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मधुर होते भारत-म्यांमार के रिश्ते

👤 | Updated on:4 Dec 2011 1:27 AM GMT
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 वाईसी हलन 1886 से 1939 तक ब्रिटिश भारत का हिस्सा रहने के बावजूद, बर्मा (जनरलों द्वारा दिए गए नए नाम म्यांमार), सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण देश रहा है। लेकिन भारत और म्यांमार के संबंध 1962 से कुछ अधिक सौहाद्रपूर्ण नहीं रहे हैं जबकि दोनों की 1,600 किलोमीटर की साझी सीमा है। दक्षिण पूर्व एशिया के इस देश की सीमा उत्तर पूर्व में चीन के साथ पूर्व में लाओस, दक्षिण पूर्व में थाइलैंड, पश्चिम में बंगलादेश, उत्तर पश्चिम में भारत तथा दक्षिण पश्चिम में बंगाल की खाड़ी के साथ लगती है। अंडमान सागर इसकी दक्षिणी सीमा बनाता है। यह, दक्षिण पूर्व और पूर्व एशिया के साथ भारत का एकमात्र भू-सम्पर्क है। लेकिन 1963 के बाद से दोनों देशों के संबंधों में एक "हराव सा आ गया है। सामरिक लिहाज से देखा जाए, तो इस संवेदनशील क्षेत्र में भारत के हितों को सुरक्षित करने के लिए म्यांमार के साथ मैत्री और सद्भावपूर्ण संबंध जरूरी हैं, क्योंकि भारत, उत्तर पूर्व में उग्रवाद को नियंत्रित नहीं कर सकता और जिसके चलते म्यांमार के सक्रिय सहयोग के बिना मणिपुर, नगालैंड और अरुणाचल पदेश में शांति और समरसता कायम नहीं हो सकती। भारत, बर्मा की आजादी का एक पमुख समर्थक था और 1948 में ग्रेट ब्रिटेन से आजादी हासिल करने के बाद उसने ही बर्मा के साथ सबसे पहले राजनयिक संबंध स्थापित किए थे। कई सालों तक, सांस्कृतिक संबंधों, फलते-फूलते व्यापार, क्षेत्रीय मामलों में साझा हितों और बर्मा में बड़ी संख्या में भारतीयों की मौजूदगी के कारण भारत और बर्मा में मजबूत संबंध थे। जब बर्मा, क्षेत्रीय विद्रोहों से निपट रहा था, तब भारत ने उसकी काफी मदद की थी। लेकिन सैन्य जुंटा द्वारा लोकतांत्रिक सरकार का तख्ता पलट दिए जाने के बाद संबंधों में खटास पैदा हो गई। बाकी लगभग पूरी दुनिया की तरह भारत ने भी लोकतंत्र के दमन की निंदा की और म्यांमार जनरलों ने बर्मा के भारतीय समुदाय को देश से निकल जाने के आदेश दिए, जिससे बर्मा दुनिया में अलग-थलग पड़ने लगा। केवल चीन ने ही बर्मा के साथ निकट संबंध कायम रखे, जबकि भारत ने लोकतंत्र समर्थक आंदोलन का समर्थन किया। 1987 में जब भारतीय पधानमंत्री राजीव गांधी म्यांमार गए, तब संबंधों में एक बड़ी सफलता मिली लेकिन 1988 में जुंटा द्वारा लोकतंत्र के आंदोलन के हिंसक दमन के बाद संबंध और भी खराब हो गए। नतीजा यह हुआ कि बर्मा से बड़ी संख्या में शरणार्थी, भारत आ गए। वैसे 1993 के बाद से दोनों पधानमंत्रियोंöपीवी नरसिंह राव और अटल बिहारी वाजपेयी ने म्यांमार के साथ संबंध सुधारने के पयास किए। उद्देश्य, दक्षिण पूर्व एशिया में भारत की भागीदारी और पभाव का विष्तार करना था। इससे एक क्षेत्रीय नेता के रूप में चीन के बढ़ते पभाव को कम करके अपना पभाव और प्रतिष्ठा बढ़ाने का पयास किया गया। 1962 के युद्ध के बाद, चीन ने म्यांमार में अपने हितों को बढ़ाना शुरू कर दिया था जिसके चलते सैन्य सहयोग में व्यापक वृद्धि हुई और बंदरगाहों, नौसैनिक तथा खुफिया सुविधाओं और उद्योगों में चीन का सहयोग बढ़ा। चीन, म्यांमार के समुद्र में निकलने वाले तेल और पाकृतिक गैस ले जाने के लिए राखिने बंदरगाह से दक्षिणी चीन तक एक पाइपलाइन भी बना रहा है। इसके अलावा, वह क्या  समुद्र में दूर एक नया बंदरगाह भी बना रहा है, जो भारत द्वारा विकसित किए जा रहे सिट्टवे बंदरगाह से बहुत दूर नहीं है। म्यांमार की सैन्य जुंटा के साथ भारत के सम्बधों से दोनों देशों के संबंधों में सुधार आया है। इसका कारण यह है कि भारत ने म्यांमार के दुनिया से कटाव को कम करने में मदद की है। उसने, चीन पर म्यांमार की पुरानी निर्भरता को भी कम किया है। दोनों देश एक-दूसरे के साथ नशीले पदार्थों की तस्करी और सीमावर्ती इलाकों में सक्रिय उग्रवादी संग"नों की आवाजाही रोकने में सहयोग कर रहे हैं। भारत ने म्यांमार को बीआईएमएसटीईसी (बहुक्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग के लिए बंगाल की खाड़ी पहल। भारत ने बंगलादेश, भारत, म्यांमार, श्रीलंका, थाइलैंड, भूटान और नेपाल का एक उप-क्षेत्रीय संग"न है) और मेकेंग-गंगा सहयोग (10 नवम्बर 2000 को स्थापित, जिसमें भारत, थाइलैंड, म्यांमार, कम्बोडिया, लाओस और वियतनाम शामिल हैं और जो पर्यटन, संस्कृति, शिक्षा और परिवहन सम्पर्क के चार क्षेत्रों में सहयोग करता है, ताकि इस क्षेत्र में भावी व्यापार और निवेश में सहयोग का "ाsस आधार तैयार किया जा सके) में एक पमुख सदस्य के रूप में शामिल करने में पमुख भूमिका निभाई है। भारत, म्यांमार के अंदरुनी मामलों में हस्तक्षेप न करने की नीति भी अपना रहा है। हैरानी की बात है कि म्यांमार में 2007 के सरकार-विरोधी पदर्शनों पर म्यांमार की कार्रवाई के बारे में भारत की पतिक्रिया धीमी और हिचकिचाहट भरी रही थी, जबकि दुनियाभर में इनकी निंदा की गई थी। भारत ने म्यांमार के अंदरुनी मामलों में हस्तक्षेप करने का कोई इरादा नहीं जताया है और स्पष्ट कहा है कि म्यांमार के लोगों को ही खुद ही लोकतंत्र हासिल करना होगा। यह पहले से एकदम विपरीत है, जब भारत ने म्यांमार मे सेना-विरोधी शासन का समर्थन कर रहा था और उसने आंदोलनकारियों को भारत में सुविधाएं भी दी थी। एशिया में चीन के पभाव को संतुलित करने के लिए भारत की ``लुक ईस्ट'' नीति का असर एशिया में दिखने लगा है। पिछले दशक में अत्यंत विशिष्ट व्यक्ति स्तर पर नौ यात्राओं से भारत-म्यांमार संबंध मजबूत हुए हैं। म्यांमार में भारत के पूर्व राजदूत राजीव भटिया, हिंदू में लिखते हैं, ``नागरिकों के लिए आजादी की उपलब्धि के साथ निर्देशित लोकतंत्र की दिशा मे सुनियोजित ढंग से आगे बढ़ने, राजनीतिक बंदियों की रिहाई, सुधार एजेंडे पर अमल और सरकार तथा डॉ. आंग सान सू ची के बीच धीरे-धीरे होती सुलह से आशा की किरणें नजर आने लगी हैं।'' भारत और म्यांमार दोनों ही अपनी-अपनी पभुसत्ता, सुरक्षा और सफलता को सुरक्षित करने की जरूरत समझने लगे हैं और इन सालों में म्यांमार ने भी चीन की दादागीरी के अधीन आने के असली खतरों को पहचाना है। दोनों देशों के रुख में परिवर्तन का असर, इसी अक्तूबर में म्यांमार के राष्ट्रपति थिएन सिएन की भारत-यात्रा के रूप में सामने आया। उनके साथ आए एक बड़े पतिनिधिमंडल में शक्तिशाली सेना का पतिनिधित्व, सशस्त्र सेनाओं में तीसरे सर्वाधिक वरिष्ठ जनरल कर रहे थे। इस यात्रा का महत्व इसलिए और भी बढ़ जाता है कि कई दशकों पहले यहां आए पधानमंत्री ऊ नूं के बाद किसी नागरिक राष्ट्राध्यक्ष की यह पहली भारत यात्रा थी। यात्रा इसलिए भी महत्वपूर्ण थी कि संसदीय चुनावों के बाद अपैल में राष्ट्रपति पद संभालने के बाद, सिएन ने चीन और जकार्ता की यात्रा की थी। उनकी इस यात्रा से "ाrक पहले वियतनाम के राष्ट्रपति त्रुओंग तान सांग भारत आए थे। उस यात्रा के दौरान दोनों देशों ने जोर देकर कहा था कि चीन की पभुसत्ता के उल्लंघन की चेतावनी के बावजूद दोनों देश दक्षिण चीन सागर में संयुक्त गैस अन्वेषण परियोजनाओं को जारी रखेंगे। लेकिन, अभी भी भारत को एक लम्बा रास्ता तय करना है, तब जाकर वह म्यांमार या पूर्व एशिया में दूसरी जगहों पर चीन को चुनौती दे पाएगा। यात्रा इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि कुछ दिन पहले ही म्यांमार ने एक चीनी कम्पनी द्वारा बनाए जा रहे 3.6 अरब डालर की लागत वाले एक विवादास्पद बांध को रोकने की घोषणा की थी। दरअसल म्यांमार को समझ में आ गया था कि उसे पूरी तरह चीन की झोली में जाता हुआ नहीं दिखना चाहिए। उसने बीजिंग पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए पश्चिमी देशों से अपने संबंध सुधारने भी शुरू कर दिए हैं। राजनीतिक और सैन्य नेताओं को समझ में आने लगा है कि उन्हें भारत और पश्चिमी जगत के साथ अपने बाहरी आर्थिक और राजनीतिक संबंध मजबूत करने चाहिए। वांिशंगटन पोस्ट ने अपने सम्पादकीय `आंसरिंग बर्मा' में लिखा, ``चीन के दूसरे पड़ोसियों की तरह बर्मा के शासन भी चीन की बढ़ती आक्रामकता से परेशान हो रहे होंगे। उन्हें अमरीका और उसके मित्र देशों की संतुलनकारी भूमिका में फायदे नजर आने लगे हेंगे।'' अब उन्हें आशंका होने लगी है कि उन कमजोर बर्मी राजाओं की तरह वे भी अपनी पभुसत्ता गंवा सकते हैं, जो सामयिक राजनीतिक और तकनीकी रुझानों से तालमेल न बै"ाने के कारण विदेशी ताकतों के शिकार बन गए थे। सिएन की यात्रा दो तरह से महत्वपूर्ण थी ः सीमा सुरक्षा पबंधन और आर्थिक सहयोग। छ"s दशक में सैन्य जुंटा द्वारा सत्ता संभाले जाने के बाद से विशेष रूप से भारत-म्यांमार सीमा पर गतिविधियों के चलते संबंध नकारात्मक हो गए थे। अब दोनों सरकारें, ``उग्रवाद और आतंकवाद के खतरनाक खतरे'' से निपटने में ``कारगर सहयोग और तालमेल बढ़ाने'' पर सहमत हो गई हैं। लगता है कि सिएन को समझा दिया गया था कि वे इस मुद्दे पर संतोषजनक कामयाबी हासिल करेंगे। दरअसल, चीन के साथ म्यांमार की निकटता इसलिए बढ़ रही थी कि भारत ने म्यांमार में बुनियादी ढांचे के विकास और उसके पाकृतिक संसाधनों का फायदा उ"ाने की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया था। लेकिन, अब वह इस असंतुलन को दूर करना चाहता है। अक्तूबर मध्य में उसने म्यांमार को सिंचाई कार्यों के साथ-साथ दूसरी परियोजनाओं को विकसित करने के लिए 50 करोड़ डालर का ऋण देने की घोषणा की। भारत ने यह भी कहा है कि वह, म्यांमार के पश्चिमी राखिने राज्य में सिट्टवे बंदरगाह के विकास की योजनाओं के बारे में गम्भीर है। एस्सार ग्रुप ने बंदरगाह पर निर्माण कार्य और कालादान नदी की गाद निकालने का काम शुरू कर दिया है और 2013 तक उसकी इन कामों को पूरा करने की योजना है। सोचा यह जा रहा है कि भारत जहाज से अपना माल, अपनी पूर्वी कोलकाता बंदरगाह से सिट्टवे भेज सकेगा, जहां से नदी मार्ग से यह माल वापस भारत के अलग-थलग पड़े उत्तर पूर्वी राज्यों को या म्यांमार भेजा जा सकेगा। भारत, मणिपुर राज्य से म्यांमार के रास्ते दूर थाइलैंड तक एक सड़क मार्ग विकसित करने की भी योजना बना रहा है। दूसरा मुद्दा आर्थिक और विकास सहयोग बढ़ाने की महत्वाकांक्षी योजनाओं का है। दोनों देश, अपनी सुरक्षा के लिए जरूरी इस सहयोग को बढ़ाने पर सहमत हुए हैं। लगता है कि म्यांमार, भारत द्वारा बनाई जा रही भारत, अफगानिस्तान और बंगलादेश की अपर लीग का सदस्य बनेगा। पमुख कालादान बहु माध्यम परिवहन परियोजना के समयसीमा भी निर्धारित की गई। परियोजना का नदी वाला हिस्सा जून 2013 तक पूरा हो जाएगा और सड़क सम्पर्क के काम में तेजी लाई जाएगी ताकि इस परियोजना को 2014 तक चालू किया जा सके और फिर नई परियोजना के चयन में कृषि, आईटी, औद्योगिक पशिक्षण और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में क्षमता-निर्माण और कौशल विकास पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। संयुक्त वक्तव्य में रेल और माइक्रोवेव सम्पर्कें, सड़क, विमान और नौका के जरिए ``संयोजकता'' बढ़ाने की बात की गई है। इसमें अधिकतर नया कुछ नहीं है। अधिकारियों को अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए "ाsस पगति दिखानी होगी। 2015 तक आपसी व्यापार को 3 अरब डालर का करने पर सहमति हुई है। सबसे अधिक महत्वपूर्ण फैसला, नई परियोजनाओं के लिए 50 करोड़ डालर की उदार ऋण व्यवस्था का पेशकश के बारे में है। अंत में 1960 के दशक में ंसंयुक्त राष्ट्र के महासचिव, ऊ थां के पौत्र, थां म्यिंत-यू की नई पुस्तक का एक उद्धाहरण काफी दिलचस्प होगा। इस पुस्तक, `व्हेयर चाइना मीट्स इंडिया' में, थां का मूल कथन है कि विश्व आर्थिक, राजनीतिक और यहां तक कि सैन्य घटनाओं में भी म्यांमार की अधिक महत्वूपर्ण भूमिका होनी चाहिए और होगी भी। वे भारत और चीन के बीच म्यांमा की भौगोलिकता, संस्कृति और ऐतिहासिकता की स्थिति की केंद्रीयता पर जोर देते हुए कहते हैं कि दोनों देशों का ही सालों से बर्मा के कबीलों और शासकें के साथ सम्पर्क रहा है। यह पभाव, चीन से अधिक मात्रा में आया है, क्योंकि म्यांमार के साथ इसकी ऊबड़-खाबड़ भू-सीमा पर इसका व्यापार होता रहा है, क्योंकि उसके कच्चे माल और सामान की मांग है, जो म्यांमार की बंदरगाहों पर समुद्र के रास्ते आ सकता है। चीन का भौगोलिक आकार-पकार लगभग अमरीका जैसा है जिसका भीतरी पदेश पर्वतीय और शुष्क है लेकिन उसका कोई दूसरा तट नहीं है, जो उसके दूरदराज के भीतरी पदेशों के लिए बाहर का रास्ता पदान कर सके। चीनी रणनीतिकार, म्यांमार को बंगाल की खाड़ी और उससे आगे के समुद्रांs में एक पुल के रूप में देखते हैं। अगर ऐसा होता है और चीन, म्यांमार पर कब्जा जमा लेता है, तो वह अमरीका से भी अधिक ताकतवर बन सकता है। अब, म्यांमार को यह बात समझ में आने लगी है और वह जान गया है कि भारत की मदद से ही वह महत्वाकांक्षी चीन पर काबू पा सकता है। अगर वह ऐसा नहीं करता तो उसके लिए और भारत के लिए विनाश का दिन दूर नहीं है।             (अडनी)  

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