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अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश में कांग्रेस ने गठबंधन ठुकराया

👤 Veer Arjun Desk 4 | Updated on:9 March 2019 7:21 PM GMT
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दिल्ली में लोकसभा चुनाव को लेकर आम आदमी पार्टी (आप) और कांग्रेस में गठबंधन की संभावनाएं मंगलवार को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के साथ हुई प्रदेश के नेताओं की बैठक के बाद करीब-करीब खत्म हो गई हैं। पूर्व मुख्यमंत्री व मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष शीला दीक्षित दिल्ली की सभी सातों सीटों पर अकेले लड़ने पर अfिडग थीं जबकि प्रदेश प्रभारी पीसी चाको व पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अजय माकन आप से गठबंधन के पक्ष में थे। पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी के साथ दिल्ली के 11 नेताओं की बैठक के बाद कांग्रेस ने दिल्ली में अकेले लड़ने का ऐलान किया। शीला दीक्षित ने तर्क दिया कि चुनाव के 8 माह बाद दिल्ली विधानसभा चुनाव होने हैं। गठबंधन होता है तो विधानसभा चुनाव में हम खुद को खड़ा नहीं कर सकेंगे। आम चुनावों के बहाने हम विधानसभा क्षेत्रों में भी तैयारी कर सकते हैं। इसके बाद राहुल ने दिल्ली प्रदेश के नेताओं की इच्छा पर अकेले चुनाव लड़ने पर हामी भर दी। केंद्रीय स्तर पर विपक्षी दलों से गठबंधन के पक्षधर राहुल ने नेताओं से रायशुमारी और बहुमत को देखते हुए कहा, मैं फैसला नहीं थोपूंगा। गठबंधन का प्रस्ताव खारिज करने पर कांग्रेस ने बता दिया है कि वह बैसाखी के सहारे चलने की बजाय खुद के पैरों पर खड़ा होना पसंद करेगी। सोमवार देर शाम कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा का 9 सीटों का प्रस्ताव भी खारिज कर दिया, जबकि पार्टी का एक धड़ा मानता है कि अकेले उत्तर प्रदेश में पार्टी को ज्यादा सफलता नहीं मिलेगी। पश्चिम बंगाल में पार्टी वाम मोर्चे के साथ गठबंधन को तैयार नहीं है जबकि माकपा ने ऐलान कर दिया है कि वह कांग्रेस के कब्जे वाली सीटों पर उम्मीदवार नहीं उतारेगी। कर्नाटक में भी सहयोगी दल जद-एस के साथ सीटों के बंटवारे को लेकर बात आगे नहीं बढ़ा पा रही है। कांग्रेस 28 सीटों में से सिर्फ 8 सीटें ही जद-एस के लिए छोड़ना चाहती है जबकि जद-एस कम से कम 12 सीटों पर लड़ना चाहती है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी कांग्रेस से गठबंधन को लेकर बहुत इच्छुक रही है। उसके दृष्टिकोण से यह शायद उचित भी है क्योंकि दिल्ली में भाजपा को हराने की कोशिश में जुटी आप के लिए कांग्रेस को साथ लेने से लड़ाई कुछ हद तक आसान हो जाती। स्वाभाविक तौर पर यह भी कहा जा सकता है कि दिल्ली में आप का जनाधार घटा है और कांग्रेस का बड़ा है। इस बात की तस्दीक इस आंकड़े से भी होती है कि 2017 में हुए निकाय चुनाव में आप ने 22 फीसदी वोट हासिल किया था। वहीं आप की कमजोर होती जमीन का एक और आंकड़ा 2015 के बाद हुए विधानसभा के उपचुनाव में भी देखा जा सकता है। 2015 के विधानसभा चुनाव में जहां आप को 70 में से 67 सीटों पर जीत हासिल हुई वहीं 54 फीसद वोट मिले जबकि उपचुनाव में राजौरी गार्डन सीट पर उसके उम्मीदवार की जमानत जब्त हो गई। कहने का आशय यह है कि आप के कांग्र्रेस से गठबंधन के लिए लगातार जी हुजूरी कहीं न कहीं आम आदमी पार्टी की खस्ता तस्वीर बयां करने के लिए काफी है। मगर इससे जुड़ी बात यह भी कि क्या कांग्रेस के एकला चलो के सिद्धांत को लागू करने से उसकी साख मतदाताओं के बीच बढ़ेगी? गठबंधन के मसले पर बुलाई गई बैठक में कांग्रेस अध्यक्ष के सामने 10 में से 8 नेताओं ने डूबती हुई आम आदमी पार्टी से किसी भी कीमत पर समझौते की दलील को इसीलिए खारिज कर दिया। चूंकि राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता सो अभी भी एक धड़ा सिर्फ इस तर्क के आधार पर कि भाजपा को हराने के वास्ते आप और कांग्रेस को मिलकर चुनावी रण में उतरना होगा। दोनों दलों के बीच एका करने के भरसक प्रयास में है। वह खुद को फायदे की जगह देख रही है। पुलवामा हमले के बाद से निश्चित तौर पर भाजपा के पक्ष में हवा चल रही है। आप और कांग्रेस में गठबंधन से न केवल दिल्ली वरन हfिरयाणा और पंजाब की रणनीति पर भी असर पड़ सकता है। हम कांग्रेस की रणनीति को समझ सकते हैं। कांग्रेस लोकसभा चुनाव में आगे 2020 में होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव को देख रही है। वह अपनी आम आदमी पार्टी के हाथों खोई जमीन को वापस लाने के प्रयास करेगी। जो कार्यकर्ता निराश होकर बैठ गया है उसे फिर से सक्रिय करने का प्रयास करेगी। बेशक अकेले खड़े होने से उसे लोकसभा चुनाव में खास सफलता न भी मिली तो कम से कम अकेले लड़ने से वह खोया हुआ अपना वोट बैंक फिर से वापस तो ला सकती है। आम आदमी पार्टी (आप) के एक अंदरूनी सर्वे में वह 81 फीसदी दिल्लीवासियों ने चूंकि दिल्ली के लिए पूर्ण राज्य के दर्जे की वकालत की है इसलिए वह दिल्ली की सातों सीटों पर जीतने का दावा कर रही है। अब इसे प्रमाणित करने का भी समय आ रहा है। अब जीत के दिखाओ दिल्ली की सातों सीटें।

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