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राष्ट्रकवि को `जाति कवि' बनाने के फायदे!

👤 | Updated on:26 May 2015 12:14 AM GMT
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   हिन्दी के जाने माने कवि रामधारी सिंह दिनकर की किताब `संस्कृति के चार अध्याय' और `परशुराम की प्रतीक्षा' की गोल्डन जुबली समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जिन दो पंक्तियों को उद्धृत करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार के लोगों से जातपात से ऊपर उठने का आह्वान किया वो पचास साल पहले कांग्रेस को सलाह के तौर पर लिखी गई थीं। उनसे भी चालीस साल पहले गांधीजी ने 1934 में उत्तर बिहार के भूकंप को जातिवाद और छुआछूत खत्म न किए जाने का प्रकोप कहा था और इनसे ऊपर उठने की अपील की थी। जाति और जातिवाद इतनी हल्की बीमारी होती तो इन महापुरुषों की निस्वार्थ सलाह और झिड़की पर गायब हो गई होती। इस बार की सलाह तो चुनावी राजनीति और दिनकर की बिरादरी को आकर्षित करने की बहुत साफ रणनीति के चलते आई है। इसलिए इससे पहले जैसे नतीजों या बिहारी समाज द्वारा अपने व्यवहार पर गौर करने जैसे नतीजे की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। मोदी ने रामधारी सिंह दिनकर के परिजनों से भी मुलाकात की। भूमिहार बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश की एक अगड़ी और संपन्न जाति है जो संख्या में ज्यादा न होकर भी वोट की राजनीति के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण जाति है। अपनी संख्या से ज्यादा प्रभाव रखने और एकजुट होकर वोट डालने के चलते भी इस जाति का राजनीतिक महत्व ज्यादा है। इसलिए प्रधानमंत्री के आह्वान पर जाति टूटेगी या भाजपा एक-दो जातियों पर निर्भरता से ऊपर उठेगी। इसकी उम्मीद कम है। हां कुछ लोगों के लिए यह जरूर दिलचस्पी का विषय हो सकता है कि कोई पढ़ी-लिखी और खुद को अगड़ा मानने वाली बिरादरी ऐसे आयोजनों और संकेतों के आधार पर अब भी वोट करेगी क्या? राष्ट्रकवि या जाति का कवि? यह अवसर दिनकर की दो किताबों के पचास साल बाद नए संस्करण के विमोचन का था। उनके नाम और सम्मान के लिए बड़े स्तर पर और आयोजन करने का निश्चय भी यहां व्यक्त किया गया। आयोजन के साथ उन्हें `भारत रत्न' देने जैसी मांग को जोड़कर उनका यश बढ़ाने का दावा भी किया गया पर असल में यह राष्ट्रकवि को एक बिरादरी का कवि बनाने जैसा हो सकता है। दिनकर हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय और पढ़े जाने वाले कवि रहे हैं। गंभीर विषय अच्छी कविता और लोकप्रियता जैसे तीनों क्षेत्रों को सम्भालना ही उनकी महानता थी। उनके और बच्चन के बाद हिन्दी साहित्य से यह चीज गायब हो गई है। वे भूमिहार समाज और बिहारी समाज की बुराइयों को लेकर भी चौकस रहे थे और जिस पत्र की पंक्तियां प्रधानमंत्री पढ़ रहे थे वह भी उनकी समझ का ही प्रमाण है। असल में दिनकर की भूमिहार बिरादरी को अपनी ओर मोड़ने के लिए प्रधानमंत्री और भाजपा को यह सब करने की जरूरत नहीं थी। लालू-राबड़ी राज और सामाजिक न्याय की राजनीति का खुला विरोध इसी बिरादरी ने किया था और इस चलते राजनीतिक कीमत भी चुकाई थी। सारा प्रयास करके भी लालू, वैद्यनाथ पांडेय और अखिलेश सिंह जैसे छुटभैया भूमिहार नेताओं को ही अपनी तरफ ला पाए थे। -सुभाष बुड़ावन वाला, 18, शांतिनाथ कार्नर, खाचरौद।  

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