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ईवीएम राग

👤 Veer Arjun Desk 3 | Updated on:18 March 2018 6:50 PM GMT
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कांग्रेस ने शनिवार को पार्टी महाधिवेशन में पारित राजनीतिक पस्ताव में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) के बजाय बैलेट पेपर से चुनाव कराने को कहा है। राहुल गांधी के नेतृत्व ने ईवीएम का मुद्दा दो कारणों से उठाया है। पहला यह कि उन पार्टियों के साथ एकजुटता दिखाई जा सके जिन्होंने ईवीएम में गड़बड़ी को ही अपनी हार का कारण बताया और दूसरा यह कि कांग्रेस चुनाव में हारी नहीं बल्कि उसे हराया गया है।
दरअसल किसी भी अवसर या मंच का सही तरीके से इस्तेमाल करने का अवसर कैसे खोया जाता है यह राहुल गांधी अच्छी तरह से जानते हैं। देश की सबसे पुरानी पार्टी वैज्ञानिक युग में आगे जाने के बजाय पीछे जाने की बात करे जिसने खुद वैज्ञानिक पगति की वकालत की हो और खासकर ईवीएम की तारीफ सुपीम कोर्ट में कर चुकी है, इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है। क्षेत्रीय दलों की हां में हां मिलाने के उद्देश्य से ईवीएम का विरोध करने वाली कांगेस ने 2013 में सुपीम कोर्ट में जमकर ईवीएम की तारीफ की थी। यही नहीं 2004 से 2014 तक कांग्रेस को यह मशीन अच्छी लग रही थी किन्तु इसके बाद जब वोट मिलना कम हो गए तो ईवीएम पर आरोप लगना शुरू हो गया। 2013 में सुपीम कोर्ट ने ईवीएम को सही मानते हुए वीवीपैट मशीन लगाने के लिए चुनाव आयोग को इसलिए सलाह दी थी ताकि लोगों को आरोप लगाने का अवसर न मिले। इसके पहले 2009 में भी जब ईवीएम के खिलाफ आवाज उठी थी तो चुनाव आयोग ने सभी राजनीतिक दलों से कहा था कि वे ईवीएम को हैक करके दिखाएं किन्तु कोई भी पार्टी सामने नहीं आई। फिर 2017 में उत्तर पदेश विधानसभा चुनाव में हारने के बाद बसपा नेता मायावती और दिल्ली नगर निगम चुनावों में हारने के बाद आम आदमी पार्टी के नेताओं ने ईवीएम के हैकिंग का मुद्दा उठाया किन्तु जब चुनाव आयोग ने सभी दलों के नेताओं को बुलाकर ईवीएम को हैक करके दिखाने की चुनौती दी तो फिर सभी पार्टियों ने चुप्पी साध ली। यही नहीं अगस्त 2017 में सुपीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से ईवीएम में हैकिंग की संभावना पर उसका पक्ष सुना और पक्ष सुनने के बाद सुपीम कोर्ट ने चुनाव आयोग के तर्कों से सहमति जताई थी।
असल में मुश्किल यह है कि भाजपा विरोधी पार्टियां आज कल उसकी हर जीत को उसी तरह शक की नजर से देखती हैं जैसे कि कभी कांग्रेस विरोधी पार्टियां कांग्रेस की हर जीत को शक की नजर से देखती थीं।
1971 में हुए पांचवें लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी की अगुवाई में जब कांग्रेस को 352 सीटें मिलीं तो तत्कालीन भारतीय जनसंघ के नेता डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी एवं बलराज मधोक ने आरोप लगाया था कि बैलेट पेपर में गड़बड़ी की गई। उन्होंने जो आरोप लगाया उसके पीछे तर्प दिया कि बैलेट पेपर पर कांगेस के तत्कालीन चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी पर तो पहले ही मुहर लगी हुई थी। बाकी के चुनाव चिन्ह पर मुहर लग तो जाती थी किन्तु कागज इस तरह के थे कि स्याही कुछ घंटों बाद मिट जाती थी। इसलिए दो बैलों की जोड़ी का ही बैलेट पेपर गिना जा सकता था।
पो. मधोक और डॉ. स्वामी के इन तर्कों पर कांग्रेस ने सफाई देना भी उचित नहीं समझा बल्कि लोगों ने खिल्ली उड़ाई। भारतीय जनसंघ के ही शीर्ष नेताओं ने इस तरह के आरोप को गंभीरता से नहीं लिया। यहां तक किसी ने सार्वजनिक रूप से बैलेट पेपर में गड़बड़ी पर कोई पतिकिया तक नहीं दी बल्कि यही कहते थे कि पो. मधोक और डॉ. स्वामी से पूछें।
सच तो यह है कि 1971 तक सभी पार्टियां मिलकर भी कांग्रेस को नही हरा पाती थीं क्योंकि कांग्रेस अकेले ही 55 से 60 पतिशत वोट हासिल कर लेती थी और दूसरी पार्टियां मिलकर भी लड़ती थी तो 30 पतिशत वोट हासिल कर पाना मुश्किल हो जाता था। अब जब कि भाजपा के वोट बढ़ गए तो विरोधी पार्टियां ईवीएम में गड़बड़ी का आरोप लगा रही हैं।
जहां तक बैलेट पेपर से चुनाव करने का पस्ताव कांग्रेस ने किया है, इस संदर्भ में एक सवाल का जवाब तो कांग्रेस से पूछा ही जाएगा कि 2004 में सत्ता में आने के बाद उसने बैलेट से चुनाव कराने की पकिया क्यों नहीं शुरू की? क्या 2004 में विपक्ष में रहते उसे ईवीएम में गड़बड़ी का फायदा हुआ था? या फिर 2009 और 2014 में कांग्रेस को पता नहीं था कि ईवीएम में गड़बड़ी संभव है? कांग्रेस को पता है कि बैलेट पेपर से चुनाव की पकिया रोकने का एक मात्र कारण था कि बैलेट बाक्सों की लूट और बैलेट पेपरों की गणना में गोलमाल। पता चलता था कि वोटो की गिनती में जीतता कोई था और ऐलान किसी और के नाम का होता था। कांग्रेस से यह सवाल पूछा जा सकता है कि क्या कांग्रेस वही दिन दोबारा देखना चाहती है जब बूथों पर कब्जे और बैलेट बाक्सों की लूट मचे? क्या वह यह चाहती है कि बैलेट मतों की गणना में जीते कोई और डीएम सर्टीफिकेट दे किसी और पत्याशी को?
लब्बोलुआब यह है कि ईवीएम का इस तरह विरोध करना व्यावहारिक राजनीति से बिल्कुल विपरीत है। चुनावों में साधन और तरीकों के नियमन एवं सुधार का दायित्व संवैधानिक संस्थाओं पर है। यदि इन संस्थाओं के खिलाफ कदम सिर्प सियासी शरारत के उद्देश्य से उठाए जाएंगे तो लोकतंत्र के लिए घातक हो सकता है। राहुल गांधी इस अवसर का बेहतर तरीके से उपयोग कर सकते थे किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्हें शिक्षा, रोजगार, राष्ट्रीय विकास से जुड़े तमाम मुद्दों पर देश एवं अपनी पार्टी जनों को नई दिशा दिखाने का अवसर मिला था किन्तु उन्होंने चुना एक ऐसे मुद्दे को जिस पर सारे आरोप निराधार साबित हो चुके हैं। देश में सशक्त विपक्ष की अत्यधिक जरूरत है लेकिन इसके लिए जरूरी है कि कांग्रेस मजबूत हो। इसके लिए कांगेस को जनजीवन से जुड़े मुद्दों पर संगठन को दिशा देने की जरूरत है तथा जरूरत है संगठन को अधिक सकिय करने की। ईवीएम राग अलापने का मतलब है कि राहुल यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि कांग्रेस कमजोर हुई है।


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