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अनावश्यक विवाद

👤 Veer Arjun Desk 4 | Updated on:19 May 2019 6:39 PM GMT
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चुनाव आयोग में असहमति का मुद्दा एक बार फिर सार्वजनिक हो गया है और चूंकि मामला प्रधानमंत्री और सत्ताधारी पार्टी के प्रमुख से जुड़ा है इसलिए विपक्ष द्वारा इस मामले को राजनीतिक रंग देना स्वाभाविक है। चुनाव आयोग में एक मुख्य चुनाव आयुक्त और दो चुनाव आयुक्त हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के 11 विवादित बयानों में क्लीन चिट देने के फैसले में मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा और एक अन्य चुनाव आयुक्त सुशील चन्द्रा ने बहुमत से आरोपों को खारिज किया था जबकि अशोक लवासा प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को क्लीन चिट दिए जाने के मामले में मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा और अन्य आयुक्त सुशील चन्द्रा से सहमत नहीं थे। चुनाव आयुक्त अशोक लवासा चाहते हैं कि उनकी असहमति को आयोग के बहुमत के फैसले में शामिल किया जाए। अशोक लवासा इस आशय के चार पत्र मुख्य चुनाव आयुक्त को लिख चुके हैं। अपने पत्रों में उन्होंने न सिर्प अपनी असहमति को फैसले में शामिल किए जाने का उल्लेख किया है बल्कि चेतावनी भी दी है कि यदि उनकी मांग नहीं मानी गई तो वह बैठकों में शामिल नहीं होंगे। अशोक लवासा चुनाव आयोग की बैठकों में शामिल होना बंद भी कर चुके हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या बहुमत के फैसलों में असहमति को रिकार्ड पर लाने या फैसले का हिस्सा बनाने का कोई नियम है? क्या असहमति को फैसले का हिस्सा मानने की कोई प्रथा रही है? इसका दो टूक जवाब यह है कि आचार संहिता उल्लंघन का मामला अर्ध न्यायिक नहीं है। असहमति को फैसले में शामिल करने संबंधी कोई नियम भी नहीं है। आयोग के कानूनी विभाग का मानना है कि `फैसलों पर असहमति नहीं भी दर्ज की जा सकती है।' जबकि सच यह है कि असहमति को रिकार्ड में लाने की प्रथा है ही नहीं। सभी आयुक्तों की शक्तियां समान हैं। यदि मुख्य चुनाव आयुक्त किसी फैसले से असहमत हों जबकि दो अन्य आयुक्त सहमत हों तो बहुमत वाले दोनों आयुक्तों के फैसले ही मान्य होते हैं न कि मुख्य चुनाव आयुक्त के। यही नहीं फैसले में मुख्य चुनाव आयुक्त की असहमति का उल्लेख भी नहीं होता। सभी फैसलों पर हस्ताक्षर मुख्य चुनाव आयुक्त और दोनों आयुक्त करते हैं।

दरअसल यह तीन सदस्यीय आयुक्त व्यवस्था इसलिए की गई थी ताकि चुनाव आयोग में `एक व्यक्ति' पद का दुरुपयोग न कर सके। तत्कालीन चुनाव आयुक्त टीएन शेषन को नियंत्रित करने के लिए नरसिम्हा राव सरकार ने दो अन्य सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारियों एमएस गिल और टीएस कृष्णामूर्ति को आयुक्त नियुक्त किया था। तभी से तीन सदस्यीय आयुक्त व्यवस्था चली आ रही है। सहमति-असहमति के आधार पर फैसले होते रहे किन्तु आज तक ऐसी नौबत नहीं आई कि कोई भी आयुक्त इस जिद पर अड़े कि उसकी असहमति को फैसले के रिकार्ड पर लाया जाए अन्यथा वह बैठकों में शामिल होना ही छोड़ देंगे।

अब सवाल उठता है कि यदि अशोक लवासा चाहते ही हैं कि असहमति को फैसले का हिस्सा बनाया जाना अनिवार्य है तो इसमें गलत क्या है? सच तो यह है कि इसमें उनकी कोई गलती नहीं है। किन्तु यह शुरुआत भी या तो तीनों चुनाव आयुक्त कर सकते हैं या फिर सरकार करे। इस शुरुआत के लिए मीडिया की सहायता लेने से अशोक लवासा की नीयत पर सवाल उठना स्वाभाविक है।

अशोक लवासा ने मुख्य चुनाव आयुक्त को लिखी चिट्ठियों में धमकी भी दी है कि यदि उनकी मांग न मानी गई तो वे कानूनी रास्ता अपनाएंगे। मुश्किल तो यही है कि सुप्रीम कोर्ट और सरकार चुनाव आयोग के पचड़े में पड़ते ही नहीं। बात 2006 की है जब भाजपा और उसके सहयोगी दलों के 200 सांसदों ने राष्ट्रपति को एक ज्ञापन देकर मांग की कि तत्कालीन चुनाव आयुक्त नवीन चावला अपने परिवार द्वारा संचालित एनजीओ के लिए एक पार्टी विशेष के सांसदों से उनके निधि का पैसा लेते हैं और आपातकाल में भी उनकी भूमिका विपक्ष के खिलाफ थी इसलिए उन्हें पदमुक्त करें। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने तत्कालीन अटार्नी जनरल मिलन बनर्जी से सलाह मांगी। बनर्जी ने नवीन चावला को क्लीन चिट दे दी। इसके बाद भाजपा के तत्कालीन सांसद जसवंत सिंह ने याचिका दाखिल कर नवीन चावला को पद से हटाने की मांग की। सुप्रीम कोर्ट ने तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालस्वामी से पूछा कि क्या वे चुनाव आयुक्त नवीन चावला को उनके पद से हटाने में सक्षम हैं। इसके जवाब में उन्होंने कहा कि वे राष्ट्रपति से सिफारिश कर सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने जसवंत सिंह से कहा कि अब वे अपनी याचिका मुख्य चुनाव आयुक्त को सौंप दें। मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालस्वामी ने जनवरी 2009 में राष्ट्रपति से सिफारिश कर नवीन चावला को पद से हटाने की सिफारिश कर दी। गोपालस्वामी ने न सिर्प भाजपा सांसद जसवंत सिंह के आरोपों को आधार बनाया बल्कि कुछ नए तथ्यों को आधार बनाकर यह साबित करने की कोशिश की थी कि नवीन चावला ने एक पार्टी विशेष के हितों के लिए अपने पद का दुरुपयोग किया तथा आयोग की निष्पक्षता पर आघात किया। मनमोहन सिंह सरकार ने नवीन चावला के खिलाफ न सिर्प कार्रवाई करने से इंकार कर दिया बल्कि उन्हें मुख्य चुनाव आयुक्त भी बना दिया। चुनाव आयोग के आयुक्तों में असहमति होना लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए शुभ तो है ही संस्था की पारदर्शिता के लिए भी अत्यावश्यक है। हैरानी की बात है कि जिस चुनाव आयोग पर देश की जनता का भरोसा होता है क्योंकि किसी को भी उसकी निष्पक्षता पर अविश्वास नहीं होता, वही चुनाव आयोग असहमति के मुद्दे पर जगहंसाई का पात्र बन गया है। भारतीय चुनाव आयोग की निष्पक्षता को दुनियाभर में आदर्श माना जाता है किन्तु `असहमति' के मुद्दे पर चुनाव आयोग आपसी सहमति बना पाने में असफल रहा है। उनकी असमर्थता ही चुनाव आयोग की निष्पक्षता के स्थायी भाव के लिए घातक साबित होगा जिसके लिए तीनों आयुक्त ही जिम्मेदार होंगे।

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