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संबंधों की मजबूत नींव

👤 Veer Arjun Desk | Updated on:9 Sep 2018 6:02 PM GMT

संबंधों की मजबूत नींव

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भारत और अमेरिका के बीच पहली बार टू प्लस टू डायलाग के तहत वार्ता गत बृहस्पतिवार को सम्पन्न हुई। इसके तहत दोनों देशों के विदेश मंत्री एवं रक्षामंत्री के बीच द्विपक्षीय संबंधों पर बातचीत हुई। दोनों देशों ने अगले चार दशक के लिए रणनीतिक नींव रखते हुए स्पष्ट कर दिया कि समानता के स्तर पर सम्पन्न हुई यह वार्ता आने वाले समय में वैश्विक राजनीतिक व आर्थिक परिदृश्य को बहुत गहरे तरीके से प्रभावित करने वाली साबित होगी। तीन चरणों में हुई टू प्लस टू वार्ता में एक दूसरे को चुभने वाले मुद्दों को खुलकर उठाया गया। दोनों ने एक दूसरे का संकोच नहीं किया अपने-अपने मुद्दे उठाने में। किन्तु दोनों ने इस बात को स्वीकार भी किया कि भावी वैश्विक मंच पर इन दोनों की साझी भागीदारी में ही दोनों का हित सुरक्षित है। दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक रक्षा सहयोग संधि कॉमकासा पर हस्ताक्षर हुआ जो यह सुनिश्चित करेगा कि भविष्य में भारत की हर तरह की रक्षा जरूरत अमेरिकी मदद से पूरी की जाए।

सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि यह संधि कॉमकासा (कम्युनिकेशन, कंपेटिबिलिटी एंड सिक्योरिटी एग्रीमेंट) भारत व अमेरिका के बीच सैन्य सहयोग को तेज करने के उद्देश्य से किया गया है। इस संधि ने भारत को अमेरिका के एशिया में सबसे मजबूत रक्षा सहयोगी के तौर पर स्थापित कर दिया है। इससे भारत को अमेरिका से सारे संवेदनशील रक्षा उपकरण व तकनीक हासिल होगी। इसलिए यह संधि दोनों देशों के बीच संबंधों के लिए मील का पत्थर साबित होगी। जिस तरह भारत को चारों तरफ से चीन घेरने का प्रयास कर रहा है और पाकिस्तान परमाणु सम्पन्न दुश्मन भारत को हमेशा निशाना बनाए हुए है उसे देखते हुए भारत के लिए जरूरी हो गया था कि वह अमेरिका के साथ रक्षा सहयोग के लिए सार्थक वार्ता करे। अमेरिका के लिए भी आवश्यक हो गया था कि वह चीन के पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव और हिन्द महासागर में बढ़ते सामरिक प्रसार को रोकने के लिए भारत जैसे मजबूत सहयोगी को और मजबूत करे। उसे एशिया में एक मजबूत सहयोगी की जरूरत है जो चीन के मुकाबले अमेरिका के साथ खड़ा हो सके।

आज स्थिति यह है कि कोई भी एक देश भारत के सुरक्षा संबंधी हितों को पूरा नहीं कर सकता। यही हालत अमेरिका के लिए भी है। भारत और अमेरिका इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि चीन जिस तेजी से भारतीय एवं अमेरिकी हितों को प्रभावित कर रहा है उससे दोनों देशों के बीच रक्षा सहयोगी की भूमिका में आना आवश्यक हो गया था।

इसके अलावा पाकिस्तान आतंक की फैक्ट्री बन चुका है और उसके आतंकी भारत की नाक में दम कर रहे हैं। पाकिस्तान के खिलाफ अमेरिका ही प्रभावी कदम उठा सकता है इसलिए पाकिस्तान के सक्रिय आतंकी संगठनों के खिलाफ अमेरिका का सहयोग एवं कूटनीतिक समर्थन भी आवश्यक है। इस संधि से एक बात तो स्पष्ट हो गई है कि भारत के पक्ष में खुलकर अमेरिका ने पाकिस्तानी आतंकी संगठनों की निन्दा की है और शांति के लिए खतरा बताया है। अमेरिका पहले भी भारत में सक्रिय पाक आतंकी संगठनों की निन्दा कर चुका है किन्तु उसकी चिन्ता का केंद्र अफगानिस्तान ही ज्यादा हुआ करता था किन्तु इस वार्ता के दौरान अमेरिकी रक्षामंत्री और विदेश मंत्री ने खुलकर पाक आतंकियों के खिलाफ बोला।

अपने परंपरागत जांचे-परखे मित्र रूस के साथ अच्छे संबंधों को जारी रखते हुए भारत ने विकसित देशों से सुरक्षा संबंध स्थापित करने की जो रणनीति बनाई है उसी का परिणाम है कि अब अमेरिका के सहयोगी देश तेजी से भारत के साथ सहयोग करने के लिए इच्छुक दिखते हैं। अमेरिका ने इस वार्ता के माध्यम से भारत को अपने सहयोगी का दर्जा दिया है। `क्वाड' (चतुष्कोणीय गठबंधन का संक्षिप्त रूप) के सदस्यों के साथ अमेरिका ने टू प्लस टू वार्ता की अनोखी पहल शुरू की है, जिसके दो अन्य सदस्य देश आस्ट्रेलिया और जापान के साथ यह होता रहा है। किन्तु यह दोनों उसके सहयोगी देश हैं। इसलिए यदि अब हमें यह दर्जा हासिल हुआ है तो यह सराहनीय है।

जैसा कि वार्ता के पहले ही उम्मीद थी कि अमेरिका भारत से इस बात पर एतराज अवश्य जताएगा कि उन्होंने ईरान से तेल लेना जारी रखा है और रूस से रक्षा उपकरण। हुआ भी ऐसा ही। लेकिन भारत ने दो टूक शब्दों में कहा कि उसकी रक्षा जरूरतें काफी बड़ी हैं इसीलिए वह ईरान से तेल व रूस से एस-400 सिस्टम मिसाइल खरीदने जा रहा है। भारत न तो ईरान से एकाएक तेल खरीदना बंद कर सकता है और न ही रूस से मिसाइल सिस्टम खरीदने की प्रक्रिया। अमेरिका ने कहा कि वह ईरान के ऊर्जा और रूस के हथियारों का विकल्प बनने को तैयार है, लेकिन इसमें कई वर्ष लगेंगे और यह काम दोनों पक्षों को मिलकर धीरे-धीरे करना होगा। भारत की तरफ से प्रतिबंधों से छूट की मांग की गई तो अमेरिकी विदेश मंत्री ने जवाब दिया कि अमेरिकी प्रशासन का मुख्य केंद्र कैपिटल हिल में जितने समर्थक भारत के हैं, उतने किसी भी देश के नहीं हैं। इसका मतलब भारतीय पक्षकार यह अनुमान लगा रहे हैं कि अमेरिका कड़ा रुख नहीं अपनाएगा। रूस से हथियार खरीदने पर भारत के खिलाफ कड़ा रुख न अपनाने संबंधी एक प्रस्ताव पर अमेरिकी प्रतिनिधि सभा पहले ही सहमति दे चुकी है जबकि भारत द्वारा चाबहार बंदरगाह को अपने कब्जे में लेने के फैसले व प्रक्रिया का भी अमेरिका समर्थन करता रहा है। अमेरिका मानता है कि चाबहार बंदरगाह के माध्यम से अफगानिस्तान सहित मध्य एशिया के देशों के लिए व्यापार सुविधाजनक होगा। भारत चाबहार से अफगानिस्तान तक रेल मार्ग का निर्माण भी करा रहा है। इसलिए अमेरिका ईरान और रूस के साथ भारत के तेल और रक्षा सौदों को लेकर ज्यादा दबाव डालने वाला नहीं है।

कॉमकासा संधि का विश्लेषण करते हुए विदेश मंत्रालय के पूर्व सचिव ने लिखा है कि `इसके तहत भारत को अपनी सेना के लिए अमेरिका से कुछ आधुनिक संचार प्रणाली मिलेगी। इसके अलावा अमेरिका से जो भी रक्षा उपकरण भारत आएंगे, सिर्प वही अमेरिकी प्लेटफार्म पर इस्तेमाल किए जाएंगे। भारत में मौजूद अन्य रक्षा उपकरणों पर ऐसी कोई बंदिश नहीं होगी। असल में अमेरिका इस समझौते के तहत सभी रक्षा उपकरणों को अपने प्लेटफार्म पर लाने का आग्रह करता रहा है। अगर ऐसा होता तो हमें अपना पूरा रक्षा तंत्र अमेरिका के साथ साझा करना पड़ता। चूंकि हमने कई अन्य देशों से भी रक्षा समझौते किए हैं और उनसे सैन्य उपकरण खरीदे हैं, इसीलिए अमेरिकी बंदिश को मानने का अर्थ उन तमाम देशों की रक्षा तकनीकी की गोपनीयता को भंग करना होता। यह हमारे हित में बिल्कुल नहीं था।' इसीलिए इस संधि में भारतीय चिन्ताओं को शामिल करके इसे `इंडिया स्पेसिफिक' बनाया गया है। इसमें भारतीय सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए अमेरिका के साथ सुरक्षा सहयोग पर बल दिया गया है। उम्मीद की जाती है कि विश्वास एवं समानता की ईंटों पर दोनों देशों ने मजबूत संबंधों की नींव रखी है।

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