न्याय की कसौटी
न्याय की कसौटी दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की यह दलील कि उन्हें चुनाव प्रचार के लिए अंतरिम जमानत चाहिए का जिस तरह प्रवर्तन निदेशालय (ईंडी) की तरफ से विरोध किया गया उससे उच्चतम न्यायालय के लिए जमानत का आदेश देना मुश्किल हो जाना स्वाभाविक है।
दरअसल दिल्ली हाईं कोर्ट द्वारा केजरीवाल की गिरफ्तारी को सही एवं न्याय संगत ठहराने के बाद केजरीवाल के पास यह सबसे अच्छी दलील बची थी कि वह ईंडी पर आरोप लगाएं कि उसने राजनीति से प्रभावित होकर सीएम को गिरफ्तार किया। पीठ की तरफ से जिस तरह तीखे सवालों का जवाब ईंडी की तरफ से बहस कर रहे अतिरिक्त सालिसिटर जनरल एसपी राजू को देना पड़ रहा था, उससे तो यही लग रहा था कि जन प्रतिनिधियों को चुनाव प्रचार करने के विशेषाधिकार के तहत जेल से बाहर होना चाहिए। यही आपत्ति सालिसिटर जनरल तुषार मेहता ने उठाईं। उन्होंने पीठ के सामने दलील रखी कि फिर तो राजनेताओं और आम आरोपी के बीच अंतर रखने की नजीर बन जाएगी। मेहता की इसी आपत्ति के बाद पीठ को भी कदाचित एहसास हुआ कि मेहता की आपत्ति सही है। मेहता ने यह भी दलील दी कि यदि ईंडी की नोटिस पर केजरीवाल पहले ही पेश हो गए होते तो शायद वह गिरफ्तार ही नहीं होते।
सच तो यह है कि केजरीवाल को ईंडी की तरफ से पहला नोटिस अक्टूबर 2023 में मिला था, तब उन्होंने कहा था यह नोटिस ईंडी का नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का है, इसलिए वह नोटिस को मानते ही नहीं, पहला नोटिस के सात-आठ महीने बाद चुनाव-प्रचार का अवसर आ गया है। हैरानी की बात है कि जिस नोटिस को केजरीवाल किसी राजनीतिक पार्टी का नोटिस बताकर उपहास उड़ाते थे उसी को लेकर अब वह निचली अदालत, हाईं कोर्ट और अब सुप्रीम कोर्ट तक गुहार लगा रहे हैं कि उन्हें ईंडी ने गिरफ्तार कर लिया और अब आप जमानत दे दीजिए।
सच तो यह है कि केजरीवाल के नैतिक उपदेश प्राय: इसी प्रसंग पर होते रहे हैं कि जो भी शासकीय वुस्री पर बैठकर भ्रष्टाचार करे उसे जेल में डालो। यही नहीं उन्होंने तो यहां तक नैतिकता झाड़ी थी कि यदि शासकीय वुस्री पर बैठकर वह भी भ्रष्टाचार करें तो उन्हें भी जेल में डाल दिया जाना चाहिए। अभी तो एक दशक भी नहीं बीते केजरीवाल के नैतिक मानदंड में इतना बदलाव आना आश्चर्यं की बात है।
लब्बोलुआब यह है कि यदि चुनाव प्रचार के लिए आरोपी को जमानत मिलती है तो फिर यह सुविधा तो हेमंत सोरेन और के. कविता को भी मिलनी चाहिए क्योंकि ये दोनों भी जन प्रतिनिधि हैं। इतना ही नहीं जब कभी चुनाव होंगे तो चुनाव प्रव्रिया शुरू होने के पहले और चुनाव प्रव्रिया संपन्न होने तक किसी राजनेता को किसी एजेंसी द्वारा गिरफ्तार करने की हिम्मत नहीं पड़ेगी। ऐसा इसलिए कि चुनाव प्रचार के लिए जमानत की अर्जी पर तत्काल राहत तो नहीं मिली है लेकिन जिस तरह का यह मामला है उसके दूरगामी परिणाम होंगे। इसलिए लोगों की भी निगाहें कोर्ट के पैसले की तरफ लगी हुईं है। अब न्यायपालिका को अब यह ध्यान रखना होगा कि उस पर दोहरे मानदंड पर अपनाने के लिए अंगुली न उठे।