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जातीय जनगणना जरूरी

👤 | Updated on:13 May 2010 1:35 AM GMT
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संविधन निर्माताओं का उद्देश्य भारत को जातिविहीन समाज बनाना था। यद्यपि समाज के अति पिछड़े वर्ग को शैक्षिक व आर्थिक रूप से सबके बराबर लाने के लिए उन्होंने दस वर्ष तक आरक्षण पणाली लागू रखने का पावधन रखा, लेकिन अपने मकसद की पूर्ति को मद्देनजर रखते हुए ये भी कहा कि जनगणना का आधर जातिगत नहीं होगा और आरक्षण की व्यवस्था भी धरे-धरे वापस ले ली जाएगी। बावजूद इन तथ्यों के वास्तविक स्थिति ये है कि आरक्षण नई-नई जगहों पर अपनी जड़े पफैला रहा है और राजनीति का यह ऐसा अटूट हिस्सा बन गया है कि कोई भी सियासी पार्टी पिफलहाल या निकट भविष्य में इसका विरोध् करने की स्थिति में नहीं है। इसलिए जब लोकसभा में मांग उ"ाr की 2011 की जनगणना जाति आधारित होनी चाहिए तो कम लोगों को ही ताज्जुब हुआ। भारत में जातिगत जनगणना आखरी बार अंगेज शासन के दौरान 1931 में कराई गई थी। इसके बाद जब भारत आजाद हुआ तो संविधन निर्माताओं ने जातिविहीन समाज बनाने के उद्देश्य से जातिगत जनगणना को पूर्णतः पतिबंध्ति कर दिया। लेकिन जाति आधरित आरक्षण आज की राजनीति का कड़वा सच है। संभवतः इसी को मद्देनजर रखते हुए कानून मंत्रााr वीरप्पा मोइली ने मांग की थी कि जातिगत जनगणना कराई जाए। लेकिन पधनमंत्रााr डॉ.मनमोहन सिंह ने उनकी मांग को सिरे से खारिज कर दिया और लगने लगा कि अब इस मुद्दे पर विराम लग गया है। बहरहाल आश्चर्य उस समय हुआ जब बीती 3 मई को जातिगत जनगणना कराने के लिए लोकसभा में विपक्ष की तरपफ से न सिपर्फ जबरदस्त मांग की गई बल्कि खूब हंगामा भी हुआ। शुरूआत तो यादव त्रााrमूर्ति ;मुलायम, लालू व शरदद्ध ने कीऋ लेकिन यह मांग पिफर हर पार्टी की तरपफ से आने लगी जिसमें विशेष रूप से अकाली दल, शिवसेना, अन्नादमुक, आरजेडी, एसपी और जेडी ;एसद्ध शामिल थीं। दिलचस्प बात यह है कि सत्तारूढ़ ग"बंध्न की डीएमके और कुछ कांग्रेसी नेताओं ने 2011 की जनगणना जाति के हिसाब से कराने की मांग की। दरअसल, यह मांग इतनी तीव्र हो गई है कि वामपंथी जो जाति पर वर्ग को वरीयता देते हैं, वे भी इसमें शामिल हो गए हैं। सीपीएम के वासुदेव आचार्य और सीपीआई के गुरुदास दासगुप्ता का कहना है की इस विषय पर सर्वदलीय बै"क बुलाई जानी चाहिए। जब जाति की ओर वामपंथियों को झुकते हुए देखा तो भाजपा भी जातिगत जनगणना के समर्थन में उ" खड़ी हुई। उसने भी कहा कि जनगणना डाटा एकत्रा करने का सर्वोत्तम स्रोत है और जब जातियों के आधार पर आरक्षण दिया जा रहा है तो सही आंकड़ें सामने होने चाहिए। इसमें शक नहीं है कि जनगणना जानकारी व डाटा एकत्रा करने का सबसे अच्छा स्रोत है। इसी से हमें मालूम होता है कि देश में कितने लोग गरीबी की रेखा के नीचे हैं और ऐसी ही जानकारियों के आधर पर पफूड सुरक्षा जैसे कानून बनाए जाते हैं। यह भी एक तथ्य है कि आरक्षण की सुविध अनुमानित आंकड़ों के आधर पर दी जा रही है। जब आरक्षण देना ही है तो पिफर सही आंकड़ों के आधर पर क्यों न दिया जाए? इसलिए जातिगत आरक्षण का महत्व बढ़ जाता है। संविधन निर्माताओं की उम्मीदें और लक्ष्य अपनी जगह, लेकिन कानून जमीनी सच्चाइयों को मद्देनजर रखकर बनाए जाते हैं और सुविधएं देने का आधर भी यही होता है। अनुमान के आधर पर बनाई गई योजनाएं अकसर आशानुरूप नतीजे बरामद करने में नाकापफी रहती हैं। इसलिए "ाsस डाटा के आधर पर ही आगे बढ़ना चाहिए। जब आरक्षण देना ही है क्योंकि किसी में इसे खत्म करने की हिम्मत नहीं है, तो पिफर सही आंकड़ों के आधर पर ही क्यों न दिया जाए? जाहिर है विभिन्न जातियों का सही पतिशत जनगणना के जरिए ही हासिल किया जा सकता है। इसलिए जातिगत जनगणना की मांग महत्वपूर्ण और काबिले-कबूल हो जाती है। यह सही है कि सरकार ने स्पष्ट किया है कि वह जाति आधरित जनगणना की ओर पिफर से लौटने में सक्षम नहीं है, लेकिन उसने अपना ये विरोध् किसी विचारधरा पर आधरित नहीं किया है। सरकार का कहना है कि जनगणना का काम शुरू हो गया है और अब वह जिस मुकाम पर पहुंचा हुआ है उसमें पफेर बदल संभव नहीं है। लेकिन लगता ये है कि सरकार मध्यम वर्ग की भावनाओं को लेकर चिंतित है। ध्यान रहे कि जब मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू की गई थी तो मध्यमवर्ग ने ही उसका विरोध् किया था। बीच में यह भी देखने को मिला कि जो पार्टियां अनुसूचित जातियों और पिछड़ों को मुद्दा बनाकर राजनीति करती हैं वे भी आरक्षण के कुछ मुद्दों पर जैसे केंदीय शिक्षा संस्थानों में कोटा दिया जाना आदि पर थोड़ी नर्म रहीं। चूंकि वे सवर्ण जातियों को भी अपने साथ मिलाकर  चलने की इच्छुक हो गई हैं। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि जब आरक्षण दिया ही जाना है तो पिफर वह सही आंकड़ों के आधर पर क्यों न दिया जाए। यही वजह है कि अब कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों के लोग भी जातिगत जनगणना को सामने लाना चाहते हैं। इनकी वजह से उन पार्टियों के हौसले बढ़ गए हैं जो अपनी राजनीति ही दलितों व पिछड़ों को लेकर करती हैं। संभवतः सत्ता में रहते हुए भी डीएमके ने इसी कारण से जातिगत जनगणना की मांग की है। ध्यान रहे कि डीएमके अपनी राजनीति में दलित या पिछड़ा कार्ड चलने से कभी पीछे नहीं हटती है। इसलिए जब विपक्ष ने टेलीकोम मंत्रााr ए राजा को बरखास्त करने की मांग की तो डीएमके पमुख एम करुणानिध ने राजा का बचाव करते हुए कहा कि उनको निशाना सिपर्फ इसलिए बनाया जा रहा है क्योंकि वह दलित हैं। ध्यान रहे कि राजा पर 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले में लिप्त होने का आरोप है। बहरहाल जातिगत जनगणना कराने और न कराने के पक्ष व विपक्ष दोनों में ही जबरदस्त तर्क दिए जा सकते हैं। जो लोग इसके समर्थन में हैं उनका कहना है कि इससे अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण करने में सुविध मिलेगी। लेकिन जो इसका विरोध् कर रहे हैं उनका कहना है कि इससे आरक्षण का एक ऐसा सिलसिला शुरू हो जाएगा जिस पर काबू पाना लगभग असंभव हो जाएगा। बावजूद इन तर्कें के तथ्य ये है कि जाति को जनगणना से बाहर रखना कोई अकलमंदी नहीं है। जाति को जनगणना से बाहर रखकर आप जातिविहीन समाज नहीं बना सकते। जब तक सरकार उन गुटों को आरक्षण की सुविध देती है जो ऐतिहासिक कारणों से पिछड़े हैं तब तक यही बेहतर है कि उनके बारे में जितनी ज्यादा से ज्यादा जानकारी एकत्रा की जाए। इसका अर्थ यह नहीं है कि केवल पिछड़ी जाति की संख्या को गिन लिया जाए। इससे सही योजना बनाने में मदद मिलेगीऋ क्योंकि यह मालूम हो सकेगा कि कौन सी जातियां वास्तव में कितनी पिछड़ी हैं। यह इसलिए भी आवश्यक है ताकि योजना अनुमान की बजाय तथ्यों पर आधरित की जा सके। शाहिद ए चौध्री  

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