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योजनाओं की चाशनी में लिपटी राजनीति

👤 | Updated on:11 Sep 2013 12:06 AM GMT
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       डॉ. आशीष वशिष्ठ भारतीय राजनीति में नारों, वायदों और घोषणाओं का खासा महत्व है। चुनाव के नजदीक आते-आते घोषणाओं की तो बाढ़ सी आ जाती है, ये पुरानी परंपरा है जो पिछले पांच दशकों से बदस्तूर जारी है। देश में आम चुनावों में केवल आ" महीने का समय ही शेष बचा है ऐसे में राजनीतिक दल चुनावी रणनीतियां बनाने और वोटरों को लुभाने के लिए लालीपॉप घोषणाओं में जुटे हैं। पिछले दिनों यूपीए-2 सरकार ने 26 अगस्त को इसने वर्षों से लटकता आ रहा खाद्य सुरक्षा विधेयक पारित करवा लिया। गरीबों को रोटी की गारंटी देने वाला यह विधेयक सरकार और सोनिया गांधी का एक फ्रतिष्"ित कार्यक्रम है। इसके अंतर्गत ग्रामीण इलाके में 75 और शहरी इलाके में 50 फ्रतिशत लोगों को हर महीने पांच किलो चावल 3 रुपए, गेहूं 2 रुपए और ज्वार 1 रुपए फ्रति किलो की दर से मिलेगा। देश की आबादी के बड़े हिस्से को भोजन की गांरटी दिलाने का कानून देश की जरूरत है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन राजनीतिक दलों, केन्द्र और राज्य सरकारें योजनाओं को वोट बैंक के मद्देनजर और उसी नजरिया से बनाती है जो शुरुआती हो-हल्ले के बाद टांय-टांय फिस्स और बुरी तरह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है। यूपीए-1 में ग्रामीण क्षेत्रों में 100 दिन रोजगार की योजना मनरेगा लागू की गयी थी। वहीं ग्रामीणों को बेहतर स्वास्थ्य सेवों उपलब्ध कराने की नीयत से राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन भी चलाया गया था। फिलवक्त ये दोनों योजनों देश में चल रही है लेकिन इनमें व्याप्त भ्रष्टाचार, कुफ्रबंधन और अव्यवस्था किसी से छिपी नहीं है। केन्द्र सरकार  के अलावा राज्य सरकारें भी वोटरों को पाले में लाने, उनके मत को फ्रभावित करने और पार्टी के वोट बैंक को मजबूती से बांधे रखने के लिए योजनाओं का लालीपॉप देने से चूकते नहीं है। राजनीतिक दलों की लोक लुभावन और अव्यवहारिक घोषणाओं से वर्ग विशेष का लाभ भले ही होता हो लेकिन आबादी के एक बड़े हिस्से को उसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। केन्द्र सरकार की अति महत्वकांक्षी फूड सिक्योरिटी बिल के बारे में रेटिंग एजेंसी मूडीज ने भी देश की साख (रेटिंग) के लिए नकारात्मक बताते हुए कहा है कि श्इससे सरकार की वित्तीय स्थिति कमजोर होगी क्योंकि भारत का राजकोषीय घाटा अन्य उभरते बाजारों की तुलना में पहले ही काफी अधिक है। खाद्य सुरक्षा विधेयक पारित करवाने के बाद  29 अगस्त को सरकार का एक अन्य बहुफ्रतीक्षित भूमि अर्जन, पुनर्वास और व्यवस्थापन विधेयक 2011 भी पारित कर दिया गया। इस बीमारी से कोई भी राज्य अछूता नहीं है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर फ्रदेश में पिछले वर्ष चुनाव से पूर्व वोटरों से किये वायदे पूरे करने में फ्रदेश की समाजवादी सरकार की सांस फूल रही है। बावजूद इसके विकास के कई महत्वपूर्ण कार्यों को दरकिनार रख सरकार लैपटाप बांटने में जुटी है। हाल ही में फ्रदेश सरकारने भूख मुक्ति एवं जीवन रक्षा गारंटी योजना को फ्रदेश भर में लागू करने का निर्णय लिया है। जिसके तहत गरीब महिलाओं और वृद्धों को साड़ियां और कंबल मिलने का रास्ता साफ हो गया है। बीपीएल कार्ड धारक (गरीब) महिलाएं और वृद्ध योजना के पात्र होंगे। वर्ष 2013-14 के बजट में 600 करोड़ रुपए इस मद में रखे गए है। छात्रा कन्या विद्याधन योजना अंतर्गत वर्ष 2013-14 में 900 करोड़ रुपए की व्यवस्था की गई है। पढ़े बेटियां, बढ़े बेटियां योजना में 30 हजार रुपए फ्रति छात्रा देने की योजना अंतर्गत वर्ष 2013 में 2 लाख 93 हजार छात्राओं को 890 करोड़ रुपए की धनराशि बांटी जानी है। बेरोजगारी भत्ता योजना के अंतर्गत 2012-13 में 12 लाख युवकों को 664 करोड़ रुपए का भुगतान किया। इंटर पास छात्र-छात्राओं को लैपटाप और दसवीं पास छात्र-छात्राओं को टैबलेट देने की महत्वाकांक्षी योजना के मद में 2,917 करोड़ रुपए का फ्राविधान किया जा चुका है। कमोबेश यही स्थिति हर फ्रदेश सरकार की है। चुनाव के मद्देनजर हरियाणा, दिल्ली, मध्य फ्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की सरकारें ताबड़तोड़ लोकलुभावन योजनाओं की घोषणों कर रही हैं। नागरिकों का कल्याण, विकास और उन्हें सम्मानपूर्वक जीवन देने की गांरटी सरकार की नैतिक जिम्मेदारी होती है। लेकिन मसला राजनीतिक दलों की मंशा को लेकर है। सरकार बदलते ही योजनों भी बदल या बंद हो जाती है। जिन राज्यों में लगातार एक पार्टी की सरकारें शासन में हैं वहां विकास में भारी असंतुलन और असमानता देखने को मिलती है। असल में सरकार और राजनीतिक दलों की नीयत और नीति राज्य और नागरिकों के विकास एवं कल्याण की बजाय वोट बैंक साधने और सत्ता में बने रहने की होती है। जब कल्याण और विकास के मुद्दे को राजनीति के चश्में से देखा जाएगा तो किसका भला होगा ये आसानी से समझा जा सकता है। उत्तर फ्रदेश में पिछले दो दशक से विकास कार्य अवरुद्ध हैं। राजनीतिक अस्थिरता, उ"ापटक और ग"बंधन की सरकारों ने राज्य को विकास के मार्ग में मीलों पीछे धकेला है। उत्तराखण्ड में विकास के नाम पर जो विनाश का खाका पिछले तेरह सालों में खींचा गया उसकी भयावह तस्वीर केदार घाटी में आई बाढ़ ने बखूबी बयान की है। राज्यों में फ्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट मची हुई है। लोकतंत्र में लोक को राजा का दर्जा दिया गया है लेकिन असलियत किसी से छिपी नहीं है। आजादी के 66 सालों बाद भी जनता को मूलभूत सुविधों फ्राप्त नहीं है। राजनीतिक दल और सरकारें आम आदमी को नाली, सड़क, बिजली, शिक्षा, साड़ी, कंबल और खाना उपलब्ध करवाकर रिझाने में लगी हुई हैं। आम आदमी गरीबी और अशिक्षा के चलते न तो अपने अधिकारों के फ्रति जाग्रत है और न ही उसके पास इतनी फुर्सत है कि वो अपने फ्रति हो रहे अन्याय के खिलाफ खड़ा हो सके। सरकारी योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार किसी से छिपा नहीं है। जमीनी हकीकत से सरकार और फ्रशासन बेखबर नहीं है लेकिन सरकार और राजनीतिक दल सीधे तौर पर रिश्वत देकर वोट खरीदने की बजाय आम आदमी के कल्याण की आड़ में रोटी, रोजगार, कंबल, लैपटाप, साइकिल, टीवी, मोबाइल और सिलाई मशीनें आदि बांटकर वोट खरीदने की नीयत रखते हैं इसलिए तमाम अच्छी कल्याणकारी योजनों अपने मकसद में कामयाब होने की बजाय रास्ते में दम तोड़ देती हैं या पूरी तरह से भ्रष्टाचार का दीमक उन्हें चाट जाता है। आम चलन है कि सत्ता हासिल करते ही लूटपाट और राजनीतिक उखाड़-पछाड में मस्त रहते हैं और चुनाव नजदीक आते देख उनकी नींद खुलती है और तब वोट बटोरने के लिए उन्हें जनता को रिझाने की याद आती है। खाद्य सुरक्षा विधेयक को पारित करके कांग्रेस नीत केंद्रीय यूपीए-2 सरकार ने दोबारा सत्ता में आने की पूरी कोशिश की है। केन्द्र सरकार की भांति राज्यों की सरकारें भी काफी वर्षों से ऐसा ही करने लगी हैं। साढ़े 4 साल तक यूपीए सरकार को आम आदमी की भूख का ख्याल नहीं आया और वो पैसों की कमी का रोना रोती रहती हैं और अंतिम वर्ष लोकलुभावन घोषणाएं करने के लिए खजाने का मुंह खोलना सरकार की मंशा को उजागर करता है। वरिष्" पत्रकार अश्विनी कुमार ने सरकारी योजनाओं में फैले भ्रष्टाचार और राजनीतिक दलों की नीयत के मद्देनजर एक महत्वपूर्ण सुझाव दिया है। उनके अनुसार, संसद और विधानसभा के चुनाव 5 साल की बजाय 3 या 4 साल में आयोजित करवाए जाएं ताकि मतदाताओं के रुके हुए काम जल्दी हो सकें क्योंकि केंद्र हो या राज्य-सभी सरकारें काम तो चुनावी वर्ष से ऐन पहले ही शुरू करती हैं। अश्विनी जी के विचार पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है, वरना चुनावी चाशनी में डूबी राजनीति देश को रसातल में ले  जाएगी जिसकी आहट सुनाई भी देने लगी है।

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