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तंबाकू का कहर

👤 | Updated on:24 May 2010 3:44 PM GMT
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t देश में हर रोज कम से कम 2200 लोग तंबाकू से पैदा हुई तमाम बीमारियें के चलते दम तोड़ देते हैं। t आज जो युवा तंबाकू या तंबाकू से बने विभिन्न उत्पादों का इस्तेमाल करते हैं उनमें से 50 पफीसदी का इसी के जहर के चलते मौत के मुंह में समा जाना लगभग तय है। t सन 2020 तक देश में होने वाली कुल मौतों का तकरीबन 13.3 सदी मौतें तंबाकू से होंगी। ये या इस तरह के अथवा इससे भी भयावह आंकड़े और निष्कर्ष आपको 31 मई के आसपास तमाम अखबारों, टेलीविजन चैनलों, रेडियो, शहरों के व्यस्त चौराहों में बड़े-बड़े होर्डिंग्स, सर्कुलर ट्रेनों ओर उन तमाम जगहों पर देखने, सुनने या पढ़ने को मिल जाएंगे। बिल्कुल वैसे ही जैसे 15 अगस्त, 26 जनवरी और 2 अक्तूबर को तमाम राष्ट्रवादी, लोकतंत्रावादी और गांधवादी विचारों से सजे विज्ञापन देखने को मिलते हैं। बिल्कुल रस्मी अंदाज में। मगर सवाल उ"ता है कि क्या इस दिन इस तरह के इश्तहारों को देखकर लोग ध्tम्रपान करना छोड़ देते हैं? अगर ऐसा होता, होता तो अब तक देश में एक भी शख्स न बचा होता जो ध्tम्रपान की लत का शिकार होताऋ क्योंकि न सिपर्फ विश्व तंबाकू निषेध् दिवस अपितु समय-समय पर और भी मौकों पर इस तरह के विज्ञापन पसारित-पचारित होते रहते हैं। मगर आंकड़े गवाह हैं कि ध्tम्रपान करने वालों की तादाद में किसी तरह की कमी आने की बजाय इसमें लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। इस समय करीबन 20 करोड़ से ज्यादा भारतीय तंबाकू की जबरदस्त लत का शिकार हैं। तंबाकू की लत के शिकार लोगों का यह आंकड़ा सरकारी है और अब तक का सबसे बड़ा है। गैर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में 30 करोड़ से ज्यादा स्त्रााr-पुरुष तंबाकू की लत का शिकार हैं। कुछ साल पहले तक सरकारी आंकड़ा 15-16 करोड़ के आसपास था जो बढ़ते-बढ़ते 20 करोड़ की सीमा पार कर रहा है। सवाल है क्या सरकार और उसकी विभिन्न एजेंसियों के तमाम तरह के विज्ञापनों, कानूनों का कोई असर पड़ता भी है या ये सिपर्फ रस्म अदायगी भर के लिए होते हैं? कम से कम आंकड़े देखने के बाद तो कोई भी नहीं कह सकता कि शहर के व्यस्त चौराहों से लेकर दिनभर बजने वाले एपफएम रेडियो, टेलीविजन चैनलों या अखबारों में तंबाकू के सेवन से पैदा हुई भयावह समस्याओं को समेटने वाले विज्ञापनों का आम लोगों के जीवन में कोई असर पड़ता है। उल्टे तंबाकू की लत के शिकार लोगों के आंकड़ों को क्रमिकता के साथ रखकर देखें तो पता चलता है कि इस तरह के आगाह करने वाले विज्ञापनों की परवाह किए बिना ये आंकड़े लगातार बढ़ रहे हैं। सवाल उ"ता है कि लोग आखिर सरकार की इन नसीहतों को क्यों नहीं सुन रहे? क्या इसका मतलब यह है कि किसी तरह के पचार या विज्ञापन ंसे कोई पफर्क ही नहीं पड़ता, जिसे जो मन होता है करता है? ऐसा नहीं है अगर विज्ञापनों का असर न होता हो तो खरबों रुपये का विज्ञापन उद्योग न होता। अगर विज्ञापनों के जरिये वाकई किसी चीज का पचार संभव नहीं होता तो कई उत्पाद रातों-रात पूरे देश व दुनिया में छा न जाते। सवाल है पिफर तंबाकू को लेकर सरकार की तमाम अच्छी-अच्छी बातों का लोगों पर असर क्यों नहीं पड़ता? हर साल सरकार अरबों रुपये इस तरह के जन जागरण अभियानों में खर्च कर देती है मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात होता है। लोग लगभग उसी तरह से इन रस्मी विज्ञापनों और तंबाकू से दूर रहने की नसीहतों के आदी हो गए हैं जैसे पुराने डीडीटी कीटनाशक के आदी मच्छर हो गए हैं। कितना भी ताकतवर डीडीटी का छिड़काव करा लीजिए मच्छर नहीं मरते। कुछ ऐसा ही असर इन विज्ञापनों और नसीहतों के पति लोगों का हो गया है। सवाल है आखिर ऐसा क्यों है? लोग क्यों मरने पर उतारू हैं? आखिर उन्हें यह बात समझ में क्यों नहीं आती कि सरकार उन्हीं की भलाई के लिए तंबाकू से दूर रहने की चेतावनी देती है? दरअसल इन सब सवालों का जवाब सरकार का दोहरा रवाया या कहना चाहिए पाखंड है। सरकार एक तरपफ लोगों को आगाह करती है कि वह तंबाकू और तंबाकू उत्पादों का सेवन न करे क्योंकि यह भयानक जहर हैं। दूसरी तरपफ यह सरकार ही है जो न सिपर्फ तंबाकू के उत्पादन के लिए किसानों को लाइसेंस देती है बल्कि तंबाकू उत्पाद बनाने वाली कंपनियों को भी लाइसेंस देती है। यही नहीं तंबाकू से सम्बंध्ति विभिन्न तरह के विज्ञापन जो तंबाकू उत्पादों को हीरोइज्म से जोड़ते हैं, उनके पचार-पसार पर किसी तरह की पाबंदी नहीं है। सिपर्फ इनके पचार को ही इजाजत नहीं है बल्कि जहर का उत्पादन करने वाली इन कंपनियों को विभिन्न तरह की सामाजिक गतिविध्यों के आयोजन की भी इजाजत होती है। सिगरेट बनाने वाली कंपनियां अकसर खेलों के बड़े-बड़े टूर्नामेंट आयोजित करती हैं। क्रिकेट हो या पफुटबॉल, स्नूकर हो या गोल्पफ। सभी महत्वपूर्ण खेलों की पतिस्पर्धओं का आयोजन ये तंबाकू उत्पादन करने वाली कंपनियां करती हैं। जाहिर है जब इस तरह की गतिविध्यों, आयोजनों पर खर्च होने वाला पैसा ये जहर बनाने वाली कंपनियां करेंगी तो पिफर वह कंपनियां उन्हीं मंचों से या उन्हीं मंचों में अपने उत्पादनों का पचार-पसार क्यों नहीं करेंगी? जब तंबाकू उत्पादों वाली ये अरबों-खरबों डॉलर कमाने वाली कंपनियां इन उत्पादों के महिमा मंडल पर करोड़ों-करोड़ डॉलर खर्च करेंगी वह भी ग्लैमरस और पेशेवराना अंदाज में तो भला उस सबका असर तंबाकू उत्पादों की ललक पैदा करने में क्यों कारगर नहीं होगा? अगर वाकई सरकार आम लोगों की भलाई के पति पतिब( है, सरकार नहीं चाहती कि देश का युवा इस जहर के कहर के दायरे में आए तो वह इन तमाम उत्पादों को ही पतिबंध्ति क्यों नहीं कर देती? देश में सिगरेट, बीड़ी, सिगार, खैनी, गुटखा जैसे उत्पादों के बनाने की इजाजत ही क्यों दी जाती है जब सरकार को लोगों के स्वास्थ्य और जीवन की इतनी ही चिंता है? अगर देश में तंबाकू की खेती न हो और विदेशों से तंबाकू का आयात पतिबंध्ति कर दिया जाए तो भला देश में तंबाकू उत्पादों का कहर कैसे टूटेगा? लेकिन सरकार ऐसा कुछ नहीं करना चाहती। दरअसल सरकार के अपने भी हित हैं। इसलिए सरकार लोकतांत्राक लिहाज को ध्यान में रखते हुए लोगों को उफपरी मन से यह नसीहत देने की रस्म अदायगी तो करती है कि ये जहरीले उत्पाद हैं इनसे दूर रहना ही स्वास्थ्य के लिए बेहतर है। मगर वह ऐसा कोई काम नहीं करना चाहती जिससे वाकई इस तरह के उत्पादों का उत्पादन और इस्तेमाल हतोत्साहित हो। कुल मिलाकर सरकार इन जहरीले उत्पादों से दूर रहने की भाषणबाजी महज एक पाखंड के चलते करती है। सिगरेट की जिस डिब्बी में बारीक अक्षरों से लिखा होता है, सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। उसी सिगरेट की डिब्बी में मोटे-मोटे हरपफों में ऐसा लरजता हुआ कोई विज्ञापन होगा जो बिना स्पष्ट शब्दों में कहे यह संदेश दे रहा होगा कि सिगरेट पीना मर्दानगी, आध्gनिकता और आजाद ख्याल होना है। `हम रेड एंड व्हाइट पीने वालों की बात ही कुछ और है' इस पंच लाइन के साथ ही खुली शर्ट में एक ऐसा मर्दाना चेहरा गर्व से भरा हुआ नजर आता है जो किसी को अभी-अभी आग से बाहर निकालकर लाया है। यह विज्ञापन अवचेतन में किशोरों और युवाओं के कुछ ऐसा भाव भरता है मानों सिगरेट पीने वाले स्टाइलिश लोग ही इस कदर तेज दिमाग, परोपकारी, ताकतवर और मौके की नजाकत के हिसाब से रिएक्ट करने वाले होते हैं। दूसरी तरपफ जिन विज्ञापनों में इन चीजों से दूर रहने की नसीहत दी जाती है, वह इतने थके-हारे और वितृष्णा पैदा करने वाले होते हैं कि उनको देखने के बाद खाना खाने का भी जी न करे। लेकिन ये विज्ञापन इतनी उबकाई और वितृष्णा तो पैदा करते हैं लेकिन ये सब तम्बाकू उत्पादों के लिए नहीं करते बल्कि उन लोगों के लिए करते हैं जिनको इनका शिकार दिखाया जाता है। सरकारी नसीहतों से भरे विज्ञापनों में नशे की लत से बर्बाद होने वाले लोग इतने गरीब और सामाजिक अस्तित्व से विहीन दिखते हैं कि उनको देखने के बाद कोई सीख लेने की बजाय यही चाहता है कि कितना जल्दी इस चैनल को बदला जाए। आमतौर पर मध्यवर्ग की मानसिकता गरीबी नहीं गरीब विरोध होती है। ऐसे में जब इस तरह के विज्ञापन दिखते हैं तो बजाय सीख लेने के मध्यवर्ग के लोग उल्टे यह सोचते हैं कि इन गरीबों की यही नियति है। इसलिए वह एक क्षण को भी उनके साथ अपने आपको नहीं खड़ा करके देख पाते। इस कारण कोई सीख भी नहीं लेते। बेहतर है कि सरकार या तो इस तरह का पाखंड न करे जिससे लगे कि जनता के पति वह बहुत ही संवेदनशील है। अगर सचमुच सरकार चाहती है कि लोग तंबाकू और विभिन्न जहरीले तंबाकू उत्पादों से दूर रहें तो पिफर ईमानदारी से "ाsस उपाय करे। बड़े और कड़े निर्णय ले। लीपापोती न करे। बीच का रास्ता निकालने की कोशिश न करे। क्योंकि हकीकत यह है कि सरकार इस मामले में दोहरा चेहरा रखती है। रस्मी दिनों में इन बुराइयों के विरु( विज्ञापन देती है और पूरी होशियारी इस मकसद पर लगाती है कि कैसे इन उत्पादों से अध्कि से अध्कि राजस्व हासिल किया जाए। इसे भी वह जनता की भलाई के लिए किए जाने वाले पयास का नाम देती है। दिल्ली की सरकार गर्व से कहती है कि दिल्ली में बने ज्यादातर फ्रलाइओवर शराब की बिक्री में लगी एक्साइज ड्यूटी व दूसरे करों से हासिल रकम से बने हैं। जो सरकार 2 अक्तूबर को गांध जी के पफोटो के साथ अखबारों में शराब से दूर रहने की नसीहत वाला विज्ञापन देती है उसी सरकार का आबकारी महकमा हर उस दिन के पहले शहर के तमाम छोट-बड़े अखबारों में शराब के "sकों के बंद रहने की सूचना देता है जब अगले दिन ड्राई डे होता है। अपत्यक्ष रूप से यह विज्ञापन लोगों को यह बताने के लिए होता है कि आज ही खरीद लीजिए कल नहीं मिलेगी। जो सरकार तंबाकू के विभिन्न उत्पादों से होने वाले कैंसर रोगों के इतने वीभत्स विज्ञापन, टेलीविजन चैनलों में पाइम टाइम पर दिखाती है, वही सरकार उन जगमगाते नियोन लाइट वाले होर्डिंग्स पर पतिबंध् नहीं लगाती जो तंबाकू और सिगरेट उत्पादों का महिमा मंडन कर रहे होते हैं। केंद सरकार  विभिन्न तरह के करों के जरिये हर साल 8 से 10 हजार करोड़ रुपये तंबाकू उत्पादों से हासिल करती है। बड़ी मासूमियत से सरकार का यह तर्क होता है कि यह ध्न देश की उन्नति और विकास के लिए इकट्"ा किया जाता है। पूरी तरह से यह गलत भी नहीं है मगर यह दोहरी किस्म की मानसिकता क्यों? अगर वाकई यह ध्न उगाहना इतना ही जरूरी है तो पिफर यह किस अपराध्बोध् के चलते लोगों को इन चीजों से दूर रहने की नसीहत दी जाती है। ऐसे में तो वही लोग देशभक्त हैं जो ऐसे जहरीले उत्पादों का सेवन करते हैं और देश के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं? वक्त आ गया है कि सरकार यह पाखंड छोड़े और तंबाकू के दुष्पभाव से देश को मुक्त कराने के लिए कड़ा व "ाsस निर्णय ले। अगर ऐसा नहीं हुआ तो लोग कभी भी तंबाकू के जहरीले उत्पादों से मुंह नहीं पफेरेंगे। ऐसे में सरकारें आगाह करती रहेंगी और तंबाकू शिकार करती रहेगी। लोकमित्रा  

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