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वकालत की गरिमा से होगा न्याय का शासन

👤 | Updated on:20 Sep 2011 12:35 AM GMT
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  विमल वधावन न्यायिक प्रक्रिया का पूरा ध्यान हर उस सूत्र पर रहना चाहिए जिसकी सहायता न्याय करने में ली जा सकती है। न्यायिक प्रक्रिया का सूत्रधार स्वाभाविक रूप से न्यायाधीश होता है जो अदालत के मुख्य अधिकारी के रूप में कार्य करता है। न्याय के तराजू में दो पलड़ों के रूप में दो पक्षों के हितों से सम्बन्धित तथ्य रहते हैं। किस तथ्य का क्या महत्व है, इस पर न्यायाधीश का ध्यान आकृष्ट करने के लिए दोनों पलड़ों के लिए एक-एक वकील निर्धारित होता है। वकालत का मुख्य ध्यान भी न्यायाधीश की तरह न्याय पर ही रहना चाहिए। वकील को एक पक्ष कुछ धनराशि देकर इसलिए नियुक्त करता है जिससे उसके तथ्यों का कानूनी मतलब न्यायाधीश को समझाया जा सके। इस पकार वकालत ज्ञान पर आधारित एक सुन्दर कला बन जाती है। परन्तु ािढयात्मक रूप में तब इसका घिनौना रूप देखने को मिलता है, जब एक वकील ऐन-केन पकारेण अपने पक्ष के तथ्यों के आधार पर उसके समर्थन में न्यायाधीश से निर्णय करवाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा देता है। दुर्भाग्य से जब कभी वकील यह जानते हुए कि उनका पक्ष पूरी तरह से गलत और गैर-कानूनी कार्यों में लिप्त है, केवल अपनी फीस के लिए अपनी वकालत की कला का पयोग करते हैं, यहां तक कि रिश्वतखोरी को पोत्साहन देने के लिए तैयार रहते हैं और कभी-कभी तो वकालत की मुख्य भूमिका को पूरी तरह से भूलकर न्यायाधीश के सामने ऐसा व्यवहार करने लगते हैं जैसे वे स्वयं अपने पक्ष के वकील न होकर उसके हित-अहित के कानूनी साझेदार बन चुके हैं, उनके पक्ष के हित में निर्णय होने से ही उनका हित है अन्यथा उनका भी अहित माना जायेगा। यह वकालत नहीं एक पकार का जुआ है। एक सच्चा वकील एक सच्चे कर्मयोगी की तरह कानून के दायरे में सच्चे कर्म को करना ही वकालत समझता है। ऐसे कर्मयोगी वकील यदि किसी न्यायाधीश को अपनी बात समझाने में विफल भी हो जाते हैं तो अपने गुस्से को अधिक से अधिक इस भाषा में व्यक्त कर सकते हैं कि जज साहब! आपकी अदालत और आपका निर्णय अन्तिम नहीं है। यह कहना गैर-कानूनी भी नहीं माना जाता क्योंकि हर अदालत के निर्णय को कहीं न कहीं बड़ी अदालत में चुनौती दी जा सकती है। गुस्से को एक मुकदमें के वातावरण में किसी न्यायाधीश पर व्यक्तिगत टिप्पणियां करके व्यक्त नहीं किया जाना चाहिए। वह भी खासतौर पर ऐसे वकील के द्वारा जो अपने हितों को मुकदमें के एक पक्ष के साथ जोड़कर कार्य करता रहा है। हाल ही में फरीदाबाद की जिला अदालत के कुछ वकीलों के विरुद्ध अवमानना का मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष निर्णयार्थ आया। न्यायमूर्ति श्री पी.. सथाशिवम तथा डॉ. बीएस चौहान की खण्डपी" ने वकीलों के विरुद्ध अवमानना मामलों से जुड़े मुख्य सिद्धान्तों और घटनाओं का उल्लेख करते हुए यह निर्णय दिया कि एक वकील को केवल अपने पक्ष का मुखौटा मात्र नहीं बनना चाहिए और ऐसा करके किसी न्यायाधीश पर व्यक्तिगत हमला केवल इस बात से पेरित होकर नहीं करना चाहिए कि उसके पक्ष के समर्थन में निर्णय क्यों नहीं दिया गया। ऐसी घटनाओं से आम जनता का विश्वास न्याय पालिका के पति खराब ही होगा। इससे न्यायिक प्रक्रिया में भी बाधा ही उत्पन्न होगी। कई वर्ष पूर्व फरीदाबाद की जिला अदालत में श्री राकेश सिंह मजिस्ट्रेट नियुक्त थे, उनकी अदालत में किसी आपराधिक मामले में कोई अभियुक्त पेश हुआ तो उन्होंने उसे पुलिस रिमाण्ड पर भेजने का आदेश दिया। अभियुक्त के वकील श्री पाराशर ने अदालत की इस कार्यवाही का विरोध किया। परन्तु जब न्यायाधीश उनके तर्कों से सहमत नहीं हुए तो उन्होंने गन्दी भाषा में न्यायाधीश को गालियां देते हुए बहुत कुछ कहना शुरू कर दिया। न्यायाधीश को यहां  तक कहा गया कि मैं तेरा खून पी जाऊंगा इतने में एक अन्य वकील श्री ओ. पी. शर्मा 15-20 वकीलों के साथ कोर्ट में उपस्थित हुए, परन्तु घटना को शान्त करवाने के बजाय अपने वकील साथी का समर्थन करने लगे और शुरू हो गयी न्यायाधीश के विरुद्ध मुर्दाबाद की नारेबाजी। जिला न्यायाधीश ने इस घटना का शिकायती पत्र पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय को भेज दिया। उच्च न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लेते हुए अवमानना की कार्यवाही शुरू की। वकीलों द्वारा माफीनाम पस्तुत किये जाने के बावजूद भी उच्च न्यायालय ने उन्हें 6 माह की सजा तथा 2000/- रुपये का आदेश दिया। इस निर्णय के विरुद्ध वकीलों ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील पस्तुत की, जिसपर श्री रामजे" मलानी सहित कई वरिष्" अधिवक्ताओं ने बहस की और सर्वोच्च न्यायालय को माफीनाम स्वीकार करते हुए वकीलों को मुक्त करने का आग्रह किया। सर्वोच्च न्यायालय ने ओपी शर्मा बनाम पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय नामक इस निर्णय में अवमानना की कई अन्य घटनाओं का उल्लेख किया। आरके गर्ग बनाम हिमाचल पदेश राज्य (1981) में एक वकील ने न्यायाधीश पर जूता फेंककर अपने गुस्से को व्यक्त किया। उस निर्णय में भी यही कहा गया था कि वकील संग"नों को स्वयं ही ऐसे मामलों पर निर्धारित कार्यवाही करनी चाहिए जिससे न्याय प्रक्रिया की गरिमा बनी रहे। जब वकील संग"न इस कार्य को नहीं कर पाते तो बड़ी अदालतों को स्वयं भारी मन से ऐसे वकीलों के विरुद्ध कार्यवाही करनी पड़ती है। हाल ही में विश्राम सिंह रघुवंशी (2011) नामक मुकदमें में भी वकील के विरुद्ध अवमानना की कार्यवाही सर्वोच्च न्यायालय ने की। इस मुकदमें में एक मुल्जिम के नाम पर किसी अन्य व्यक्ति को अदालत में पेश किया जा रहा था। जब अदालत ने वकील से इस बारे में पूछताछ शुरू की तो बस शुरू हो गया न्यायाधीश पर व्यक्तिगत हमला। न्यायाधीश ने इसकी शिकायत उत्तर पदेश उच्च न्यायालय के साथ-साथ बार कौंसिल को भी भेजी। बार कौंसिल ने इस शिकायत को ही रद्द कर दिया। उच्च न्यायालय ने वकील को 3 माह की सजा और 2000/- रुपये जुर्माने का आदेश दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने वकील द्वारा माफीनाम पस्तुत किये जाने के बाद भी इस सजा को माफ करने से इन्कार कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि माफीनामा किसी के कुकृत्यों का बचाव नहीं माना जा सकता। इन घटनाओं से वकील संग"नों को भी पेरणा लेनी चाहिए कि वकील और न्यायाधीश एक ही न्यायिक प्रक्रिया के महत्वपूर्ण अंग की तरह काम करें, परस्पर दुश्मन की तरह नहीं। यदि कहीं न्यायाधीश भी दुर्व्यवहार या भ्रष्टाचार का दोषी हो तो बार संग"न उसके विरुद्ध भी लामबन्द हों, शिकायतें करें या पत्रकारिता के माध्यम से जन-जागरण करें परन्तु ऐसा नहीं लगना चाहिए कि वकील किसी पक्ष के साथ अपने हितों को पूरी तरह जोड़कर कार्य कर रहे हैं। वकील अपराधियों के साझेदार नहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने अवमानना से जुड़े कई अन्य मुकदमों का उल्लेख करते हुए कहा कि वकील की भूमिका भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में बड़े सुन्दर तरीके से हुई थी। देश को स्वतत्र कराने की प्रक्रिया के दौरान वकीलों ने ही यह निर्धारित किया था कि देश का पशासन एक पकार से कानून का शासन हो। उस समय के वकील देश के पबुद्ध बुद्धिजीवी थे, वे पिछड़े वर्ग के सामाजिक कार्यकर्ता थे। महात्मा गांधी, मोतीलाल नेहरू, जवाहर नेहरू, भूला भाई देसाई, सी. राजगोपालाचारी, डॉ. राजेन्द पसाद, डॉ. बीआर अम्बेडकर तथा सरदार पटेल कुछ ऐसे नाम हैं जिन्होंने देश को एक संविधान निर्मित करके दिया। ऐसे वकीलों से सुसज्जित देश में इस पकार की घटनाओं में शामिल वकील दुर्भाग्यपूर्ण हैं। ऐसे वकील स्वयं को न्याय प्रक्रिया और अदालत के एक जिम्मेवार अधिकारी के रूप में पतिष्"ित नहीं कर पाते। सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय बार कौंसिल के नियमों का उल्लेख करते हुए कहा कि वकील को अपनी शान और आत्म गौरव कम करने वाला व्यवहार नहीं करना चाहिए। न्यायाधीश के विरूद्ध यदि कोई शिकायत हो तो वो निर्धारित अदालत के सामने की जानी चाहिए। न्यायाधीशों के साथ व्यक्ति सम्पर्क भी नहीं बना चाहिए विशेष रूप से किसी लम्बित केस के सम्बन्ध में। ऐसा करने से अपने पक्ष को भी सावधान रखना चाहिए। वकीलों को ऐसी अदालतों में भी वकालत नहीं करनी चाहिए जहाँ उनके सगे-सम्बन्धी न्यायाधीश हों। वकीलों को सार्वजनिक स्थलों पर कोर्ट की वेशभूषा पहनकर नहीं जाना चाहिए, और अदालतों में सदैव वेशभूषा पहनकर उपस्थित होना चाहिए। वकील यदि किसी संस्था में अधिकारी है तो उस संस्था के लिए भी वकालत नहीं करनी चाहिए। वकील को किसी ऐसे मामले में भी वकालत नहीं करनी चाहिए जहां वह पक्ष के साथ वित्तीय रूप से साझेदारी करता हो।

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