अपने बिस्तर की अहमियत को जरूर जानिए
क्या आप जानते हैं कि हम अपने जीवन का करीब एक तिहाई हिस्सा सो कर गुजारते हैं। इसीलिए बहुत जरूरी है कि अपने बिस्तर को उतनी ही अहमियत दी जाए जितनी खानपान और पहनावे को दी जाती है। लेकिन सही गद्दे की पहचान सिर्प उसपर उछलकर नहीं होती। इसके लिए आपको तकनीकी मदद की जरूरत है। जर्मनी की कील यूनिवर्सिटी में गद्दों पर शोध होता है। लगभग हर हफ्ते यहां नए गद्दों से लदा ट्रक आता है जो दुनिया भर की फैक्ट्रियों में तैयार किए गए हैं। यहां के एक रिसर्चर नोर्बर्ट फोग्ट बताते हैं किहम यहां इनका तुलनात्मक परीक्षण करते हैं। दबाव का असर ः प्रयोगशाला में लगी मशीन इन गद्दों की टेस्टिंग करती है। मशीन में एक बड़ा सा लकड़ी का लट्ठा लगा है जो स्प्रिंग वाली मैट्रेस पर दाहिने बाएं फेरा जाता है। यह ऊपर उठाया जाता है और फिर गद्दे पर रखा जाता है। गद्दे की सतह पर इसके निशान पड़ते हैं। ठीक वहीं जहां किसी इंसान के सोने पर उसका भार पड़ेगा। रिसर्चर देखते हैं कि भार पड़ने पर मैट्रेस अपना आकार किस हद तक बदलता है। रिसर्चर एफाइम ग्रोस के मुताबिक रोलर एक तरफ से दूसरी तरफ 30 हजार बार जाता है जिसके दौरान वह गद्दे को 1400 न्यूटन मीटर के वजन से दबाता है। जर्मनी में गद्दे के मानकों पर खरा उतरने के लिए इस टेस्ट को अंजाम दिया जाता है। इस टेस्ट से देखा जाता है कि वजन पड़ने से गद्दे की ऊंचाई पर कितना असर पड़ता है। लेकिन एक अच्छे गद्दे में क्या खूबियां होनी चाहिए? इसके लिए वैज्ञानिक इंसान की रीढ़ की हड्डी के आकार को समझते हैं। ग्रोस ने बताया कि हम पूरी रीढ़ की हड्डी की लंबाई नापते हैं' गर्दन के थोड़ा ऊपर के हिस्से से लेकर सबसे नीचे पुंछ तक। यह उपकरण थोड़ा डरावना लगता है। एक लंबे से दंड पर उभरी हुई कांटेनुमा आकृतियां होती हैं। रिसर्चर इसे रीढ़ की हड्डी से सटाकर उसी के आकार से मैच करते हुए लगा देते हैं। फोग्ट ने बताया कि इसके बाद हम हड्डी की वक्रता को मापते हैं और फिर रिसर्चर इसकी तुलना सीधे खड़े होने की अवस्था में रीढ़ की हड्डी से करते हैं। सेंसर की मदद से इस टेस्ट के लिए गद्दे को एक धातु के सांचे पर रखा जाता है। नीचे से कई सेंसर गद्दे के आकार को नापते हैं। ये सभी सेंसर कंप्यूटर से जुड़े होते हैं। फोग्ट ने बताया कि सेंसर को गद्दे की निचली सतह की तरफ धकेलते हैं। जब कोई इस पर लेटता है और ऊपर से दबाव लगता है तो सतह का आकार बदलता है और यह कितना दबता है, यही हम नापते हैं। अब क्रीन पर दो वक्र रेखाएं दिखाई देती हैं। लाल रेखा यानि खड़े होने की हालत में रीढ़ की हड्डी और नीली रेखा यानि लेटे हुए रीढ़ की हड्डी की हालत। रिसर्चर दोनों का तुलनात्मक अध्ययन कर तय करते हैं कि गद्दा कहां पर सख्त और कहां पर नर्म होना चाहिए। -सुरेश शर्मा, लक्ष्मीनगर, दिल्ली। बुरी किस्मत से हो जाते हैं कई कैंसर अधिकांश कैंसर धूम्रपान जैसी हानिकारक चीजों से नहीं बल्कि बुरी किस्मत से हो सकता है। अमेरिकी टीम के शोध में ये बात सामने आई है। ये बताने की कोशिश की गई है कि आखिर क्यों एक ऊतक (टिशू) किसी दूसरे टिशू के मुकाबले करोड़ों गुना अधिक संवेदनशील होता है। साइंस पत्रिका में प्रकाशित शोध के नतीजे बताते हैं दो-तिहाई प्रकार के कैंसर व्यक्ति की जीवनशैली की तुलना में केवल संयोगवश से हो जाते हैं। जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडीसिन और ब्लूमबर्ग स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के शोधकर्ताओं ने बताया कि ऐसा क्यों होता है। स्टेम कोशिकाओं के लगातार विभाजित होने से आपके शरीर की पुरानी और बेजान कोशिकाएं नई कोशिकाओं में तब्दील होती रहती हैं और हर विभाजन में हानिकारक म्यूटेशन का खतरा होता है। और यही खतरा स्टेम कोशिकाओं को कैंसर के एक कदम और करीब ला देता है। अब इस बदलाव की गति समूचे शरीर में अलग अलग होती है। शोधकर्ताओं ने एक तुलनात्मक अध्ययन किया कि कैसे पूरे जीवन स्टेम कोशिकाएं 31 टिशू में विभाजित होती हैं और कैसे उन टिशूज से कैंसर के पैदा होने का खतरा होता है। उनके अध्ययन का सार ये रहा कि दो-तिहाई तरीके के कैंसर स्टेम कोशिकाओं के विभाजित होने और म्यूटेशन से प्रभावित होने से होते हैं, जिसे एक बुरा संयोग ही माना जा सकता है। बुरे संयोग से होने वाले कैंसर में मस्तिष्क कैंसर, छोटी आंत का कैंसर और पैनक्रियाज के कैंसर शामिल हैं। शोधकर्ता और आंकोलॉजी के सहायक प्रोफेसर क्रिस्टियन टोमासेट्टी मानते हैं कि ऐसे कैंसर में बचाव का तरीका किसी काम नहीं आता। बचे हुए एक तिहाई तरह के कैंसर खराब जीवन शैली के कारण होते हैं जिसमें धूम्रपान से होने वाला फेफड़े का कैंसर भी शामिल है। अकसर देखा गया है कि नई पीढ़ी सिगरेट, बीड़ी तथा शराब आदि कई प्रकार के नशों के विकार में फंसते जा रहे हैं। जब तक इनको समझाया नहीं जाएगा तब तक तरह-तरह की भयंकर बीमारियां फैलती रहेंगी। आजकल कैंसर इतनी भयंकर रूप धारण कर चुका है कि इससे चाहते हुए भी बचना काफी मुश्किल साबित हो रहा है। लेकिन युवा पीढ़ी तो इससे अनभिज्ञ हैं। उनको लाख समझाने के बावजूद भी मानने को तैयार ही नहीं होते। -मुकेश जैन, गांधी नगर, दिल्ली।