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कर्नाटक का पेंच

👤 Veer Arjun Desk 4 | Updated on:17 May 2018 6:47 PM GMT
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कर्नाटक में सरकार बनाने की लड़ाई राजभवन से पहले ही सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गई किन्तु सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के विवेकाधीन अधिकार के तहत लिए गए फैसले का सम्मान करते हुए बृहस्पतिवार को नौ बजे होने वाले भाजपा विधायक दल के नेता बीएस येदियुरप्पा के शपथ ग्रहण पर रोक नहीं लगाई।
उल्लेखनीय है कि 16 मई को देर शाम को राज्यपाल ने बीएस येदियुरप्पा को अगले दिन नौ बजे शपथ ग्रहण के लिए आमंत्रित किया तो कांग्रेस और जेडीएस ने सुप्रीम कोर्ट में आवेदन करके राज्यपाल के फैसले पर रोक लगाने की मांग कर दी। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने जस्टिस एके सीकरी की अध्यक्षता में तीन जजों की पीठ गठित करके सुनवाई का निर्देश दिया। रात में ही पीठ ने सुनवाई शुरू कर दी। दोनों पक्षों को सुनने के बाद अंतत सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के फैसले में दखल देने से इंकार कर दिया और सुबह नौ बजे पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के मुताबिक शपथ ग्रहण समारोह सम्पन्न भी हो गया।
कांग्रेस और जेडीएस के वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने बेंच से कहा कि कोर्ट या तो राज्यपाल के उस आदेश को असंवैधानिक बताकर रद्द कर दे जिसमें येदियुरप्पा को सरकार बनाने का न्यौता दिया गया है या फिर 112 विधायकों से ज्यादा के समर्थन वाले कांग्रेस और जेडीएस के गठबंधन को न्यौता देने का निर्देश पारित करें। कोर्ट ने सिंघवी से पूछा कि क्या यह प्रथा नहीं रही कि राज्यपाल सबसे बड़ी पार्टी को ही बहुमत साबित करने का न्यौता देता हो? सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि क्या सुप्रीम कोर्ट राज्यपाल को किसी पार्टी को सरकार बनाने का न्यौता देने से रोक सकता है? कोर्ट ने स्पष्ट किया कि केंद्र एवं राज्यों से संबंध पर आधारित सरकारिया आयोग की रिपोर्ट में है कि राज्यपाल को सबसे बड़े दल को ही पहले सरकार बनाने के लिए बुलाया जाना चाहिए। कोर्ट ने यह भी कहा कि सरकारिया आयोग के मुताबिक चुनाव पूर्व ही जो पार्टियां गठबंधन करती हैं उनके सदस्यों की संख्या ज्यादा हो तो उसे सरकार बनाने के लिए पहले बुलाया जा सकता है।
सवाल यह है कि यदि राज्यपाल ने सबसे बड़े दल को शपथ दिलाने का फैसला भी कर लिया तो कौन-सा आसमान टूट गया? क्या ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था? क्या सबसे बड़े दल को पहले शपथ दिलाने के सिद्धांत के समर्थन में कांग्रेस ने इसके पूर्व राष्ट्रपति भवन और संसद में अपने पक्ष नहीं रखे हैं? कांग्रेस गोवा और मणिपुर का उदाहरण देती है। किन्तु इन दोनों ही चुनावों के बाद वह न तो किसी सहयोगी पार्टी को समर्थन देने या उससे लेने के लिए सहमत कर पाई थी। सबसे बड़ी बात तो यह है कि उक्त दोनों ही चुनावों के बाद भाजपा ने सहयोगी दलों के साथ राज्यपाल से मिलकर सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया था जबकि कांग्रेस ने दोनों ही राज्यों के राज्यपाल से मिलकर दावा ही नहीं पेश किया। जब राज्यपाल द्वारा भाजपा के विधायक दल के नेता को शपथ दिलाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट गए तब तक सरकार का गठन हो चुका था और दोनों ही राज्यों में स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता था। दोनों ही राज्यों में राज्यपाल के विवेकाधीन अधिकारों का सुप्रीम कोर्ट ने भी सम्मान किया।
राज्यपालों को संविधान अनुच्छेद 163 में विवेकाधीन अधिकार दिए गए हैं। अनुच्छेद 163(2) में तो यहां तक कहा गया है कि राज्यपाल के विवेकाधीन पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। इन्हीं विवेकाधीन अधिकारों का इस्तेमाल वह ऐसी स्थिति में करते हैं जबकि संविधान में कुछ भी उल्लेख नहीं होता। सुप्रीम कोर्ट बीच-बीच में राज्यपालों को परामर्श जरूर देता रहता है ताकि उनके किसी भी फैसले पर अंगुली न उठे।
असल में राज्यों में सरकारों के गठन से संबंधित एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ केस मील का पत्थर साबित हुआ है। 1994 में कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एसआर बोम्मई द्वारा भारत सरकार के खिलाफ दायर एक मामले में जस्टिस कुलदीप सिंह की अध्यक्षता में सात जजों की एक पीठ ने फैसला दिया था कि बहुमत का फैसला विधानसभा के फर्श पर ही हो सकता है। इस फैसले का महत्व इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि संबंधित पक्षों की सूची में कुछ विधायकों के नाम दोनों की सूची में पाए जाते हैं। यही नहीं, हस्ताक्षर को भी विधायक झूठा बता देते हैं। किन्तु विधानसभा के अंदर तो इस तरह की धांधली की संभावना बिल्कुल नहीं रह जाती। मजे की बात तो यह है कि 1996 में जब केंद्र में एचडी देवेगौड़ा की सरकार थी तो गुजरात में सुरेश भाई मेहता मुख्यमंत्री थे। शंकर सिंह वाघेला ने अपने समर्थकों के साथ भाजपा छोड़कर कांग्रेस से हाथ मिला लिया। तत्कालीन राज्यपाल कृष्णपाल ने मुख्यमंत्री सुरेश मेहता को बहुमत साबित करने का निर्देश दिया। सुरेश भाई मेहता ने बहुमत साबित भी कर दिया किन्तु चूंकि जिस वक्त वोटों की गणना चल रही थी उस वक्त कांग्रेस और शंकर सिंह वाघेला के लोगों को सदन में हिंसा फैलाने के आरोप में निलंबित कर दिया गया था। राज्यपाल कृष्णपाल सिंह ने दोबारा बहुमत साबित करने के लिए समय निर्धारण के बजाय विधानसभा भंग करने के लिए सरकार से अनुरोध कर दिया और तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने विधानसभा विघटित कर दिया।
बहरहाल सवाल फिर वही है कि यदि राज्यपाल ने कांग्रेस और जेडीएस के विधायकों की संख्या ज्यादा मानने की बजाय अकेले सबसे ज्यादा सदस्यों वाली पार्टी के नेता को शपथ दिलाई तो इसका एक महत्वपूर्ण कारण है कि उन्होंने संविधान हासिल अपने विवेकाधीन अधिकारों का प्रयोग किया है। राज्यपाल को संविधान निर्माताओं ने यह अधिकार इसीलिए दिया है ताकि राज्यपाल को जब विश्वास हो जाए कि राज्य में स्थायी सरकार बनाने में सबसे बड़ा दल सफल होगा तो वह अकेली सबसे बड़ी पार्टी को शपथ दिलाने का फैसला करता है। प्राय होता यह है कि जब भी कोई बड़ी पार्टी किसी छोटी पार्टी को समर्थन करती है तो इसका मतलब स्पष्ट होता है कि ऐसा तात्कालिक उद्देश्य से किया जाता है और ऐसी सरकारें स्थिर नहीं होतीं।
असल में कांग्रेस ने भाजपा को आइना दिखाते हुए जेडीएस के साथ चुनावों के बाद समझौता करके सरकार बनाने का दावा पेश किया है जैसा कि भाजपा ने पहले ही कुछ राज्यों में किया है। किन्तु अब भाजपा को वह थ्यौरी सुविधाजनक लग रही है जो पहले कांग्रेस के लिए सुविधाजनक थी। दोनों ही स्थितियों में राज्यपाल की भूमिका अहम रही है और ऐसा सिर्प इसलिए है कि राज्यपाल को जो विवेकाधीन अधिकार संविधान निर्मात्री सभा ने दिया है वह आज भी मौजूद हैं। संविधान में तमाम संशोधन हो चुके हैं कांग्रेस अथवा भाजपा दोनों में से किसी ने या दोनों ने आज तक इस बात पर विचार नहीं किया कि राज्यपाल के विवेकाधीन अधिकारों का संहिताकरण कर देना चाहिए। केंद्र सरकार और सभी पार्टियां मिलकर यह क्यों नहीं तय कर लेतीं कि राज्यपाल को पहले सबसे बड़े दल या चुनाव के बाद किए गए गठबंधन के नेता को शपथ दिलानी है। सच तो यह है कि सभी पार्टियां राज्यपालों की उपयोगिता को अच्छी तरह समझती हैं इसीलिए उनके विवेकाधीन अधिकारों की रक्षा करती हैं। दूसरी तरफ जो पार्टियां विपक्ष में होती हैं वे राज्यपाल की इसी शक्ति का विरोध करती हैं। किन्तु जब एक समस्या आकर चली जाती है तब सभी पार्टियां शांत हो जाती हैं। अब कांग्रेस और जेडीएस को सदन में बीएस येदियुरप्पा द्वारा विश्वास मत हासिल करने की तिथि की प्रतीक्षा करनी चाहिए। राज्यपाल के खिलाफ मर्यादित भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए। उनके सामने अदालत का विकल्प था इसीलिए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में आवेदन किया किन्तु सच उन्हें भी पता था कि किसी भी संवैधानिक संस्था के विशेषाधिकार में सुप्रीम कोर्ट हस्तक्षेप नहीं कर सकता। उम्मीद की जा सकती है कि राज्यपाल ने बहुमत साबित करने के लिए मुख्यमंत्री को जो 15 दिन का समय दिया उसमें सुप्रीम कोर्ट कटौती करके कम कर सकता है।

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