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एक बार फिर नक्सली हमला

👤 Veer Arjun | Updated on:7 April 2021 4:45 AM GMT

एक बार फिर नक्सली हमला

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-अनिल नरेन्द्र

छत्तीसगढ़ में बीजापुर और सुकमा की सीमा पर जंगल में नक्सलियों के साथ मुठभेड़ में सुरक्षा बल के 23 जवानों का शहीद होना दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण तो है ही, इससे यह भी पता चलता है कि दुर्गम इलाकों में नक्सलियों से मुकाबला करते हुए हमारे जवान कितने जोखिमों का सामना करते हैं। एक जवान अब भी लापता है। जबकि 31 जवान घायल हैं। नक्सलियों ने वारदात को टेकलगुड़ा के जंगल में शनिवार को अंजाम दिया था। मुठभेड़ के बाद नक्सलियों ने जवानों के हथियार लूटे और कई शहीदों के जूते और कपड़े तक उतार लिए। शनिवार सुबह 11 बजे से शाम चार बजे तक चली इस मुठभेड़ के बाद दो शहीदों के ही शव लाए जा सके। छत्तीसगढ़ में बीते 10 दिनों में यह दूसरा बड़ा हमला है।

23 मार्च को नक्सलियों ने नारायणपुर जिले में पुलिस बस उड़ाकर पांच जवानों को मारा था। इन हमलों की बड़ी वजह है बदली रणनीति। हर साल आठ मार्च को टेक्टिकल काउंटर अफैंसिंग कैंपेन शुरू करते हैं, इस बार इसे जनवरी से ही शुरू कर दिया और हर साल 2-8 दिसम्बर तक पीएलजीए सप्ताह मनाते हैं, इस बार सप्ताह वर्ष नहीं मना रहे हैं। अप्रैल 2010 में छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में हुई मुठभेड़ में 70 से अधिक जवानों के शहीद होने की घटना हो या 2013 में बस्तर की झीरम घाटी में कांग्रेस की प]िरवर्तन यात्रा में ऐसी कई घटनाएं हुई हैं। बताया जाता है कि सुरक्षा बल पिछले कुछ दिनों से नक्सली कमांडर हिडमा के ठिकाने के बारे में सूचनाएं जुटा रहे थे। इस कुख्यात नक्सली कमांडर के बारे में कहा जाता है कि वह झीरम घाटी में हुए हमले के अलावा पिछले साल सुरक्षा बल पर किए गए एक हमले में भी शामिल था, जिसमें 17 जवान शहीद हुए थे। दरअसल ऐसे बड़े हमलों को अंजाम देने वाला शीर्ष नक्सली नेता मादवी हिडमा सुरक्षा बलों के लिए बड़ा सिरदर्द बना हुआ है।

एक खुफिया सूचना पर ही अलग-अलग बलों के दो हजार से ज्यादा जवानों का दल हिडमा को पकड़ने के लिए शुक्रवार को बीजापुर और सुकमा के जंगलों में गया था। शनिवार को जंगलों में तलाशी के दौरान नक्सलियों ने इन जवानों को घेर लिया और कई घंटे मुठभेड़ चली। नक्सल प्रभावित जिले घने जंगल वाले हैं और इन जंगलों में ही नक्सली ठिकाने हैं, जहां पहुंच पाना किसी के लिए आसान नहीं होता। न ही किसी के बारे में कोई सटीक सूचना होती है। ऐसे में सुरक्षा बलों के लिए जोखिम और बढ़ जाता है और अकसर वह हमलों का शिकार हो जाते हैं। सवाल यह है कि नक्सलियों से निपटने की रणनीति आखिर कारगर साबित क्यों नहीं हो रही? दशकों बाद भी क्यों केंद्र और राज्य सरकारें नक्सलियों की कमर तोड़ने में कामयाब नहीं हो पाईं? हमलों में जिस तरह से जवानों की जान चली जाती है, उससे तो लगता है कि नक्सलियों के खिलाफ चलाए जाने वाले अभियानों में कहीं न कहीं गंभीर खामियां रह जाती हैं।

खुफिया सूचनाओं और सही फैसले के तालमेल के अभाव में ठोस रणनीति नहीं बन पाती और जवान मारे जाते हैं। दुख और हैरानी की बात यह भी है कि इतने वर्षों में किसी भी सरकार ने नक्सलियों से किसी तरह का भी संवाद का रास्ता नहीं बनाया। हर बड़े हमले के बाद सिर्फ नक्सलियों के सफाए अभियान पर ही जोर कागजों में ही बनकर रह जाता है। पूरी तरह से नक्सलियों का सफाया आसान नहीं है, यह सरकारें भी जानती हैं, इसलिए इस ज्वलंत समस्या से निपटने के लिए केंद्र व राज्य सरकारों को नए सिर से रणनीति बनाने की जरूरत है। मारे गए जवानों को हम अपनी श्रद्धांजलि देते हैं।

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