनेताओं को जनता की सेवा करने के लिए इस तरह के राजनीतिक दांव-पेंच जरूरी लगते हैं तो आगे चलकर सत्ता बचाने और सत्ता छीनने के खेल में लगे यह राजनेता किस तरह देश की सेवा करेंगे यह समझना मुश्किल नहीं है। राजनीति का गिरता स्तर देश के हर नागरिक के लिए चिन्ता का विषय होना चाहिए क्योंकि यह मामला हमारे भविष्य से जुड़ा हुआ है। इसलिए जरूरी है कि राजनीति में नैतिकता का महत्व समझा जाए और यह जो नए तरीकों से सत्ता में आने की राजनीति चल रही है उसे हतोत्साहित किया जाए।

किसी भी देश को सुचारू ढंग से चलाने के लिए एक व्यवस्था का होना जरूरी है। दुनिया के हर देश ने अपनी-अपनी जरूरत और समझ के हिसाब से ऐसी व्यवस्था बना रखी है। हम इसे लोकतंत्र, कम्युनिज्म, राजतंत्र या मिलिट्री शासन जैसी कईं व्यवस्थाओं में बांट सकते हैं। फिलहाल जो व्यवस्था सबसे ज्यादा प्राचलन में है वह लोकतांत्रिक व्यवस्था है जिसके कईं रूप दुनिया में देखने को मिलते हैं। भारत और अमेरिका दोनों लोकतांत्रिक देश हैं इसके बावजूद भी दोनों की लोकतांत्रिक व्यवस्था अलग तरीके से काम करती है। भारत ने 26 जनवरी 1950 को औपचारिक रूप से लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाया था।

आज भारत में नईं तरह की राजनीति देखने को मिल रही है। इस तरह की राजनीति की कल्पना हमारे संविधान निर्माताओं ने सपने में भी नहीं की होगी। आज हालात यहां तक पहुंच चुके हैं कि जनता द्वारा एक बार किसी को वोट दिए जाने के बाद मतदाताओं के हाथ में वुछ नहीं रहता। उनके द्वारा चुना गया प्रातिनिधि उनकी सेवा करने की बजाय यदि दलबदल के खेल में लग जाए तो उनके पास मन मसोसकर रह जाने के अलावा कोईं दूसरा रास्ता नहीं बचता। यूं तो आजाद भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में दलबदल शुरू से होते आ रहे हैं परन्तु पहला बड़ा दलबदल जिसकी चर्चा आज भी होती है, वह 1980 में हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री भजन लाल द्वारा कराया गया था।

वह रातोंरात जनता पाटा विधायक दल को कांग्रोस आईं में लेकर आ गए थे। इसके बाद दलबदल के खेल ने रफ्तार पकड़ ली। हालांकि दलबदल कानून लागू होने के बाद यह उतना आसान नहीं रहा जितना पहले था। लेकिन एमपी, एमएलए को लालच देकर या भावनाओं में बहाकर सरकार बनाने या गिराने का सिलसिला आज भी जारी है।

गोवा, कर्नाटक, मध्य प्रादेश इसकी मिसाल हैं। हालांकि राजस्थान में फिलहाल अशोक गहलोत अपनी सरकार बचाने में कामयाब रहे हैं परन्तु वहां ऊंट किस करवट बैठेगा यह कहना अभी भी मुश्किल है। मतदाता स्तब्ध होकर यह सब देख रहा है और पूछ रहा है कि क्या राजनेताओं का जमीर खत्म हो गया है। यदि लोकतंत्र की धज्जियां इस तरह उड़ाईं जानी हैं तो फिर चुनाव कराने का क्या फायदा। जनप्रातिनिधियों को बसोंहवाईं जहाजों में बिठाकर दूसरे राज्यों के होटल-रिजॉर्ट में बंधक की तरह से रखना अब लोगों को कतईं हैरान नहीं करता है।

अब राजनीति में किसी न किसी तरीके से सत्ता पाना ही बड़ा मुद्दा बन गया है। जब से राजनीति में नैतिकता कम होनी शुरू हुईं और अपराधियों व बाहुबलियों का दबदबा बढ़ा है तब से ही राजनीति कहां से कहां पहुंच गईं है इसे हाल ही के विकास दुबे वाले मामले से समझा जा सकता है। सत्ता के लिए साम-दाम-दंड-भेद जैसे सभी तरीके जायज मानने वाली राजनीति का ही दुष्परिणाम है कि आज जनता के लिए जरूरी असल मुद्दे कहीं खो गए हैं। उन पर कोईं भी राजनीतिक दल चर्चा नहीं करना चाहता। कोरोना में सरकार की लापरवाहियां, महंगाईं, बेरोजगारी, जर्नलिस्टों की परेशानियां जैसे मुद्दों को सरकारों के एजेंडे में उतनी जगह नहीं मिल पा रही है जितनी उन्हें मिलनी चाहिए थी। पहले कहा जाता था कि राजनीति सेवा का माध्यम है।

लेकिन आज के दौर की राजनीति देखकर समझ नहीं आता कि जनता की सेवा करने के लिए क्या इस तरह की राजनीतिक उठापटक जरूरी है। यदि राजनेताओं को जनता की सेवा करने के लिए इस तरह के राजनीतिक दांव-पेंच जरूरी लगते हैं तो आगे चलकर सत्ता बचाने और सत्ता छीनने के खेल में लगे यह राजनेता किस तरह देश की सेवा करेंगे यह समझना मुश्किल नहीं है।

राजनीति का गिरता स्तर देश के हर नागरिक के लिए चिन्ता का विषय होना चाहिए क्योंकि यह मामला हमारे भविष्य से जुड़ा हुआ है। इसलिए जरूरी है कि राजनीति में नैतिकता का महत्व समझा जाए और यह जो नए तरीकों से सत्ता में आने की राजनीति चल रही है उसे हतोत्साहित किया जाए।

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