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शहरी नक्सलियों का सच

👤 Veer Arjun Desk 4 | Updated on:29 Sep 2018 6:41 PM GMT

शहरी नक्सलियों का सच

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भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में गिरफ्तार पांचों शहरी नक्सलियों सुधा भारद्वाज, वी. गोंजाल्विस, वरवर राव, गौतम नौलखा और अरुण फरेरा को सुप्रीम कोर्ट ने झटका देते हुए स्टेट अथारिटी का अहसास कराया। सुप्रीम कोर्ट ने शहरी नक्सलियों की कोई बात नहीं मानी। उन्होंने 28 अगस्त को हुई अपनी गिरफ्तारी के बाद 29 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट में महाराष्ट्र पुलिस पर आरोप लगाते हुए मांग की थी कि उनकी गिरफ्तारी पर रोक लगाई जाए क्योंकि उनकी गिरफ्तारी राजनीतिक विचारधारा से असहमति रखने के कारण हुई है। नक्सलियों ने यह मांग भी की थी कि उनके मामलों की जांच महाराष्ट्र पुलिस न करे बल्कि सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में विशेष जांच दल (एसआईटी) करे। सुप्रीम कोर्ट की पीठ में तीन जज सम्मिलित थे। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता में गठित पीठ में एमए खानविलकर और डीवाई चन्द्रचूड़ भी शामिल थे। जस्टिस चन्द्रचूड़ ने नक्सलियों की गिरफ्तारी के तरीके पर असहमति जताई और अपने फैसले में कहा कि जांच एसटीएफ से कराई जानी चाहिए। किन्तु जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस खानविलकर ने एकमत से फैसला सुनाते हुए कहा कि जांच महाराष्ट्र पुलिस ही करेगी, उनकी नजरबंदी चार सप्ताह तक के लिए बढ़ा दी गई। किन्तु तीनों जजों में से किसी ने भी यह नहीं कहा कि शहरी नक्सलियों की गिरफ्तारी का कारण राजनीतिक असहमति है। उच्चतम न्यायालय ने दो टूक शब्दों में कहा कि गिरफ्तारी के कारणों की जांच संबंधित अदालत ही करेगी।

उल्लेखनीय है कि पांचों नक्सलियों को अलग-अलग शहरों से महाराष्ट्र पुलिस ने गिरफ्तार किया तो वामपंथी इतिहासकार रोमिला थापर ने सुप्रीम कोर्ट में यह दलील दी कि सभी पांचों नक्सलियों को पुलिस ने राजनीतिक असहमति के कारण गिरफ्तार किया है। उस वक्त जब महाराष्ट्र पुलिस ने इस दलील का विरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट से अपील की थी कि इन नक्सलियों के खिलाफ उनके पास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मारने के लिए षड्यंत्र संबंधी ठोस सबूत हैं। महाराष्ट्र पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट से पूछा था कि इनकी गिरफ्तारी पर रोक लगाना सही नहीं है क्योंकि मामले की जांच संबंधित अदालत में होनी बाकी है। उस वक्त मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने महाराष्ट्र पुलिस को जवाब दिया था कि उन्होंने इस मामले को सुनना इसलिए स्वीकार किया क्योंकि वे नागरिकों के `लिबर्टी' यानि जनमुक्ति का सम्मान करते हैं। लेकिन गिरफ्तारी के ठीक एक महीने बाद सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार किया कि शहरी नक्सलियों की गिरफ्तारी राजनीतिक असहमति के कारण नहीं बल्कि उनके प्रतिबंधित संगठन से संबंधों एवं उनकी गतिविधियों के कारण हुई है।

सबसे बड़ा सवाल यह है कि 28 अगस्त को नक्सलियों की गिरफ्तारी के बाद जिन राजनेताओं ने सरकार को असहिष्णु बताते हुए यह साबित करने की कोशिश की थी कि गिरफ्तारी राजनीतिक असहमति के कारण हुई थी क्या वे सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से कोई सबक लेंगे? क्या उन्हें सद्बुद्धि आएगी कि बिना जांच और तथ्यों के सामने आए आरोप लगाने की प्रवृत्ति उनकी छवि के लिए ही नहीं बल्कि समूची लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए घातक है।

आजकल एक नई प्रथा चल चुकी है कि कोई भी मामला जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से जुड़ा हो वह निश्चित रूप से विरोध की विषयवस्तु बन जाती है और विरोध के आधार को जांचे-परखे बिना ही आरोप की शैली भी अमर्यादित हो जाती है। इससे राजनेताओं की विश्वसनीयता पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।

दुर्भाग्य से आजकल एक और प्रथा चल पड़ी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विरोध करते-करते लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का विरोध करने लग जाते हैं और हद तो तब हो जाती है जब संविधान एवं संवैधानिक संस्थानों के विरोधी तत्वों का भी सम्मान करने लग जाते हैं।

राजनीतिक असहमति लोकतांत्रिक भावनाओं की प्राणवायु है, इस बात से किसी को संदेह नहीं होना चाहिए और लोकतंत्र में जो लोग असहमति का सम्मान नहीं करते वे किसी भी तरह लोकतंत्र के प्रति भी निष्ठावान नहीं हो सकते किन्तु राजनीतिक असहमति के आधार पर विरोधियों की आवाज बंद करने वाले तथा साध्य के लिए हिंसा का सहारा लेने वालों की विचारधारा जो मुक्ति के लिए बंदूक की नली से निकलने वाली गोली की वैधता को मान्यता देते हैं, का समर्थन करना किसी भी दृष्टि से लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है।

वामपंथी पार्टियों का तो नक्सलियों से रिश्ता समझ में आता है। लेकिन यदि कांग्रेस पार्टी के नेता नक्सलियों की भाषा में उनकी आजादी की भाषा बोलने लगते हैं तब हैरानी होती है। कांग्रेस और कम्युनिस्ट विचारधारा में मौलिक अंतर ही इस बात का है कि एक गांधीवादी है और दूसरी मार्क्सवादी कांग्रेस गांधीवाद के सिद्धांत को मानती है जो साध्य की प्राप्ति के लिए साधन के औचित्य को मानता है जबकि मार्क्सवाद के मुताबिक साध्य की प्राप्ति के लिए हिंसा के साधन को अपनाया जा सकता है। नक्सली मार्क्स के सिद्धांतों को मानते हैं किन्तु दुर्भाग्य से वे मार्क्स के मुताबिक साध्य को नहीं मानते। डाइनामाइट से सड़कें, स्कूल और अस्पताल उड़ाने वाले विध्वंसकारी जंगली नक्सलियों एवं उनके बौद्धिक मार्गदर्शक यानि शहरी नक्सलियों के प्रति सद्भावना लोकतंत्र के प्रति चुनौती है। अपना तो मानना है कि निर्दोष लोगों एवं सुरक्षाबल के जवानों पर गोलियां बरसाने वालों से ज्यादा खतरनाक वे बौद्धिकप्रेत हैं जो नक्सलियों को हिंसा के लिए प्रेरित करते हैं तथा उनके दुष्कृत्यों को सही ठहराने के लिए वैचारिक खुराफात का सहारा लेते हैं।

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