उत्तराखंड में सरकारें उलटने- पलटने का इतिहास रहा है
—अनिल नरेन्द्र
उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है। अब तक सूबे में सत्ता पर बारी-बारी से काबिज होने वाली भाजपा और कांग्रोस चुनावी मैदान में फिर आमने-सामने हैं। उत्तराखंड का चुनावी इतिहास बताता है कि प्रादेश की जनता सत्ता की रोटी को चुनावी तवे पर उलटती-पलटती रही है कि रोटी जल न जाए। सूबे का चुनावी इतिहास बताता है कि प्रादेश में सत्ता विरोधी लहर ही विरोधी को सत्ता की सीढ़ी पर खड़ा कर देती है। 2002 से पहले और 2017 के विधानसभा चुनाव को छोड़ दें तो भाजपा और कांग्रोस को कभी स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। दोनों दलों ने जोड़तोड़ से सरकार बनाईं।
2007 में भाजपा ने उक्रांद व निर्दलीयों से मिलकर, तो 2012 में कांग्रोस ने बसपा व निर्दलीयों की मदद से सरकार बनाईं। 2012 में, अभी सूबे में प्राचंड बहुमत की भाजपा सरकार काबिज है और वह उत्तराखंड में हर पांच साल में सत्ता परिवर्तन के मिथक को तोड़ने की कोशिश में अबकी बार 60 पार का नारा दे रही है तो वहीं कांग्रोस सत्ता विरोधी लहर के घोड़े पर सवार होकर सत्ता में वापसी की उम्मीद पाले हुए है। सूबे में उक्रांद व बसपा ने भी सत्ता में भागीदारी की है लेकिन इस बार आम आदमी पाटा (आप) भी पूरे दमखम से चुनावी मैदान में है। यह बात और है कि वह लोकसभा चुनाव में कुछ खास नहीं कर पाईं थी। वहीं बसपा, सपा, यूकेडी व वामदलों का जनाधार लगातार खिसकता रहा है। देखना अबकी बार यह है कि क्या हर पांच साल में परिवर्तन का जो दौर भाजपा ने तोड़ा था वह उसे फिर से दोहरा सकती है। कांग्रोस को भी उम्मीद है कि वह इस बार बाजी मार लेगी। वहीं आम आदमी पार्टी भी छाती ठोककर दावा कर रही है कि अबकी बार हम सरकार बनाएंगे। देखें, ऊंट किस करवट बैठता है।