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आसान नहीं है 'वन नेशन वन पोल' की राह
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आदित्य नरेंद्र
पिछले दिनों जब चुनाव आयोग ने कहा कि वह सितम्बर 2018 के बाद कभी भी पूरे देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ करवा सकता है तभी से पूरे देश में यह बहस लगातार चल रही है कि क्या संविधान को देखते हुए वन नेशन वन पोल की अवधारणा इस देश में कामयाब हो सकेगी। कहीं इससे छोटे राजनीतिक दलों के सफाये का रास्ता तो तैयार नहीं हो जाएगा।
दरअसल यह बहस पिछले कई दशकों से रह-रहकर चलती रही है। हमारा संविधान ब्रिटिश मॉडल पर आधारित है जिसके अनुसार कोई भी राजनीतिक दल या व्यक्ति बहुमत होने तक ही सत्ता में रह सकता है। इसके उलट अमेरिकन व्यवस्था में चुनाव जीतने वाले को शासन चलाने के लिए चार साल मिलते हैं।
आजादी के बाद 1952 से 1967 तक केंद्र और राज्यों में कांग्रेस एक बड़ी राजनीतिक ताकत के रूप में मौजूद थी। ऐसे में केंद्र और राज्यों में चुनाव साथ-साथ होते रहे। बाद में जब दूसरे राजनीतिक दल सत्ता में आए तो उनके सामने एक बड़ी चुनौती लगातार पांच साल तक सत्ता में बने रहने की थी। पिछले 50 सालों में हमने देखा है कि केंद्र और राज्यों की कई सरकारें अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाईं और गिर गईं। ऐसे माहौल में पूरे देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने के मुद्दे पर इसके पक्षधरों और विरोधियों के अपने-अपने तर्क हैं। जहां इसके समर्थक कहते हैं कि इससे चुनाव कराने के खर्च में लगभग 50 फीसदी तक की कमी आएगी वहीं देश में विकास को भी रफ्तार मिलेगी। अभी कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं। ऐसे में सांसदों और विधायकों का ध्यान अपने कार्य या क्षेत्र से हटकर चुनावों की ओर चला जाता है। चुनावों के चलते विकास कार्यों के बाधित होने की बात भी कही जाती है। वहीं इस व्यवस्था के विरोधियों का तर्क है कि इससे केंद्र की सरकार को फायदा होने की उम्मीद ज्यादा होगी। जहां पर राष्ट्रपति शासन होगा वहां तो चुनाव कब होने चाहिए इसका फैसला केंद्र सरकार पर निर्भर होगा लेकिन जिस प्रदेश में कोई सरकार बहुमत के साथ शासन चला रही हो और उसका कार्यकाल छह माह से ज्यादा बाकी हो वहां पर संवैधानिक समस्या पैदा हो सकती है जिससे निपटना आसान नहीं होगा। चलिए, यह मान भी लिया जाए कि सारे देश में एक साथ लोकसभा और विधानसभा के चुनाव करा दिए जाएंगे लेकिन यदि किसी राज्य में किसी भी दल या गठबंधन को बहुमत नहीं मिला या साल-दो साल बाद वहां दोबारा चुनाव कराने की नौबत आ पड़ी तो उस स्थिति से कैसे निपटा जाएगा। जब कोई भी दल या गठबंधन जनादेश लेकर पांच साल के लिए सत्ता में आया हो तो आप उससे पहले चुनाव कराने के लिए कैसे कह सकते हैं।
स्पष्ट है कि ऐसे में लोकसभा-विधानसभा चुनाव एक साथ कराने का समर्थन करने वालों के सामने राजनीतिक चुनौती तो होगी ही संवैधानिक पेचों से भी उन्हें निपटना होगा। भारत में राजनीतिक दलों की संरचना तीन तरह की है। यह दल मुख्य रूप से विचारधारा, क्षेत्र और भाषा पर आधारित हैं। सिर्फ दो बड़े दलों भाजपा और कांग्रेस को ही आप राष्ट्रीय दल कह सकते हैं। बाकी सभी दल किसी न किसी क्षेत्र तक ही सीमित हैं।
इन दलों को यह आशंका तो सताएगी ही कि यदि एक साथ चुनाव हुए और लोगों ने दोनों सदनों के लिए किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर बड़ी पार्टियों को वोट दे दिया तो कहीं उनको राजनीतिक नुकसान न हो जाए। हालांकि ऐसे छोटे दलों को राजनीतिक चन्दा कम मिलता है जिससे उनके पास चुनाव खर्च के लिए फंड भी कम ही होता है। यदि एक साथ चुनाव हों तो कम खर्च में भी उनका काम चल जाएगा लेकिन यदि पासा उलटा पड़ गया तो क्या होगा। एक साथ चुनाव कराने में समर्थकों के लिए इन छोटे राजनीतिक दलों को अपने पक्ष में तैयार करना भी एक टेढ़ी खीर है। राजनीतिक विश्लेषक भी इसका अंदाजा लगाने में जुटे हैं कि यदि वन नेशन वन पोल की अवधारणा पर चुनाव होंगे तो इससे राजनीति में क्या-क्या बदलाव आ सकता है। क्या एक साथ चुनाव होने से देश में लोकतंत्र मजबूत होगा। देश के संघीय ढांचे को कोई नुकसान तो नहीं होगा। वन नेशन वन पोल की बात करके कहीं हम धीरे-धीरे अमेरिकन चुनाव प्रणाली की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं। वैसे भी भाजपा के कई नेता गाहे-बगाहे राष्ट्रपति प्रणाली की वकालत करते रहे हैं।
अगले साल छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड और त्रिपुरा में विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में बड़ा सवाल है कि क्या केंद्र सरकार वन नेशन वन पोल की तरफ कदम बढ़ाते हुए समय से पहले लोकसभा के चुनाव भी इन राज्यों के साथ कराना चाहेगी या फिर यह बहस एक टेस्टिंग बैलून की तरह साबित होगी। कांग्रेस सहित कई राजनीतिक दल इस मामले में फिलहाल चुप्पी साधे हुए हैं। ऐसे में बड़ा सवाल है कि क्या वन नेशन वन पोल की राह आसान होगी। उम्मीद है कि आने वाले कुछ महीनों में शायद इसका जवाब मिल सकता है।
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