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इंकलाबी तब्दीलियों की उम्मीद

👤 | Updated on:30 March 2010 8:39 PM GMT
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 मध्य पूर्व यानि अफगानिस्तान, इराक, ईरान के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में कुछ हंगामी तब्दीलियां होती नजर आ रही हैं। मानना पड़ेगा कि इन तब्दीलियों का मंजरेआम पर आने में समय लेगा। इतने वर्षों से उस इलाके में चन्द हकीकतों को ध्यान में रखकर कई देश अपनी नीतियां बना रहे थे, उन सब में से आज अफगानिस्तान की ही अहमियत रह गई है। इससे पहले इराक की थी। वहां सद्दाम हुसैन की फांसी के बाद लगभग शांति कायम हो गई और उस वक्त तालिबान भी इतने सरगर्म न थे। लेकिन उसके बाद उन्होंने अपने जौहर दिखाने शुरू कर दिए। अफगानिस्तान, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में तालिबान के आदमियों ने अपनी तरफ तवज्जों दिलाई। तीनों देशों में सिवाय हिन्दुस्तान के बाकी दोनों में मुस्लिम राज्य थे। इसलिए यह ख्याल होता था कि यह तालिबान जो अपने आपको इस्लाम का रक्षक होने का दावा करते हैं, वह इन दोनों को ज्यादा परेशान न करेंगे और अपना ध्यान हिन्दुस्तान पर केंद्रित करेंगे। ऐसा तो हुआ लेकिन देखने में यह आया कि जब भी उन्होंने महसूस किया तो दोनों इस्लामिक देश यानि पाकिस्तान और अफगानिस्तान को न बख्शा। काफी दिनों तक पाकिस्तान की सरकार हैरान रही। बावजूद इस बात के कि वह अपने आपको इस्लामिक हुकूमत कहती है। यह तालिबान भी अपने आपको इस्लाम के रक्षक कहते हुए पाकिस्तानियों को भी अपने जौहर दिखाते रहे। यह सब हैरानी की बात थी, लेकिन अब इसकी वजाहत हो रही है और वह इस तरह कि तालिबान का इस्लाम दुनिया के किसी दूसरे देश की इस्लामिक नीति को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं। जहां तक हिन्दुस्तान का संबंध है, वे जानते थे कि यह एक हिन्दू देश है। इसलिए उन्हें जब भी मौका मिले, अपना हाथ दिखा दे। लेकिन पाकिस्तान के प्रति उनका रवैया काफी दिनों तक समझ न आया, क्योंकि पाकिस्तान भी उतना ही कट्टर देश है जितना अफगानिस्तान या अन्य अरब देश हैं। इसलिए उसके खिलाफ उनका रवैया आम लोगों के लिए समझ से बाहर था। लेकिन वक्त गुजरने के साथ यह स्पष्ट हेने  लगा कि तालाबन को इस्लामाबाद की सरकार से क्या शिकायत है जिसके नतीजे के तौर पर वह पाकिस्तानियों को भी नहीं बख्श रहे। धीरे-धीरे यह बात समझ में आने लगी और नजर यह आ गया कि पाकिस्तान को तालिबान रिवायती मोहब्बत और फ्यार से नहीं देखते थे, क्योंकि वो समझते थे कि पाकिस्तान हकीकत में अमेरिका का दुमछल्ला बनकर रह गया है और अमेरिका को वह हर हाल में नुकसान पहुंचाना चाहते थे। इसलिए जो कोई अमेरिका का समर्थन कर रहा था उसे वह न केवल अपना दुश्मन ही समझते थे बल्कि इस्लाम का दुश्मन भी। इस तरह पिछले डेढ़ साल से यह सिलसिला चल रहा है। पाकिस्तान की हुकूमत चूंकि अमली तौर पर वाशिंगटन डीसी के हाथ में है, इसलिए तालिबान अमेरिका और पाकिस्तान दोनों को इस्लाम का दुश्मन मानते थे। लेकिन उन्हें पाकिस्तान से ज्यादा शिकायत थी इसलिए कि वो अपने आपको इस्लामिक देश कहता था और इस्लामिक देश कहते हुए उसने अमेरिका के हाथ में अपनी किस्मत दे दी और अमेरिका ने पहले तो इराक में सद्दाम हुसैन का किल्ला कुमा किया उसके बाद पाकिस्तान पर तरह-तरह की नवाजशों की बारिश करके उसे अपना अमली गुलाम बना लिया। इस तरह तालिबान को पाकिस्तान से भी शिकायत हो गई,  हालांकि वो मुस्लिम देश है। जब भी उन्हें मौका मिलता यह पाकिस्तान को अपना हाथ दिखा देते। इस तरह यह सवाल पैदा हो गया कि आखिर तालिबान चाहते क्या हैं। इसका जवाब उन्होंने दिया है कि वो हजरत के जमाने के इस्लाम को इस्लाम मानते हैं और जो देश अपने आपको कहता मुसलमान है, लेकिन उसकी नीतियां उसके ऐलानों के उलट हैं, उन्हें तालिबान बख्शने को तैयार नहीं है। इस तरह पिछले डेढ़-दो साल से तालिबान और अमेरिका में भी ठन गई है। अमेरिका चूंकि मध्य पूर्व में अपने हितों को सुरक्षित करने की गरज से पाकिस्तान को बेहतरीन जरिया समझता है। इसलिए उसने अफगानिस्तान की रक्षा के लिए पाकिस्तान और उसके सरहदी इलाकों में जहां भी तालिबान नजर आए उनका किल्ला कुमा करना शुरू कर दिया। यह नीति पिछले कई दिनों से चल रही है और बावजूद इस बात के तालिबानी अमेरिका को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं, उसके खिलाफ ज्यादा कुछ न कर सके। अमेरिकन बमबार पाकिस्तान के सीमावर्ती इलाकों में जहां पर तालिबान सरगर्म थे, बम पर बम फेंक रहे थे। इस तरह पाकिस्तानियों के हाथों उतने तालिबान हलाक न हुए जितने अमेरिकनों की बमबारी से। इस बात का तालिबान के लीडरों पर भी असर नजर आता है और उन्होंने भी सोचना शुरू किया है कि कब तक वो अमेरिकन बमबारी का शिकार होते रहेंगे। उनके पास हथियार तो केवल बंदूकें और इधर-उधर से हासिलशुदा रॉकेट थे। लेकिन अमेरिका ने जिन ड्रोन हवाई जहाजों का इस्तेमाल शुरू किया, उसका जवाब उन लोगों के पास कुछ न था। नतीजा यह हुआ कि अमेरिकन तो उनका खून करते रहे लेकिन यह ज्यादा से ज्यादा पाकिस्तान वगैरह में अमेरिकनों पर अपना गुस्सा निकालते नजर आए। यह सारी बातें पिछले कुछ सालों से चल रही हैं और ऐसा नजर आता है कि तालिबान के दिमागों पर कुछ असर हुआ है और उन्होंने भी यह कोशिश शुरू की कि किसी तरह उनकी दुश्मनी खत्म हो। चुनांचे ऐसा करने के लिए उन्होंने एक निराली चाल चली और इसका इशारा मैं अपने पाठकों को कर चुका हूं कि अचानक तालिबानी लीडरों ने हिन्दुस्तान से सुलह का इशारा क्यों किया है। उसकी वजह यही हो सकती है कि वे समझते हैं कि हिन्दुस्तान में कई करोड़ मुसलमानों के रहने के बावजूद यह एक मुस्लिम देश नहीं कहा जा सकता। इसलिए अपनी नई नीति को कामयाब करने के लिए यह देखने की कोशिश करें कि अगर वे हिन्दुस्तान को कोई पेशकश करते हैं तो हिन्दुस्तान की तरफ से उसका क्या जवाब आता है। चुनांचे हमने देखा कि तालिबानी लीडरों ने खुफिया तौर पर हिन्दुस्तानी लीडरों से सम्पर्क पैदा करने की कोशिश की है। बेशक यह एक शुरुआती दौर था जिसे जरूरत से ज्यादा अहमियत न दी जाए। लेकिन नजर यह आता है कि ऐसे हालात पैदा हो रहे हैं कि मध्य पूर्व की सारी नीति में किसी कदर तब्दीली आने वाली है। दूसरे देशों में क्या होता है, उससे हमें ज्यादा सरोकार नहीं। लेकिन जहां तक तालिबान का हिन्दुस्तान की सरकार को इशारा है, उस पर जरा गौर करने की बात है। इस सिलसिले में यह कहा जा रहा है कि राष्ट्रपरति बराक ओबामा ने यह ऐलान कर दिया है कि एक साल के बाद अमेरिकन फौजें काबुल से निकलना शुरू हो जाएंगी। उसके बाद काबुल दो देशों पर अपने नवनिर्माण के लिए भरोसा कर सकता है। लेकिन अमेरिकन भी अपने सहयोग का हाथ न खींचेंगे। यह दो देश हैंöहिन्दुस्तान और पाकिस्तान। तालिबान जानते हैं कि बेशक पाकिस्तान भी मुस्लिम देश है, लेकिन अमेरिका से नत्थी हेने की जो सजा इस्लामिक पाकिस्तान को मिल रही है उससे निजात हासिल करन sके लिए पाकिस्तानी सेना भी सरगर्म हैं। बेशक उसने स्वात वादी से इन तालिबान और उनके समर्थकों को निकाल दिया है, लेकिन ताजातरीन खबर यह है कि यह लोग धीरे-धीरे फिर से अपने घरों को वापस आ रहे हैं। ऐसी हालत में अगर तालिबान ने वाकई हिन्दुस्तान से कोई सम्पर्क चाहा है तो उस पर ज्यादा हैरानी न होगी। अमेरिकन राष्ट्रपति के ऐलान का असर हिन्दुस्तानी सरकार पर भी है, क्योंकि वे जानती है कि अगर अमेरिकन सेनाएं अफगानिस्तान से चली जाती हैं तो उस हालत में अफगानिस्तान, तालिबान और पाकिस्तान की संयुक्त नीति का शिकार बन जाएगा। स्पष्ट है कि वो इसका मुकाबला न कर सकेगा। लेकिन हमें यह गौर करना है कि अमेरिकन सेनाओं की वापसी का असर अब पाकिस्तान में हिन्दुस्तानियों की सरगर्मियों पर क्या होना है। यह बात कोई राज की नहीं कि हिन्दुस्तान की सरकार अफगानिस्तान में जो कुछ कर रही है, उसे करने वालों की सुरक्षा के लिए कोई हिन्दुस्तानी सेना वहां नहीं है। उन लोगों को अफगान सरकार की नजर पर ही भरोसा करना होगा और अफगानिस्तान खुद इस स्थिति में नहीं कि पाकिस्तान और तालिबान की संयुक्त शक्तियों का मुकाबला कर सके। इस बात ने हिन्दुस्तान के हुक्मरानों के दिमागों पर असर किया है और वो यह समझने लग गए हैं कि तालिबान की तरफ से उन्हें जो शुरुआती इशारा हुआ है उसकी हकीकत जानने की कोशिश करें और अगर तालिबान या उनका कोई हमख्याल हिन्दुस्तान से संबंध कायम करना चाहता है तो हिन्दुस्तान उसका स्वागत करेगा। इस संबंध में यह इशारे हो रहे हैं कि हिन्दुस्तान गुलबुद्दीन हिकमतयार की हिज्बे इस्लामी से संबंध कायम करने की कोशिश कर रहा है और तालिबान की तरफ से उसे जो इशारा हुआ है उस पर भी गौर करे। गुलबुद्दीन  हिकमतयार की हिज्बे इस्लामी पार्टी है और यह सुनने में आ रहा है कि भारत के नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजर श्री शिवशंकर मेनन गुलबुद्दीन हिकमतयार से सम्पर्क पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। बेशक हिकममतयार पाकिस्तान के जेरे असर है। फिर भी ऐसा नजर आता है कि तालिबान के इशारे पर वो भी हिन्दुस्तान के प्रति अपने नजरिये में कुछ तब्दीली करे। यहां तक कहा जा रहा है कि तालिबान ने हिन्दुस्तान से दो दिन पहले जो सम्पर्क पैदा करने की कोशिश की थी और जिस पर नई दिल्ली ने अपना नजरिया बदलने की जरूरत न समझी थी अब उसे भी अपना रवैया उससे बढ़कर अपने नजरिये में तब्दीली करनी पड़ेगी। तालिबान का तर्जुमान जबाउल्ला मुजाहिद ने हिन्दुस्तान से बेहतर संबंध बनाने का इशारा किया है। इस तरह इस सारे इलाके में एक नई सूरते हालात पैदा होती नजर आ रही है। इस बात के इशारे भी हो रहे हैं कि इनमें हालात की वजह से भारत सरकार ज्यादा से ज्यादा अफगान लीडरों से अपने संबंध बनाना चाहती है उनमें लंगरहार के गवर्नर गुल आगा शीराजी, मॉर्शल फहीम, करीम खली और मौहम्मद मोहक्किक के नाम लिए जा रहे हैं। इस तरह अफगानिस्तान के संबंध में सारी नीति पर गौर हो रहा है और कोई हैरानी न होगी अगर भारत सरकार कोई ऐसा कदम उठा ले जिसके बारे में सोचना भी मुश्किल था, हैरानी नहीं होनी चाहिए। भारत के विदेश मंत्रालय ने इस सवाल पर गौर करने के बाद यह नतीजा निकाला है कि वह अफगानिस्तान में आतंकवादी सरगर्मियों से अपने आपको बचाते हुए इस बात को ध्यान में रखकर अमल करे कि अगर अफगानिस्तान से अपना मुंह मोड़ लेते हैं तो पाकिस्तान पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा अफगानिस्तान में सरगर्म हो जाएगा और उसका असर हिन्दुस्तान पर भी होगा। इस तरह यह नजर आ रहा है कि अफगानिस्तान के प्रति दूसरे देशों की नीति में कुछ तब्दीली आ रही है। अमेरिकन सेनाओं की वापसी का नतीजा यही होगा कि पाकिस्तान अफगानिस्तान में ज्यादा सरगर्म हो जाएगा और हिन्दुस्तान को ज्यादा परेशान करने की कोशिश करे। ऐसी हालत में कोई इस बात की भविष्यवाणी नहीं कर सकता कि कल को अफगानिस्तान में राजनीति क्या रूप धारण करती है। के. नरेन्द्र

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