मम्मी की पूजा भले न करें मगर उसे सहयोग जरूर करें
नम्रता नदीम
मदर्स डे जब से भारतीय शहरी परिवारों में भी सेलिब्रेट होने लगा है तब से इस दिन के आते ही सोशल मीडिया से लेकर ट्रेडिशनल मीडिया तक में हर जगह मां का गुणगान शुरू हो जाता है। क्या आम क्या खास। ज्यादातर लोग इस दिन अपनी मांओं को बड़े पूजा भाव से याद करते हैं। सेलेब्रिटीज तो खास तौरपर अपनी मांओं को धन्यवाद के सुर में, कृतार्थ होने के अंदाज में याद करते हैं। लेकिन सब नहीं तो यही ज्यादातर लोग बाकी दिनों में मां को मशीन की तरह अपने लिए खटने देते हैं। तब उन्हें उनका जरा भी ख्याल नहीं आता। आदर का यह दैविक अंदाज बहुत खराब है। इसमें एक किस्म से तथाकथित हिन्दुस्तानी होशियारी छिपी है कि जिसकी अनदेखी करनी हो उसकी पूजा शुरू कर दो।
अगर वास्तव में हम अपनी मां को बहुत प्यार करते हैं (...और जाहिर है करते हैं) तो हम इस बात का संकल्प लें कि भले हम अपनी मां की पूजा न करें लेकिन उसे मशीन की तरह अपने लिए अकेले नहीं खटने देंगे। तमाम घरेलू कामकाज में उसकी मदद करेंगे। मां के कामों में हाथ बंटाने का संकल्प किसी भी मदर्स डे के लिए मां को हमारा बेस्ट गिफ्ट होगा। सवाल है ये सब कैसे होगा या हो सकता है आइये देखते हैं।
बच्चों की इस नवाबियत के हम भी हैं जिम्मेदार
तमाम बच्चे कोई काम करना तो दूर खुद उ"ाकर एक गिलास पानी तक नहीं पीते। उनको यह काम बहुत मुश्किल काम लगता है। आखिर क्यों ? क्योंकि हम उन्हें कभी ऐसा सिखाते नहीं। लड़कों को तो खास तौरपर। लड़के अपनी तरफ से घर का कोई कामकाज करने भी लगें और धोखे से उसमें कोई ऐसा काम शामिल हो जो अक्सर महिलायें करती हैं तो ज्यादातर घरों में छूटते ही कहा जाएगा, 'क्या जनानियों वाले काम कर रहा है। दरअसल हमारे यहां लड़कों और लड़कियों की परवरिश ही ऐसी की जाती है कि वह एक खास तरह की कंडीशनिंग में ढल जाते हैं। जबकि पैरेंटिंग की समझ कहती है कि घर के काम को बच्चों से करवाकर हम उनमें जिम्मेदारी का अहसास विकसित कर सकते हैं।
वास्तविकता को साझा करें
बच्चों को घर की परिस्थितियों से अनभिज्ञ कौन रखता है ? खुद हम। यह सोचकर कि उनके मासूम कंधों पर जिम्मेदारियों का बोझ अभी से क्यों डालें ? लेकिन यह भी सच है कि इन्ही परिस्थितियों से जब हम तनावग्रस्त होते हैं तो अपना गुस्सा सबसे ज्यादा बच्चों पर ही उतारते हैं। तब उन्हें समझ ही नहीं आता कि माजरा क्या है ? बहरहाल कहने की बात यह है कि घर चलाने के बारे में उनसे तमाम वास्तविकताओं को साझा करके हम उन्हें ज्यादा जिम्मेदार और ज्यादा संवेदनशील बना सकते हैं। यही नहीं समय-समय पर हमें उनके साथ घर की तमाम परिस्थितियों पर विचार-विमर्श भी करना चाहिए।
जाके पैर पड़ेगी बिंवाई वही समझेगा पीर पराई
याद रखिये यदि आप चाहती हैं कि बच्चे आपके श्रम का महत्व समझें तो उन्हें भी श्रम करने दें। वे खुद श्रम करने के बाद ही किसी के श्रम का महत्व समझ पायेंगे। हमें इस बात को हमेशा याद रखना चाहिए कि बच्चे अपने आसपास का माहौल देखकर सीखते हैं। इसलिए जरुरी है कि हम उन्हें ये माहौल खुद फ्रदान करें। हां, एक बात और सिर्फ बच्चे से किसी घरेलू काम में हिस्सा लेने की उम्मीद करना नाइंसाफी होगी। बेहतर होगा कि आप भी बच्चे के साथ उस काम में शामिल हों। लेकिन इस बात की समझ भी जरुरी है कि बच्चों पर घर के कामों में शामिल होने के लिए बहुत दबाव कभी न डालें। अगर वे पूछें तो उन्हें यह भी बताएं आखिर क्यों उनसे यह सब करवाया जा रहा है। यह सब इसलिए भी जरुरी है क्योंकि रोजगार के हर क्षेत्र में महिलाएं पुरुषों का वर्चस्व तो तोड़ रही हैं। लेकिन घर का मोर्चा ज्यादातर महिलाओं को आज भी अकेले ही संभालना पड़ता है। परिवार के लोगों से जो सहयोग उन्हें मिलना चाहिए, वह नहीं मिल रहा है।
इसके लिए जरुरी है कि मानसिकता बदले
घर का काम सिर्फ महिलाओं का नहीं है-बच्चों को यह सीख बचपन से दें। क्योंकि आज के दौर में महिलाएं शिक्षा, पत्रकारिता, कानून, चिकित्सा या इंजीनियरिंग के क्षेत्र में तो उल्लेखनीय सेवाएं दे रही हैं। पुलिस और सेना में भी पुरुष सैनिकों से कंधा मिलाकर चल रही हैं। लेकिन ज्यादातर महिलाओं को पेशेवर जिम्मेदारियों के साथ ही घर की जिम्मेदारी भी वैसे ही उ"ानी पड़ती है, जैसे उनकी मांओं और दादियों को उ"ानी पड़ती थी। सवाल है फिर क्या बदला ? ऐसा बदलाव किस काम का जिसमें कोई एक पिसकर रह जाए। वास्तव में इससे उनके स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ता है। तब लगता है कि महिलाएं बिना मतलब ही दो नावों में सवार हैं। इस उलझन से बचने के लिए अपने बच्चों की सोच बदलें जिससे वो आपकी पूजा करने के भाव से निकलकर सहयोग करने की भावना में आयें। बदलते वक्त ने महिलाओं को आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक रूप से सशक्त किया है लेकिन जब तक यह मानसिकता बनी रहेगी सब बेकार है।
बच्चों के लिए नौकरी न छोंड़े
कारोबारी संग"न एसोचौम द्वारा किए गए एक सर्वे के मुताबिक मां बनने के बाद 40 फ्रतिशत महिलाएं अपने बच्चों को पालने के लिए नौकरी छोड़ देती हैं। यह फैसला तात्कालिक रूप से भले न असर डाले लेकिन दीर्घकालिक स्तर पर यह फैसला महिलाओं द्वारा अपने हाथ से अपने पैर पर मारी गयी कुल्हाड़ी साबित होता है। क्योंकि इसकी वजह से एक तो उनमें आगे चलकर पर्सनैल्टी टेंशन पैदा होता है, साथ ही वैयक्तिक आर्थिक तंगी का भी सामना करना पड़ता है। बाद में ऐसी महिलाओं के लिए घरेलू मोर्चे पर परिवार को खुश रखने की जिम्मेदारी बन जाती है। कहा जाता है तुम्हे और क्या करना है। इससे सेहत पर असर पड़ता है। स्वास्थ विशेषज्ञों के अनुसार नौकरी बीच में छोड़ देने वाली महिलायें इस तनाव में कई किस्म की बीमारियों का शिकार हो जाती हैं।
एसोचौम के ही एक और सर्वे के अनुसार 78 फीसदी ऐसी महिलाओं को कोई न कोई सेहत संबंधी समस्या पैदा हो जाती है।मसलन 42 फीसदी को पी"दर्द, मोटापा, अवसाद, मधुमेह, उच्च रक्तचाप की समस्या घेर लेती है।ऐसी 60 फ्रतिशत महिलाओं को 35 से 45 साल की उम्र के बीच तक दिल की बीमारी का खतरा 10 फीसदी ज्यादा बढ़ जाता है। वास्तव में तनाव से भर जाने वाली ऐसी 80 प्रतिशत महिलायें किसी किस्म का व्यायाम नहीं करतीं।
लब्बोलुआब यह कि बच्चे आपको देवी मानकर पूजा न करें बल्कि इंसान समझकर मदद करें जिससे आपका जीवन खुशहाल रहे इसके लिए किसी और को नहीं बल्कि खुद आपको ही फ्रयास करना होगा।