Home » आपके पत्र » 18 सितंबर 1948: निजाम का समर्पण और हैदराबाद बना भारत का अंग

18 सितंबर 1948: निजाम का समर्पण और हैदराबाद बना भारत का अंग

👤 Veer Arjun | Updated on:17 Sep 2021 9:16 AM GMT

18 सितंबर 1948: निजाम का समर्पण और हैदराबाद बना भारत का अंग

Share Post

108 घंटे लगे थे सैन्य अभियान में


रमेश शर्मा

पूरे संसार में केवल भारत ऐसा देश है जहां स्वतंत्रता के बाद भी स्वतंत्रता का स्वरूप लेने के लिये भी लाखों बलिदान हुये और करोड़ों लोग बेघर हुये। जिन स्थानों पर स्वतंत्रता के बाद भी भारी हिंसा और संघर्ष हुआ उनमें एक हैदराबाद रियासत भी रही है। जहाँ सेना के हस्तक्षेप के बाद ही हिंसा रुक सकी और और वह भूभाग भारतीय गणतंत्र का अंग बना। सेना ने 13 सितम्बर को हैदराबाद में प्रवेश किया, 17 सितम्बर की शाम को हैदराबाद के निजाम ने समर्पण किया और 18 सितम्बर को विलीनीकरण दस्तावेज पर हैदराबाद के शासक निजाम के हस्ताक्षर हुये।

स्वतंत्रता के पूर्व भारत में तीन प्रकार का प्रशासनिक स्वरूप था। एक जो सीधा अंग्रेजों के आधिपत्य में था, दूसरा वह अंग्रेजों का ध्वज और दासता तो थी किंतु निचले स्तर पर किसी राजा या नवाब का शासन था। और तीसरा डच या फ्रांसीसी सत्ता के हाथ। जून 1947 में वायसराय माउंटबेटन द्वारा बनाये गये फार्मूले से 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता तो मिली पर यह स्वतंत्रता केवल ब्रिटिश आधिपत्य वाले क्षेत्रों तक ही सीमित थी। अंग्रेज जा तो रहे थे लेकिन वे एक ऐसे भारत की नींव बनाकर जा रहे थे जो सतत गृह कलह और रक्तपात में ही उलझा रहे। उन्होंने एक चाल चली। अंग्रेजों ने भारतीय रियासतों को भी स्वतंत्रता दी थी और उनसे कहा था कि वे चाहें तो स्वतंत्र रहें अथवा भारत या पाकिस्तान किसी में मिल लें। इसका लाभ कुछ रियासतों ने उठाया उसमें हैदराबाद भी थी।

सभी रियासतों को जून 1947 में ही इस फार्मूले की सूचना मिल गयी थी। सूचना मिलते ही जून 1947 में हैदराबाद के शासक निजाम ने स्वयं को स्वतंत्र रहने का पत्र भेज दिया था और स्वतंत्र रहने की तैयारी आरंभ कर दी थी। निजाम को इस काम में अंग्रेजों का मौन और मोहम्मद अली जिन्ना का खुला समर्थन मिल गया था। लेकिन हैदराबाद रियासत की जनता निजाम शासन से मुक्ति चाहती थी। वह भारतीय गणतंत्र का हिस्सा बनना चाहती थी। इसका कारण हैदराबाद के शासकों का समाज पर दमन और अत्याचार करना था। हैदराबाद रियासत में बहुमत तो हिन्दु परंपरा को मानने वालों का था लेकिन वहां कानून इस्लामिक शरीयत के अनुसार चलता था। यह कानून हैदराबाद में 1720 से ही लागू हो गया था। यह निजामशाही के आरंभ होने का वर्ष था। और जब 1798 में निजाम अंग्रेजों के आधीन हो गया तब भी आतंरिक शासन व्यवस्था में कोई अंतर न आया। हैदराबाद में धार्मिक सत्ता के अधिकारों का दुरुपयोग, बहुसंख्यक समाज का शोषण और उत्पीड़न का क्रम बना रहा। इसलिये हैदराबाद का बहुसंख्यक निजाम से मुक्ति चाहता था।

हैदराबाद के नवाब को "निजाम-उल-मुल्क" की उपाधि मुगल बादशाह ने दी थी जिससे हैदराबाद का हर नवाब निजाम कहलाया। रियासत का आधिकारिक धर्म ही इस्लामिक प्रावधानों के अनुसार नहीं था अपितु अधिकांश शासकीय पदों पर भर्ती भी मुस्लिम समाज के लोगों की जाती थी। शीर्ष पदों पर तो एक भी गैर मुस्लिम नहीं था। रियासत को अंग्रेजों ने अपने आधीन तो कर लिया था पर रियासत के अदरूनी व्यवस्था में कोई हस्तक्षेप नहीं किया था। इसका कारण यह था कि अंग्रेजों को शासन व्यवस्था में कोई रुचि न थी। उनके केवल दो उद्देश्य थे। एक तो हैदराबाद रियासत से सालाना पैसा मिले और दूसरा आवश्यकता पड़ने पर निजाम उनकी सहायता के लिये अपने खर्चे पर सेना भेजे। निजाम इस काम को सहर्ष कर रहा था। अंग्रेजों को निजाम की जरूरत मराठों के विरुद्ध अभियान शुरू करने के लिये पड़ती थी। इसलिए उन्होंने निजाम को कुछ विशेष अधिकार भी दे रखे थे।

निजाम के मन में मराठा शासन के प्रति कितनी कटुता थी इस बात का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब मराठों ने भोपाल में अभियान चलाया तो भोपाल नवाब की मदद करने के लिये निजाम की फौज भोपाल आई थी। यह अलग बात है कि भोपाल के युद्ध में इस संयुक्त फौज को भी पराजय का मुंह देखना पड़ा। निजाम इससे पूर्व भी मराठों से पराजित हो चुका था इसलिये उसने अंग्रेजों से संधि कर ली थी । निजाम का सोच कितना साम्प्रदायिक था इसका एक उदाहरण यह भी है कि हैदराबाद रियासत में मुस्लिम आबादी केवल 11% प्रतिशत थी लेकिन रियासत की तीस प्रतिशत भूमि पर मुसलमानों का अधिकार था । इसके साथ वहां हिन्दुओं को हथियार रखने का अधिकार न था जबकि मुस्लिम समाज के पास हथियारों का जखीरा रहता था ।

हैदराबाद की इस विशिष्ट विचार और कार्यशैली कटुता 1921 के बाद और बढ़ी। यद्यपि रियासत के अधिकांश मुसलमान धर्मान्तरित थे उन्हे इसका आभास भी था लेकिन खिलाफत आँदोलन के बाद मुसलमानों में संगठन और आक्रामकता दोनों बढ़ी । अनेक स्थानों पर साम्प्रदायिक दंगे भी हुये । इसमें तेजी 1927 के बाद और बढ़ी इस वर्ष रियासत में एक संस्था "मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन" का गठन हुआ । इसका नेतृत्व सैय्यद कासिम रिजवी के हाथ में था । इस संस्था ने सशस्त्र समूह बनाया इसे "रजाकारों का संगठन" कहा गया । इस संगठन ने 1946 के डायरेक्ट ऐक्शन में बड़ी सक्रियता दिखाई और मुस्लिम समाज में अपनी पैठ और बढ़ा ली थी । इसके साथ जैसे जैसे स्वतंत्रता के क्षण समीप आ रहे थे यह संगठन और गहरी पकड़ बनाने लगा। 1946 के बाद निजाम इसी संगठन पर निर्भर हो गये थे। जून 1947 से हैदराबाद निजाम ने स्वयं को स्वतंत्र रहने की तैयारी आरंभ कर दी थी।

15 अगस्त 1947 को निजाम ने स्वयं को स्वतंत्र होने की और कासिम रिजवी ने इसे इस्लामिक देश होने की घोषणा कर दी । इस घोषणा के साथ हैदराबाद रियासत में हिंसा की शुरुआत हो गयी। रजाकारों और रियासत की सेना मिलाकर यह संख्या लगभग दो लाख थी जो हथियारों से युक्त थी अनेक स्थानों पर दमन लूटपाट, हत्या, बलात्कार और धर्मान्तरण का सिलसिला चल पड़ा। सैकड़ो हजारों परिवार सुरक्षित स्थानों की ओर भागे।

आरंभ में भारत सरकार कश्मीर पर पाकिस्तान का हमला विभाजन के साथ बढ़ती हिंसा और शरणार्थियों की समस्या से जूझ रही थी इस कारण हैदराबाद की ओर ध्यान कम गया। तभी 1948 के आरंभ में यह सूचना मिली कि हैदराबाद में पाकिस्तान से सशस्त्र सैनिक आ रहे हैं उन्हें बसाया जा रहा है और रियासत हथियारों की खरीद के लिये आस्ट्रेलिया और चेकोस्लोवाकिया से 30 लाख पाउंड के हथियार खरीदने के आर्डर दिया है। तब तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने निजाम से बातचीत की किंतु निजाम के रवैये में कोई अंतर न आया उल्टे रिजवी की रजाकारों की गतिविधियां और बढ़ी। सरदार पटेल ने अंततः 9 सितम्बर 1948 को चेतावनी पत्र जारी किया। लेकिन निजाम न माना।

11 सितम्बर को हैदराबाद में सैन्य अभियान का निर्णय हुआ। इस अभियान को "आपरेशन पोलो" नाम दिया गया। 12 सितम्बर को सेना को कूच करने का आदेश दिया। 13 सितम्बर को सेना ने हैदराबाद आपरेशन आरंभ किया, 17 सितम्बर की शाम को निजाम ने समर्पण का प्रस्ताव दिया और 18 सितम्बर को विलीनीकरण दस्तावेज पर हस्ताक्षर हुये। सेना को इस अभियान में कुल 108 घंटे लगे । इस 108 घंटे के अभियान में सेना के कुल 329 जवानों के प्राणों का बलिदान हुआ। दूसरी तरफ निजाम सेना के 807 और 1647 अन्य लोगों की मौत हुई। जून 1947 से सितम्बर 1948 के बीच इस लगभग सवा साल की अवधि में 22 से 30 हजार तक लोग मारे गये और एक लाख से अधिक लोग बेघर हुये। इस हिंसा पर विराम भारत सरकार की सक्रियता के साथ लगी। भारत सरकार ने कासिम रिजवी को गिरफ्तार कर लिया और उसकी संस्था मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लमीन यनि MIM पर पाबंदी लगा दी। आगे कासिम रिजवी पाकिस्तान चला गया। वह इस संस्था की कमान अपने समय के मशहूर वकील अब्दुल वहाद ओवैसी को सौंप गया था। वे इस समय के आक्रामक नेता औबेसुद्दीन ओवैसी के पितामह थे।

हैदराबाद रियासत कि क्षेत्रफल लगभाग 82 हजार वर्गमील था। जो इंग्लैंड जैसे देश से भी अधिक है। तब इस रियासत की आबादी लगभग 1.6 करोड़ थी इसमें 85%हिन्दु, 11% मुसलमान और 4% अन्य थे। रियासत की वार्षिक आय लगभग 26 करोड़ वार्षिक थी। यह देश की दूसरी बड़ी रियासत मानी जाती थी। हैदराबाद के भारतीय गणतंत्र में विलीन होने के बाद भारत सरकार इन सारी घटनाओं की जाँच के लिये "सुन्दर लाल समिति" भी बनाई लेकिन राजनैतिक कारणों से यह रिपोर्ट सामने न आ सकी। इसे सार्वजनिक करने से रोक दिया गया था। इसके कुछ अश 2014 में ही सामने आ सके। हैदराबाद के विलीनीकरण के बाद भी किसी के पास इस प्रश्न का उत्तर न था उन निहत्थे सामान्य लोगों ने किसका क्या बिगाड़ना था जिन्हें हैदराबाद के आक्रामक जुनीनी लोगों ने लूटा, सब कुछ छीना, महिलाओं से बलात्कार किया और कुछ को मौत के घाट उतार दिया ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

Share it
Top