रणनीतिक कौशल
भाजपा की पहली सूची में 195 प्रात्याशियों के नाम सार्वजनिक होने के बाद जिन नेताओं के नाम सूची में नहीं दिखे उनमें से कईं ने राजनीति से संन्यास की घोषणा कर दी। इनमें से सबसे प्रमुख नाम है पूर्व वेंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन का। चांदनी चौक संसदीय क्षेत्र का प्रातिनिधित्व करने वाले डा. हर्षवर्धन ने दिल्ली के मदनलाल खुराना सरकार में स्वास्थ्य मंत्री के रूप में अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी। इससे पहले नाक, कान, गले के मशहूर चिकित्सक और संघ के सामान्य स्वयंसेवक ही उनकी पहचान थी। लेकिन राजनीति में सक्रिय होने के बाद मृदुभाषी एवं विभागीय कार्यं में दक्ष डा. हर्षवर्धन के समर्थक बढ़ते गए और वह भी लोगों की शिकायतें सुनकर निवारण करने में पीछे नहीं रहे। अत्यन्त सामान्य जीवन शैली व मिलनसार होने के कारण कभी भी उनके प्राति भाजपा कार्यंकर्ताओं और समर्थकों में निराशा का भाव नहीं दिखा।
सार्वजनिक जीवन में व्यक्ति के ऊपर किसी तरह का आरोप न लगना असामान्य बात है। डा. हर्षवर्धन पर कभी भी न तो पक्षपात का आरोप लगा न ही बेईंमानी का। ऐसे में आार्यं होना स्वाभाविक है कि आखिर इतने ईंमानदार व लोकप््िराय नेता का टिकट भाजपा नेतृत्व ने क्यों काटा! असल में इस सवाल का जवाब तो वही दे सकते हैं जिन लोगों पर टिकट वितरण का दायित्व है, किन्तु सच यह है कि जिस सरल सपाट एवं स्वाभाविक तरीके से सामान्य लोग सोचते हैं, उस तरीके से पार्टी नेतृत्व नहीं सोचता। वह अपने नेताओं की पात्रता और अपात्रता दोनों का विश्लेषण करता है। नए नेताओं की टीम तैयार करता है और सभी को अवसर देने की नीति अपनाता है। पार्टी की नीति होती है कि वह पुराने लोगों को हटाकर नए चेहरों को मौका देता है ताकि नईं पौध को सही स्थान मिल सके और पुराने लोगों का सम्मान भी बरकरार रहे। उसे जो जहां के लिए उचित दिखता है वहीं फिट करने की कोशिश करता है।
इसका सबसे अच्छा उदाहरण पूर्व रेल मंत्री सुरेश प्राभु हैं। प्राभु को शिव सेना से त्याग पत्र दिलाकर मंत्री की शपथ दिलाईं गईं और बाद में भाजपा नेतृत्व ने उत्तर प्रादेश से राज्यसभा का सदस्य बनवाया। पेशे से चार्टर्ड अकाउंटेंट रहे सुरेश प्राभु ने रेलवे का घाटा कम करने के लिए काफी प्रयास किया और उन्हें सफलता भी मिली यही नहीं अत्यन्त सरल व्यक्तित्व के सुरेश प्राभु के साथ काम करने वाले रेलवे के अधिकारी अत्यन्त उत्साहित थे किन्तु जब एक के बाद एक रेल दुर्घटनाओं का सिलसिला शुरू हुआ तो तत्कालीन रेल मंत्री ने खुद प्रधानमंत्री से पद त्याग का प्रास्ताव किया। प्रधानमंत्री ने उन्हें तत्काल तो दायित्व मुक्त नहीं किया किन्तु मंत्रिपरिषद के अगले पेरबदल में उनका नाम काट दिया। सुरेश प्राभु आज भी सरकार के लिए तमाम परियोजनाओं पर काम करते हैं और बहुत व्यस्त हैं किन्तु वे न तो मंत्री हैं और न ही किसी सदन के सदस्य। अपनी भूमिका से भी संतुष्ट हैं।
ठीक इसी तरह का एक और उदाहरण है बागपत के सांसद डा. सत्यपाल सिह का। व्यावसायिक पुलिस प्रावृत्ति के कारण डा. सिह अत्यन्त कठोर और अत्याधिक मिलनसार यानि दोहरे व्यक्तित्व के हैं। धर्मशास्र के मर्मज्ञ डा. सिह आर्यं समाजी होने के कारण तर्वशास्स्र के भी महाज्ञानी हैं। उन्न्हें प्राधानमंत्री ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय में प्राकाश जावड़ेकर के साथ राज्य मंत्री का दायित्व सौंपा था। किन्तु मानव के पूर्वज बंदर हैं जैसे मुद्दे पर दोनों मंत्री एक दूसरे से उलझे तो 2019 में पहले मंत्रिपरिषद गठन से डा. सत्यपाल का नाम कटा और बाद में जावडेकर का। लेकिन स्थाईं समिति के रूप में आज भी डा. सत्यपाल सिह व्यस्त रहते हैं और पार्टी नेतृत्व उनसे संतुष्ट रहता है। सूरज कभी कौड़ी का तीन नहीं होता। पार्टी को चुनाव जीतने के लिए कभी-कभी कठोर और अप्रिय कदम उठाने होते हैं किन्तु वह अपने नेताओं की भूमिका भी तय करता है। डा. हर्षवर्धन को पद एवं प्रातिष्ठा की मोह कभी नहीं रही। उन्होंने तो संघ प्रामुख के इस प्रास्ताव को भी विनम्रतापूर्वक ठुकरा दिया था जब उन्होंने उनसे पार्टी का अध्यक्ष पद स्वीकार करने के लिए कहा था। डा. हर्षवर्धन के अलावा रामवीर सिह विधूड़ी, प्रावेश वर्मा और मीनाक्षी लेखी के भी टिकट कटे हैं। ये सब राजनीति में ही रहेंगे और इनकी भूमिकाएं नेतृत्व सुनिश्चित करेगा। समर्थक भावनाओं में बहकर अपने नेताओं के टिकट कटने पर निराशा एवं आक्रोशवश प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं किन्तु इससे लगता है कि उन्हें खुद ही अपने नेता के व्यक्तित्व का अनुमान लगाने की क्षमता नहीं है।