भारत के भविष्य पर संघ का लेखा परीक्षण
एक सच्चाई यह है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने महात्मा गांधी से पेरणा लेकर अपने संग"न को अहिंसा के सिद्धांत पर खड़ा किया और हिन्दू समाज के धार्मिक स्वभाव को मान्यता दिया मगर इसी संघ पर यह आरोप भी रहा है कि राष्ट्रपिता गांधी के हत्यारे नाथू राम गोड्से को पत्यक्ष-अपत्यक्ष इनका समर्थन था। बड़ा सच यह है कि जाति, भाषा और क्षेत्रीय पहचान को चुनौती दिये बिना जो संस्था व संग"न निर्मित होते हैं वह लोक कल्याण उन्मुख कहे जाते हैं। आरएसएस को क्या इस पकार के संग"न के तौर पर देखा जाना चाहिए जबकि हिन्दू पहचान को महत्व देना इनकी रणनीति रही है। वैसे सर संघचालक मोहन भागवत का हालिया दृष्टिकोण देखें तो उसमें वह सब मिलता है जो राष्ट्र निर्माण, समाज निर्माण तथा समरसता समेत कल्याण के लिए जरूरी बिंदु होते हैं। संघ ने भारत के भविष्य को लेकर अपना दृष्टिकोण पस्तुत करने के साथ ही अपनी नीतियों, उद्देश्यों और क्रियाकलापों के बारे में जिस तरह पकाश डाला है उससे देखते हुए यह कह सकते हैं कि संघ के पति लोगों की सोच बदलेगी। कम से कम उन लोगों पर यह पभाव जरूर डालेगा जो संघ के बारे में कई तरह की गलत फहमी पाले हुए थे। जब मोहन भागवत कहते हैं कि आरक्षण नहीं, आरक्षण पर होने वाली राजनीति समस्या है तो बहुत संवेदनशील स्थिति पैदा होती है। इतना ही नहीं हिन्दू, मुस्लिम के बीच की दूरी कम करने के लिए मंदिर निर्माण को जरूरी बताने वाले सरसंघचालक कहीं न कहीं सांपदायिक झगड़े को समाप्त करना, समरसता को बढ़ावा देने की ओर संकेत कर रहे हैं। हालांकि इस मामले में राय अलग हो सकती है पर इसमें कोई दुविधा नहीं कि कई मुस्लिम संग"न राम मंदिर के पक्षधर हैं और लाखों-करोड़ों मुसलमान इस झगड़े को राम मंदिर के रूप में स्थापित कर समाप्त भी करना चाहते हैं। मोहन भागवत ने अल्पसंख्यकों को संघ से भयावह रखने पर भी अपनी बेबाक राय दी उनका कहना है कि संघ अल्पसंख्यक शब्द को ही नहीं मानता और भारत में जन्मा हर व्यक्ति भारतीय है। वाकई ये सभी समरसता और सद्भावना के काम आ सकते हैं। औपनिवेशिक भारत के उन दिनों जब भारत राष्ट्रीय आंदोलन की मजबूत नीतियों और उसके क्रियान्वयन के पति संकल्पबद्ध था और गुलामी की जंजीरों को तोड़ कर आजादी की आबोहवा तलाश रहा था तब उसी समय आरएसएस जैसे संग"न का भी उदय हो रहा था जो हिन्दुत्व की भावना से ओतपोत एक राष्ट्र की अवधारणा को लेकर आगे बढ़ने की फिराक में थे। साल 1975 के आपात में आरएसएस को पतिबंध का सामना करना पड़ा। हालांकि पतिबंध इसके पहले भी उस पर लगाए जा चुके थे।
-हरनेक सिंह,
पंजाबी बाग, दिल्ली।
जीवन वही जो शांति से गुजर-बसर हो
आज हर व्यक्ति चाहता है, हर दिन मेरे लिए शुभ, शांतिपूर्ण एवं मंगलकारी हो। संसार में सात अरब मनुष्यों में कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं होगा जो शांति न चाहता हो। मनुष्य ही क्यों पशु-पक्षी, कीट-पंतगें आदि छोटे-से-छोटा प्राणी भी शांति की चाह में बेचेंन रहता है। यह ढ़ाई अक्षर का ऐसा शब्द है जिसे संसार की सभी आत्माएं चाहती हैं। यजुर्वेद में प्रार्थना के स्वर है कि स्वर्ग, अंतरिक्ष और पृथ्वी शांति रूप हो। जल, औषधि वनस्पति, विश्व-देव, परब्रह्म और सब संसार शांति का रूप हो। जो स्वयं साक्षात स्वरूपत शांति है वह भी मेरे लिए शांति करने वाली हो। यह प्रार्थना तभी सार्थक होगी जब हम संयम, संतोष व्रत को अंगीकार करेंगे, क्योंकि सच्ची शांति भोग में नहीं त्याग में है। मनुष्य सच्चे हृदय से जैसे-जैसे त्याग की ओर अग्रसर होता जाता है वैसे-वैसे शांति उसके निकट आती जाती है। शांति का अमोघ साधन हैöसंतोष। तृष्णा की बंजर धरा पर शांति के सुमन नहीं खिल सकते हैं। मानव शांति की चाह तो करता है पर सही राह पकड़ना नहीं चाहता है। सही एवं शांति की राह को पकड़े बिना न मंजिल मिल सकती है और न शांति की प्राप्ति हो सकती। महात्मा गांधी ने शांति की चाह इन शब्दों में की है कि मैं उस तरह की शांति नहीं चाहता जो हमें कब्रों में मिलती है। मैं तो उस तरह की शांति चाहता हूं जिसका निवास मनुष्य के हृदय में है। मनुष्य के पास धन है, वैभव है, परिवार है, मकान है, व्यवसाय है, कम्प्यूटर है, कार है। जीवन की सुख-सुविधाओं के साधनों में भारी वृद्धि होने के बावजूद आज राष्ट्र अशांत है, घर अशांत है, यहां तक कि मानव स्वयं अशांत है। चारों ओर अशांति, घुटन, संत्रास, तनाव, पुंठा एवं हिंसा का साम्राज्य है। ऐसा क्यों है? धन और वेंभव मनुष्य की न्यूनतम आवश्यकता-रोटी, कपड़ा और मकान सुलभ कर सकता है। आज समस्या रोटी, कपड़ा, मकान की नहीं, शांति की है। शांति-शांति का पाठ करने से शांति नहीं आएगी। शांति आकाश मार्ग से धरा पर नहीं उतरेगी। शांति बाजार, फैक्ट्री, मील, कारखानों में बिकने की वस्तु नहीं है। शांति का उत्पादक मनुष्य स्वयं है इसलिए वह नेंतिकता, पवित्रता और जीवन मूल्यों को विकसित करे। पाश्चात्य विद्वान टेनिसन ने लिखा है कि शांति के अतिरिक्त दूसरा कोई आनंद नहीं है। सचमुच यदि मन व्यथित, उद्वेलित, संत्रस्त, अशांत है तो मखमल एवं फूलों की सुखशया पर शयन करने पर भी नुकीले तीखे कांटे चूभते रहेंगे। जब तक मन स्वस्थ, शांत और समाधिस्थ नहीं होगा तब तक सब तरह से वातानुकूलित कक्ष में भी अशांति का अनुभव होता रहेगा। शांति का संबंध चित्त और मन से है। शांति बाहर की सुख-सुविधा में नहीं, व्यक्ति के भीतर मन में है। मानव को अपने भीतर छिपी अखूट संपदा से परिचित होना होगा। आध्यात्मिक गुरु चिदानंद के अनुसार शांति का सीधा संबंध हमारे हृदय से है सहृदय होकर ही शांति की खोज संभव है। शांतिपूर्ण जीवन के रहस्य को प्रकट करते हुए महान दार्शनिक संत आचार्यश्री महाप्रज्ञ कहते हैं कि यदि हम दूसरे के साथ शांतिपूर्ण रहना चाहते हैं तो हमारी सबसे पहली आवश्यकता होगी-अध्यात्म की चेतना का विकास।
-नीलम वर्मा,
विकासपुरी, दिल्ली।