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`अमन की आशा' कांफ्रेंस की कार्यवाही

👤 | Updated on:22 May 2010 3:11 AM GMT
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भारत और पाकिस्तान के मुस्लिम दानिशवर इस बात से सहमत हैं कि वह यह समझते हैं कि दोनों देशों की भलाई इसी में है कि उनमें अमन कायम हो और ऐसा करने के लिए वह अपनी तमाम कोशिशें कर रहे हैं। मैं ऐसे पाकिस्तानी रहनुमाओं का स्वागत करना चाहता हूं, लेकिन पूरे अदब से यह भी कहे बगैर नहीं रह सकता कि उन्होंने जिस `अमन की आशा' से अपनी गतिविधियां शुरू की इससे उन्हें वे नतीजा हासिल न होगा जिसका वह उम्मीद करते हैं और जिसकी उम्मीद करनी चाहिए। कोई सच्चा देशभक्त हिन्दू हो या मुसलमान, इस बात का स्वागत करेगा कि दोनों देशों के बीच जो तल्खी पैदा हुई है वह खत्म हो। लेकिन मैं माफी चाहता हूं जब यह कहता हूं कि जिन लोगों ने यह जिम्मेदारी अपना ली है उनकी नीयत साफ होने के बावजूद उन्हें कामयाब नहीं कर सकती। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि न वह और न हमारे भारतीय रहनुमां यह जानने की कोशिश करते हैं कि दोनों के बीच जो तल्खी है, वो क्यों है, किन लोगों की वजह से है और कैसे वो दूर हो सकती है। अमर वाकया यह है कि यह तीनों नुक्ते ऐसे हैं जिनको समझे बगैर अमन की आशा करना मेरी नाकिस राय में अपना कीमती वक्त जाया करना है। इसलिए कि जो तबका फसाद या बदअमनी फैलाता है वह इस अमन की आशा के लीडरों की सफों में मुझे कहीं नजर नहीं आता और हक यह है कि जब तक ऐसे लोगों को न समझाया जाएगा तब तक यह अमन की सारी बातें ख्वाब व ख्याल ही रहेंगी। आखिर यह तो हुआ नहीं कि आज से पहले किसी मुस्लिम दानिशवर ने दोनों देशों के बीच जो  तल्खी है, उसे दूर करने की कोशिश न की हो। लेकिन हर हालत में वे सब कोशिशें ढाक के तीन पात ही साबित हुईं और मामला विचार से भटककर रह गया। अमर वाकया यह है कि यह मामला ऐसा है जिससे मुस्लिम कौम के सबसे निचले दर्जे का बाशिंदा ही वाबस्ता है और जब तक यह लोग उन लोगों को अपना नहीं बनाते जितना यह दूसरों को बना रहे हैं तब तक यह समस्या हल होने वाली नहीं। इस सारे पसमंजर में जब आप `अमन की आशा' वाबस्ता लोगों के इरादों पर विचार करते हैं तो आपको उनके इरादों की तारीफ तो करनी पड़ती है लेकिन इस बात पर शक होता है कि क्या उनकी उम्मीदें कामयाब भी होंगी। जब मैं उन लोगों की कोशिशों पर शक का इजहार करता हूं तो इसलिए कि मेरी नजर में इन संस्थाओं से वाबस्ता मुसलमान भारत के प्रति मुस्लिम अवाम के रुझान के लिए जिम्मेदार हैं। जिस कांफ्रेंस का मैं जिक्र कर रहा हूं उसमें बुद्धिजीवी और पढ़े-लिखे लोग शामिल हैं जबकि फसाद और बेचैनी उन लोगों को ही होती है जिनके लिए ऐसी गद्दियां सुरक्षित नहीं हैं। मैं यह नहीं कहता कि यह लोग अपनी तौहीन समझते हैं जब उन्हें ऐसी कांफ्रेंसों में शामिल नहीं किया जाता। अमर वाकया यह है कि अमन की आशा न करने वाले मुसलमान ही आज सबसे बड़ी समस्या बने हुए हैं। विस्तृत रूप से नाकद्री की नीति का शिकार होने के कारण से यह लोग जब भड़क उठते हैं तो फिर वह किसी मौलवी या मुल्ला की बात सुनने को तैयार नहीं होते। आज जब मैं `अमन की आशा' के जलसे की कार्यवाही देख रहा था तो मुझे मुसलमानों के उस चौथे दर्जे के किसी मुसलमान का नाम नजर न आता और यह फसाद कराने के जिम्मेदार उस चौथे दर्जे के ही लीडर हैं जिन बेचारों को किसी गिनती में ही नहीं लिया जाता। किसी को इस गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए कि इस कांफ्रेंस में चूंकि उस तबके के लोगों को नहीं बुलाया गया। इसलिए वे उसके फैसले के पाबंदी नहीं। बात यह नहीं, मुझे कोई हैरानी न होगी अगर यह पता चले कि जिन लोगों को बुलाया गया है, उनमें उस चौथे तबके के मुसलमानों का कोई लीडर नहीं तो मैं किसी कदर निराश तो हुआ लेकिन मुझे इस बात का इत्तमिनान था कि अगर यह लोग कांफ्रेंस में शामिल हो  भी जाएं तब भी दूसरे तबके के लीडरों की भावनाओं को समझते हुए अपने आपको वाबस्ता कर सकेंगे। यह सवाल है जिसका जवाब नहीं मिल रहा और जब तक इस तबके के लोगों से पूरे एहतराम और इज्जत से पेश नहीं आया जाता, यह लोग अपनी गैर-मौजूदगी को महसूस करते हुए ऐसी सब कांफ्रेंसों को नकारा करके रख देते हैं।    

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