समझ पर सवाल
विदेश मंत्री डा. एस जयशंकर ने भारत के नागरिकता संशोधन अधिनियम कानून संबंधी अमेरिका के सवाल पर उसकी समझ पर ही सवाल उठाकर इस बात का एहसास दिलाया है कि भारत मानवीय मूल्यों को अपने विदेश नीति में महत्वपूर्ण स्थान देता है और वह किसी भी देश की शिक्षा की जरूरत महसूस नहीं करता। इंडिया टूडे कॉनक्लेव में विदेशमंत्री अमेरिका की चिंताओं का जवाब देते हुए कहा कि नागरिकता संशोधन अधिनियम कानून (सीएए) को विभाजन के संदर्भ में देखना महत्वपूर्ण है। लेकिन इसके बाद उन्होंने अमेरिका के भारतीय इतिहास के बारे में अमेरिकी प्रशासन में जिम्मेदार लोगों की समझ पर ही सवाल उठा दिया। विदेश मंत्री जयशंकर ने स्पष्ट किया कि भारत का विभाजन 20वीं सदी की सबसे बड़ी विश्व त्रासदी थी और सीएए अधिनियम उसी पीड़ा को कम करने का एक समुचित माध्यम है।
दरअसल अमेरिका दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र जरूर है कितु वहां पर तमाम गैर सरकारी संगठन यानि एनजीओ हैं जो अपने स्वार्थवश अपनी सरकार को अपनी चिंताओं में शामिल कर लेने में सफलता हासिल कर लेते हैं। जब अमेरिकी विदेश या अन्य विभाग को कोईं वरिष्ठ अधिकारी कोईं प्रतिव्रिया देता है तो उसे वही एनजीओ पूरा जोर लगाकर प्रचारित करती हैं। लेकिन सच तो यह है कि कोईं संप्रभुता संपन्न राष्ट्र अपनी आंतरिक नीतियों, राष्ट्रीय कानून और संसदीय भावनाओं के अतिरिक्त किसी भी देश की टीका-टिप्पणी नहीं सुन सकता। भारत तो वैसे भी किसी की नहीं सुनता। अमेरिका को अब इस बात को महसूस करना चाहिए कि वह कोईं अंतर्राष्ट्रीय पुलिस की भूमिका नहीं निभा सकता। भारत वही करेगा जो उसके देश के लोगों के हित में होगा। भारत को बदनाम करने की नीयत से बवाल करने वालों की बकवास के आधार पर उठाए गए सवालों और चिंताओं का न तो कोईं जवाब बनता है और न ही भारत देता है। जो दशकों तक जातीय हिंसा के शिकार रहे देश जब महात्मा गांधी और गौतम बुद्ध के करुणा और अहिंसा वादियों के देश पर सवाल उठाते हैं तो वेदना होना स्वाभाविक है। भारतीय संविधान यूं ही नहीं दुनिया का सबसे बड़ा दिशा निर्देशक महाग्रंथ माना गया है। हमारे संविधान में जितने भी अहिंसा के सिद्धांत उपलब्ध हैं, सभी की शिक्षा एवं नैतिक नियमों का समावेश है। हमारे देश में जाति और धर्म के आधार पर न तो संसद में कानून बनते और न ही कोईं प्रशासनिक आदेश दिए जाते हैं।
हमारी न्यायपालिका सरकार के हर कार्यं का मूल्यांकन करती है और निभीक होकर पैसले देती है। विभाजन एक धर्म की इस मांग के कारण हुआ कि उसे एक अलग राष्ट्र चाहिए। उस धर्म के लोगांे को अलग राष्ट्र मिल भी गया कितु भारत में किसी ने उन लोगों को यहां से निकालने के लिए कोईं ‘दबाव नीति’ नहीं अपनाईं कि वह पूरी तरह देश खाली कर दें।
इसका मुख्य कारण है कि भारत मानवता के प्रति संवेदनशीलता को कभी छोड़कर अपनी पहचान बनाए रखने में सक्षम ही नहीं है। कितु जो हिंदू, ईंसाईं, सिख, पारसी और बौद्ध विभाजन के वक्त भारत नहीं आ पाए और अपने देश में किसी धर्म विशेष की कट्टरता के शिकार हो रहे हैं, उन्हें भारत में नागरिकता देने के प्रस्ताव संबंधी कानून पर चिल्लपों मचाने वाले न तो भारतीय इतिहास की त्रासदी को समझते हैं, न समझना चाहते हैं और यदि थोड़ा बहुत समझते भी हैं तो भारत की जनता की प्रवृत्ति को अपनी संस्वृति के चश्में से देख कर अपनी समझ पर और भी जग हंसाईं कराते हैं। समझ की बात तो यह है कि हर बात पर भारत के खिलाफ अंगुली अमेरिकी प्रशासन में ही क्यों उठती है। अमेरिका में जातीय हिंसा पर वहां के शासकों की बोलती बंद हो जाती है। विदेश मंत्री जयशंकर ने अमेरिकी समझ पर सौ टके का सवाल उठाकर बहुत ही साहसिक और सराहनीय कार्यं किया है। विदेश मंत्री के इस कार्यं से देशवासियांे को राष्ट्रीय गौरव की अनुभूति हो रही है।