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भाजपा की रणनीति से महागठबंधन ध्वस्त

👤 Veer Arjun Desk 4 | Updated on:26 May 2019 5:29 PM GMT

भाजपा की रणनीति से महागठबंधन ध्वस्त

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विपक्ष की सबसे बड़ी उम्मीद उत्तर प्रदेश में भाजपा को धूल चटाने के लिए ढाई दशक पुरानी दुश्मनी त्याग कर गठबंधन करने वाली सपा-बसपा के प्रदर्शन से था। विपक्ष को उम्मीद थी कि यदि उत्तर प्रदेश में भाजपा 20-25 सीटों पर सिमट गई तो वह इसकी भरपाई दूसरे राज्यों से नहीं कर पाएगी। इसके अलावा विपक्ष को उम्मीद थी कि 2018 में राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ चुनावों में पराजित भाजपा 2014 नहीं दोहरा पाएगी। उम्मीद तो विपक्ष इस बात की भी कर रहा था कि भाजपा की सीटें गुजरात और महाराष्ट्र में भी पहले से कम होंगी। विपक्ष तो अनुमान इस बात का भी लगाए बैठा था कि 2014 में मोदी लहर थी जबकि इस बार सत्ता विरोधी लहर है इसलिए भाजपा 200 का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाएगी। जब उड़ती-पड़ती खबरें आती थीं कि भाजपा उत्तर प्रदेश में पिछली बार की अपनी 71 और अपने सहयोगी अपना दल की 2 सीटों यानि 73 की भरपाई पश्चिम बंगाल और ओडिशा से करेगी तो चर्चा पूरी होने से पहले पूर्णविराम यह कहकर लगा दिया जाता था कि उत्तर प्रदेश में भाजपा को जो नुकसान होगा उसकी पूर्ति दूसरे राज्यों से संभव है ही नहीं।

दरअसल उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा और आरएलडी का गठबंधन था ही ऐसा कि भाजपा के लिए खतरे की घंटी हर किसी को स्पष्ट सुनाई पड़ रही थी। 2014 के चुनाव में सपा 22.35 प्रतिशत वोट लेकर 5 सीटें जीती थीं जबकि बसपा 19.77 प्रतिशत वोट लेकर कोई सीट नहीं जीत पाई थी। इन दोनों पार्टियों को लगा कि यदि वे मिल जाएं तो दोनों मिलकर अकेले ही 42.12 प्रतिशत वोट लाएंगे। इसके साथ ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट वोटों को एकजुट करने के लिए अजीत सिंह की आरएलडी को भी मिला लें तो मुसलमान गठबंधन की सार्थकता को यानि भाजपा को हराने में सक्षम मानकर गठबंधन को ही वोट देंगे। भाजपा को 2014 में 42.63 प्रतिशत वोट मिले थे। राष्ट्रीय लोक दल को 0.86 प्रतिशत वोट मिले थे। इसलिए तीनों के मिल जाने से 42.98 प्रतिशत वोट भाजपा के 42.63 प्रतिशत वोट शेयर से .35 प्रतिशत ज्यादा होता था गठबंधन का। गठबंधन का आशावान होना स्वाभाविक था और गठबंधन से भाजपा विरोधी विपक्षी पार्टियों की उम्मीद करना भी स्वाभाविक था। लेकिन भाजपा ने ऐसी रणनीति अपनाई कि गठबंधन की उम्मीदों पर पानी फिरा ही विपक्ष भी हक्का-बक्का रह गया।

हुआ यह कि जब उत्तर प्रदेश में फूलपुर, गोरखपुर और कैराना उपचुनाव में सपा, बसपा और आरएलडी के संयुक्त वोट से भाजपा को पटकनी दी गई तो मोदी-शाह ने तय किया कि अब यादव (सपा) दलित (बसपा) जाट (आरएलडी) और मुस्लिम वोटों की एकजुटता से निपटने के लिए पार्टी को 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट शेयर हासिल करने की रणनीति अपनानी होगी। हुआ भी यही। भाजपा के जो प्रत्याशी जीते हैं उनमें ज्यादातर ने 50 से 57 प्रतिशत वोट हासिल किए हैं जबकि उत्तर प्रदेश में भाजपा का औसत वोट शेयर 49.56 प्रतिशत है। बसपा का 19.26 प्रतिशत और सपा का 17.96 प्रतिशत। इस तरह सपा और बसपा के सम्मिलित वोट शेयर 37.22 प्रतिशत हुआ जो भाजपा के वोट शेयर से 12.34 प्रतिशत कम है।

बड़ा सवाल यह है कि सपा-बसपा और आरएलडी गठबंधन क्यों नहीं कम कर पाया भाजपा की सीटें? कई कारण हैं जिनकी वजह से गठबंधन भाजपा को ज्यादा नुकसान पहुंचाने के अपने सपने को साकार नहीं कर सका। पहला कारण तो यह है जाति का जो समीकरण तीनों पार्टियां मानकर चल रही थीं उनका प्रभाव ग्रामीण क्षेत्रों में ही होना था और भाजपा ने किसानों, ग्रामीण महिलाओं और बेरोजगार युवकों में ऐसी धाक जमाई कि गठबंधन में पार्टियों के परंपरागत समर्थक जातियों के वोटरों ने खूंटा तोड़कर भाजपा प्रत्याशियों को वोट दिए। आरएलडी के अजीत सिंह मुजफ्फर नगर और जयंत का बागपत से हारना इस बात का सबूत है कि वोटर विकास और राहत चाहता है। वह किसी पारिवारिक निष्ठा से बंधा नहीं रहना चाहता। दूसरा यह कि भाजपा ने जमीनी स्तर पर जातीय और सामाजिक समीकरण बैठाने के लिए कोशिश की। भाजपा ने पहले तो प्रदेश के 9 प्रतिशत यादव वोटरों के जवाब में 4 प्रतिशत कुशवाह, मौर्या, शाक्य, कोइरी, काछी सैनी, 7 प्रतिशत लोधी, 3 प्रतिशत कुर्मी पर बल दिया। पार्टी ने वैश्यों और सवर्णों को आकर्षित करने के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की। चूंकि सपा ने संसद में सवर्ण आरक्षण का विरोध किया था इसलिए 80 प्रतिशत सवर्ण वोटरों ने भाजपा को वोट दिया। सपा-बसपा ने भले ही कुछ सवर्ण प्रत्याशी खड़े किए किन्तु उसका असर नहीं पड़ा। बसपा को लग रहा था कि दलित एकजुट होकर उसे ही वोट देंगे किन्तु ऐसा हो न सका। इसका कारण था मोदी सरकार की जन कल्याणकारी योजनाओं का ग्रामीण क्षेत्र के दलितों पर व्यापक प्रभाव। इन्हीं योजनाओं के कारण ग्रामीण क्षेत्र के मुस्लिम समाज ने भी भाजपा प्रत्याशियों को वोट दिया।

इसके अलावा एक कारण यह भी था कि सपा-बसपा का गठबंधन नेताओं के बीच तो हो गया किन्तु कार्यकर्ताओं के स्तर पर नहीं हुआ। बसपा का वोट शेयर 19.26 प्रतिशत 2014 के वोटर शेयर के लगभग बराबर रहा जबकि सपा का वोट शेयर 17.96 प्रतिशत रह गया। इसका मतलब यह हुआ कि सपा के निष्ठावान वोटरों ने तो बसपा को वोट दिया किन्तु बसपा के वोटरों ने सपा को वोट नहीं दिया। सच तो यह है कि सपा के स्वाभिमानी यादव कार्यकर्ताओं और वोटरों ने भी सपा का साथ छोड़ दिया। उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि अखिलेश के नेतृत्व में सपा जिस तरह बसपा के सामने दंडवत हो चुकी है उससे यादव समाज का स्वाभिमान और आत्मसम्मान सुरक्षित रह पाना संभव नहीं है। इसलिए ज्यादातर यादव वोट भाजपा को मिले। इसी तरह बसपा भी दलित वोट पूरी तरह से हासिल नहीं कर पाई।

गठबंधन ने मुस्लिम वोटरों पर भले ही आंख मूंद कर भरोसा किया हो किन्तु सच तो यह है कि मुस्लिम महिला वोटरों ने भाजपा को वोट दिया है। उनको मोदी सरकार की कल्याणकारी योजनाएं और तीन तलाक के खिलाफ अध्यादेश लाकर राहत देने की बात भी अच्छी लगी।

उत्तर प्रदेश में जो पहली बार वोटर बने और जो वोटर किसी पार्टी विशेष के समर्थक नहीं थे उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मजबूत और निर्णायक नेतृत्व पर भरोसा था। जन कल्याणकारी योजनाओं की डिलीवरी के अलावा पीएम मोदी की आतंक के खिलाफ बेखौफ लड़ाई का ऐलान करने का फैसला अच्छा लगा। पहली बार के मतदाताओं और किसी पार्टी से जुड़े न रहने वाले मतदाताओं को पीएम मोदी के दूरगामी प्रभाव वाले फैसले लेने की क्षमता ने प्रभावित किया।

लब्बोलुआब यह है कि उम्मीदों की जितनी बड़ी रेखा भाजपा नेतृत्व ने खींच दी उतनी बड़ी रेखा गठबंधन के लिए खींच पाना असंभव था इसलिए जो परिणाम उत्तर प्रदेश में आया है वह आशा के अनुकूल ही है।

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