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एक फैसला, एक फतवा दोनों बेकार

👤 | Updated on:24 May 2010 3:48 PM GMT
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हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट की तरपफ से एक महत्वपूर्ण पफैसला आया है जिसमें कहा गया है कि अगर कोई मुस्लिम शख्स किसी दूसरे धर्म की महिला से शादी करता है तो इसे तभी वैध् माना जाएगा जब वह इस्लाम कबूलेगी। जाहिर है यह पैफसला महिलाओं की स्वतंत्राता को सीमित करने का पयास है। लेकिन बदकिस्मती से महिलाओं के विरोध् में दारुल उलूम देवबंद की तरपफ से भी एक हास्यस्पद पफतवा आया है जिसमें कहा गया है कि मुस्लिम महिलाओं का न केवल सरकारी या पाईवेट नौकरी करना गैर-इस्लामी है बल्कि उनके वेतन का परिवार द्वारा पयोग करना भी हराम व पतिबंध्ति है। इसमें कोई शक नहीं है कि यह पैफसला और यह पफतवा दोनों ही बेकार हैं और महिलाओं की आर्थिक व सामाजिक स्वतंत्राता पर अंकुश लगाकर उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाने का पयास है। इसलिए महिला व मुस्लिम संग"नों ने इनका विरोध् किया है। साथ ही यह बात भी यकीन से कही जा सकती है कि स्वतंत्रा व शिक्षित महिलाएं इस किस्म के दकियानूसी विचारों को नजरअंदाज करते हुए पगति के पथ पर आगे बढ़ती रहेंगी। हुआ यूं कि इलाहाबाद के रहने वाले दिलबर हबीब सिद्दीकी ने पिछले साल 29 दिसम्बर को खुशबू जायसवाल से ब्याह रचाया था। इस विवाह के विरोध् में खुशबू की मां, सुनीता जायसवाल ने सिद्दीकी के खिलापफ अपनी लड़की के अपहरण की एपफआईआर दर्ज कराई। इस एपफआईआर को रद्द कराने के लिए सिद्दीकी ने अदालत के दरवाजे पर दस्तक दी। लेकिन जस्टिस विनोद पसाद और जस्टिस राजेश चन्दा की डिविजन बेंच ने अपने महत्वपूर्ण पैफसले में कहा कि अगर मुस्लिम व्यक्ति किसी अन्य र्ध्म की लड़की से ब्याह रचाता है और वह लड़की शादी से पहले इस्लाम र्ध्म नहीं अपनाती है तो मुस्लिम नियमों के अनुसार ऐसी शादी वैध् नहीं मानी जाएगी। इसलिए सिद्दीकी की याचिका को खारिज किया जाता है और खुशबू को नारी निकेतन से अपने माता-पिता के घर भेजने का आदेश दिया जाता है। डिविजन बेंच ने यह भी कहा कि अगर कोई मुस्लिम शख्स अपनी पहली पत्नी को तलाक दिये बिना अध्र में छोड़ देता है और बच्चों के साथ न्याय नहीं कर पाता है तो उसकी दूसरी शादी वैध् नहीं मानी जाएगी। गौरतलब है कि सिद्दीकी की पहले भी एक पत्नी है जिससे उसके तीन बच्चे हैं, पहली पत्नी व तीन बच्चों को सिद्दीकी ने अध्र में छोड़ दिया है। यहां समझने की बात यह है कि कुरआन का मंशा बहुपत्नी विवाह  पर रोक लगाना है। जिस दौर में कुरआन अवतरित हो रहा था तो पुरुषों को अनगिनत पत्नियां रखने का अध्कार था जिन्हें वह अपनी सम्पत्ति समझते थे। इस कुपथा पर रोक लगाने के लिए कुरआन ने सिलसिलेवार पयास किए, जिसमें पहले पत्नियों की तादाद चार तक सीमित की और पिफर उनके बीच इंसापफ करने की शर्त लगाई। इस तरह जब समाज में सुधर आने लगा तो कुरआन ने सूरे-निसा की आयत 129 के तहत स्पष्ट कहा कि तुम चाहकर भी अपनी पत्नियों के बीच इंसापफ नहीं कर सकते। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि एक शख्स को एक वक्त में एक ही पत्नी रखने का अध्कार है। अगर इलाहाबाद हाईकोर्ट इस आधर पर खुशबू और सिद्दीकी के विवाह को अवैध् "हराता तो कोई बात न थी। लेकिन अदालत ने आधार यह बनाया कि एक गैर मुस्लिम लड़की की शादी एक मुस्लिम पुरुष से उस वक्त तक वैध् नहीं हो सकती जब तक कि वह इस्लाम र्ध्म स्वीकार न कर ले। इस पैमाने के आधर पर तो शाहरुख खान और गौरी, आमिर खान और किरन राव व रितिक रोशन और सुजेन की शादियां भी अवैध् हो जाती हैं क्योंकि गौरी, किरन राव व सुजेन ने अपने-अपने पतियों का र्ध्म नहीं अपनाया है। शादी दो बालिग लोगों की आपसी रजामंदी है जिसमें  अपने र्ध्म पर कायम रहते हुए भी दाखिल हुआ जा सकता है। यही आधुनिक युग का तकाजा है। शादी के लिए र्ध्म परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं। गौरतलब है कि कुरआन अहले-किताब के सदस्यों से शादी करने की अनुमति देता है। कुरआन के अनुसार हर कौम में पैगम्बर आए हैं, ईश्वरीय पुस्तक के साथ। इस दृष्टि से देखा जाए तो मुस्लिमों के लिए बाकी र्ध्में के सभी लोग चूंकि अहले-किताब में शामिल हो जाते हैं इसलिए उनसे बिना र्ध्म परिवर्तन किए शादी वैध् हो जाती है। जहां तक दारुल उलूम देवबंद के पफतवे का सवाल है तो उसमें कहा गया है कि मुस्लिम महिलाएं उन सरकारी या निजी क्षेत्रााsं में काम नहीं कर सकतीं जहां महिला व पुरुष साथ काम करते हों और महिलाओं को पुरुषों से बेपर्दा होकर बात करनी पड़े। इसके अलावा पफतवे में यह भी कहा गया है कि सम्बंध्ति महिला के परिवार के लिए उसके वेतन का पयोग करना हराम व अवैध् है। यह पफतवा जहां पुरातनपंथी है वहीं इस्लामी मूल्यों का विरोध् भी करता है। सबसे पहली बात तो यह है कि कुरआन महिला को आर्थिक रूप से स्वतंत्रा होने की अनुमति पदान करता है इसलिए उसे विरासत में हिस्सेदार बनाया गया है, मेहर का अध्कारी बनाया गया है और रोजगार का हक दिया गया है। सूरे-निसा में कहा गया है कि पुरुषों के लिए उनकी अपनी कमाई और महिलाओं के लिए उनकी अपनी कमाई। इसके बाद जब हम आखरी पैगम्बर और उनके साथियों के जीवन को देखते हैं, तो दारुल उलूम का उक्त पफतवा पूर्णतः अनुचित पतीत होता है। दूसरे खलीपफा हजरत उमर पफारूक के दौर में अनेक महिलाओं को उच्च पदों पर नियुक्त किया गया था, इनमें से एक शिपफा बिन अब्दुल्लाह को मार्केट इंस्पेक्टर बनाया गया था। जाहिर है बतौर मार्केट इंस्पेक्टर के वे पुरुषों से भी बात करती होंगी। इसी तरह पैगम्बर के दौर में महिलाएं न केवल मस्जिदों में सलात अदा करती थीं बल्कि पुरुषों के साथ काम भी करती थीं। लखनउफ के नायब इमाम मुफ्रती खालिद रशीद का कहना है कि शरिअत में महिलाओं और पुरुषों को बराबर के अध्कार हैं। जिस तरह पुरुषों को शरिअत के दायरे में रहकर रोजगार का अध्कार है वैसे ही शरिअत की पाबंदी करते हुए महिलाओं को भी रोजगार का अध्कार है। यहां यह बताना भी आवश्यक है कि पैगम्बर की पत्नी हजरत आयशा से पुरुष र्ध्म की बारीकियां सीखते थे और हजरत आयशा ने यु( में भी हिस्सा लिया था। इसलिए सवाल यह है कि जब पैगम्बर और खलीपफाओं के दौर में महिलाओं पर रोजगार अपनाने की पाबंदियां नहीं थी तो पिफर आज क्यों लगाई जा रही हैं? क्या यह बिदअत नहीं हैं? दरअसल बेहतर यही है कि महिलाएं इस किस्म के दकियानूसी पफतवे को नजरअंदाज करें और शिक्षित होकर अपने पैरों पर खड़ी होने का पयास करें तभी वे पुरुषों के जुल्म से अपने आपको बचा सकेंगी। शाहिद ए चौध्री  

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