राजनीति का धर्म
लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की प्रमुख मायावती द्वारा रविवार को उत्तर प्रादेश की घोषित 16 प्रात्याशियों में से सात मुसलमानों को उम्मीदवार बनाने से सेक्युलर पार्टियों में हलचल मचना स्वाभाविक है क्योंकि उनकी पूरी राजनीति का आधार ही मुस्लिम वोट है।
मुस्लिम वोटों को बांटने से रोकने के लिए ही कांग्रोस और समाजवादी पार्टी को एक साथ आना पड़ा। चुनावी गणित का सभी पार्टियां फार्मूला तलाशती रहती हैं। इन दिनों समाजवादी पार्टी का आधार मुस्लिम और यादव है किन्तु सभी सेक्युलर पार्टियों का मुस्लिम मतदाताओं में थोड़ा बहुत आधार रहता ही है। बहुजन समाज पार्टी भी मुस्लिम वोटरों में जनाधार रखती है। यही कारण है कि सपा और बसपा को लगता है कि यदि बसपा को वुछ भी वोट मिलेंगे तो वह उन्हीं के होंगे क्योंकि मुसलमान तो भाजपा को हराने के लिए सबसे प्राभावशाली प्रात्याशी को ही वोट करता है।
दरअसल मुस्लिम समाज में असुरक्षा की इतनी भावना भर दी गईं है कि वह भाजपा के खिलाफ किसी भी जीतने की संभावना वाले प्रात्याशी को वोट करता तो जरूर है किन्तु इसकी प्रातिव््िराया का उसे रत्ती भर एहसास नहीं है। धार्मिक कट्टरता के इसी रुख के जवाब में बहुत सारे गैर मुस्लिम भाजपा की आर्थिक और राजनीतिक नीतियों से असहमत होने के बावजूद भी वोट दे देते हैं। आज इस बात को लालू और मुलायम यादव के उत्तराधिकारी पुत्रों को भी एहसास हो रहा है कि एमवाईं के जिस आधार पर उन्होंने शासन चलाया अब वह उतना मजबूत नहीं रहा।
बहरहाल राजनीति में जातीय और धार्मिक संकीर्णता का युग ज्यादा दिनों तक रहने वाला नहीं है। फिर भी पार्टियां इसी के सहारे चुनाव जीतने की उम्मीद पाले रहती हैं। यही कारण है कि उत्तर प्रादेश में सपा और कांग्रोस को मायावती के खेल से डर लग रहा है। इससे तो यही लगता है कि वुछ राजनीतिक दलों के लिए जाति और धर्म ही उनकी चुनावी रणनीति का प्रामुख हथियार बनकर रह गया है। यह बात आज तक किसी राजनीतिक पंडित की समझ में नहीं आईं कि राजनीति का क्या धर्म है। मात्र चुनाव जीतने के लिए धार्मिक समुदाय व जाति का जोड़तोड़ या जन सेवा।