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राष्ट्र को सुदृढ़ करने के लिए हिंदी को जरूरी मानते थे गांधीजी

👤 admin6 | Updated on:21 May 2017 6:48 PM GMT

राष्ट्र को सुदृढ़ करने के लिए हिंदी को जरूरी मानते थे गांधीजी

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भारत के समस्त मजदूरों में भाईचारा हो, उत्तर और दक्षिण में मेल हो, इसके लिए एक भाषा के रूप में हिंदी की अपरिहार्यता को गांधी जी ने निर्भीक स्वर में रखा। यह बात सिर्फ आर्थिक आधार पर विश्व के मजदूरों को एक होने की बात करने वाली मार्क्सवादी अवधारणा के आलोक में अटपटी लग सकती है, किंतु हर देश की कुछ अपनी विशिष्ट समस्याएं होती हैं। बहुभाषा-भाषी भारत जैसे देश में जहां जनता, चाहे श्रमजीवी हो या बुद्धिजीवी, विभिन्न भाषा-समूहों में बंटी हुई हो, वहां किसी भी सामान्य लक्ष्य के लिए किये जाने वाले संघर्ष में एक भाषा के सूत्र में उन्हें संगठित करना एक फौरी तकाजा तो था ही, भविष्य के लिए भी राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए आवश्यक था। इसलिए भी गांधी जी उत्तर और दक्षिण के बीच मेल के लिए लगातार हिंदी सीखने पर जोर देते रहे।

जब 1937 में उनके बहुत बड़े सहयोगी राजगोपालाचारी ने मुख्यमंत्री के रूप में मद्रास प्रान्त के स्कूलों में हिंदी की पढ़ाई अनिवार्य कर दी और जब उसका 'मातृभाषा खतरे में' के नाम पर कुछेक तमिलभाषियों द्वारा विरोध किया गया, तब गांधी जी ने राजा जी का पक्ष लेते हुए 10-09-1938 के 'हरिजन' में लिखा, 'हमने बार-बार घोषणा की है कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा या प्रांतों के आपसी व्यवहार की सामान्य भाषा है या होनी है। यदि हमारी इस घोषणा के पीछे ईमानदारी है, तो हिंदी के ज्ञान को अनिवार्य बनाने में बुराई कहां है? 'मातृभाषा खतरे में है' यह नारा तो अज्ञान रूप है या एक पाखंड है और जहां इसके पीछे ईमानदारी है वहां भी उन लोगों की देशभक्ति के लिए अपवादमय चीज है।... यदि हमें अखिल भारतीय राष्ट्रीयता के धर्म तक पहुंचना है, तो प्रांतीयता के आवरण को भेदना होगा। भारत का देश और एक राष्ट्र है अथवा अनेक देश और अनेक राष्ट्र हैं? जो मानते हों कि यह एक देश है उन्हें राजा जी को अपना पूरा समर्थन देना चाहिए।'

इससे ऐसा नहीं समझना चाहिए कि गांधीजी प्रान्तीय भाषाओं के विरोधी थे। वे तो सभी प्रांतों में शिक्षा का माध्यम वहीं की भाषाओं को बनाने के पक्ष में शुरू से रहे, लेकिन जहां तक भारत को एक देश, एक राष्ट्र के रूप में सुदृढ़ करने का सवाल था, उसके लिए वे राष्ट्रभाषा के बतौर हिंदी के पक्ष में सभी को प्रान्तीयता के मोह से ऊपर उठना आवश्यक मानते एवं बताते रहे। यही कारण था कि उन्होंने राजा जी द्वारा मद्रास प्रांत में हिंदी की पढ़ाई अनिवार्य करने का खुलकर समर्थन किया और सभी से 'प्रान्तीयता के आवरण को भेदने' की अपील की। गांधी जी भारत के लिए जिस स्वराज्य को आवश्यक समझते थे, वह तभी संभव था जब राष्ट्रीयता का पूर्ण विकास हो और यह काम एक राष्ट्रभाषा को अपनाये बगैर हो नहीं सकता था। इस प्रकार गांधी जी स्वराज्य, राष्ट्रीयता और राष्ट्रभाषा तीनों को अंतग्रंथित करने वाले प्रथम शिल्पी थे।

यों तो गांधी जी द्वारा हिंदी प्रचार के कार्यों का इतना लम्बा अध्याय है कि उसे यहां पर समेट पाना संभव नहीं है, फिर भी यहां प्रस्तुत तथ्यों के आधार पर यह बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि हिंदी नवजागरण को उन्होंने पूरे देश में फैलाया- राष्ट्रभाषा हिंदी के लिए उन्होंने सम्प्रेषक की शानदार, बेमिसाल भूमिका का निर्वाह किया। एक वक्ता, प्रचारक, लेखक, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं राष्ट्रनेता आदि के समस्त रूपों में वे राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी के राष्ट्रव्यापी प्रचार में लगे रहे। हिंदी के लिए वे अपने जीवन-काल में एक महासंस्था स्वरूप हो गये। उनकी प्रेरणा से कितने लोगों ने हिंदी के प्रचार को अपने जीवन का 'मिशन' बना लिया। प्रसंगवश यह उल्लेखनीय है कि उनका हिंदी के लिए प्रचार-अभियान नाना विरोधों-विवादों से आक्रांत भी होता रहा। विस्तार में जाने का यहां अवकाश नहीं है, भारत में उन्हें उर्दू एवं फारसी लिपि-प्रेमियों के विरोध का सामना करना पड़ा, तो मद्रास प्रांत में अहिंदी भाषियों के विरोध का। 1936 के बाद मजबूर होकर गांधी जी को हिंदी की बजाय 'हिंदुस्तानी' शब्द को राष्ट्रभाषा के लिए अपनाना पड़ा और इस विषय पर 'प्रयाग हिंदी साहित्य सम्मेलन' से उनके मतभेद इतने बढ़े कि उन्होंने जुलाई, 1945 में सम्मेलन की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया और फिर 'हिंदुस्तानी प्रचार-सभा' का गठन कर उसके तहत काम किया, लेकिन इससे पूर्व सत्ताईस वर्षों तक 'हिंदी साहित्य सम्मेलन' का सदस्य रहकर दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के संस्थापक-संचालक रहकर उन्होंने हिंदी प्रचार को राष्ट्रव्यापी विस्तार देने में अग्रणी भूमिका निभायी। राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी के पक्ष में राष्ट्रीय स्तर पर जनमत बनाने, मानसिकता तैयार करने में उनकी अतुलनीय भूमिका रही। उत्तरी भारत में उभरे हिंदी नवजागरण को राष्ट्रीय जागरण में परिणत करने का श्रेय गांधीजी को ही देना होगा। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हमें 'हिंदी नवजागरण' से आगे बढ़कर 'हिंदी के राष्ट्रीय जागरण' की बात करनी चाहिए, तभी हम हिंदी के लिए गांधीजी द्वारा किये गये कार्यों के साथ न्याय कर सकेंगे।

एक और बात की तरफ ध्यान देना वाजिब है जो हिंदी पहले कुरू जनपद (दिल्ली से मेरठ के बीच का क्षेत्र) की बोली थी और जिसके अंतर्गत बाद में उत्तर प्रदेश, बिहार आदि के क्षेत्र समझे जाने लगे, जिसके आधार पर एक 'हिंदी जाति' की बात की जाने लगी है, उस हिंदी का पूरे देश में प्रचार कर गांधीजी एवं उनके सहयोगियों ने उसे प्रांतीय भाषा के दर्जें से ऊपर उठाया, उसमें राष्ट्रीयता की अंतर्वस्तु का समावेश किया। अतएव 'हिंदी जाति' की बात करना राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में सही नहीं लगता। हिंदी की कोई जाति है तो सम्पूर्ण भारतीयता ही उसकी जाति है, क्योंकि उस पर 'राष्ट्रवाणी' होने का दायित्व सौंपा जा चुका है। गुजराती, मराठी, बंगाली जाति का बात करना उन प्रांतीय भाषाओं की दृष्टि से सही हो सकता है, लेकिन गांधी जी जैसे हिंदी-सेवियों के कार्यों को देखते हुए 'हिंदी भाषा प्रदेश' जैसी कथित धारणा के आधार पर 'हिंदी जाति' की अवधारणा प्रस्तुत करना हिंदी के दायरे से उन सभी हिंदी-सेवियों को अलग करना, विजातीय बनाना होगा, जिन्होंने गुजरात, महाराष्ट्र, आंध प्रदेश, तमिलनाडु आदि प्रदेशों के होते हुए हिंदी के प्रचार-प्रसार में बहुमूल्य अवदान दिया और अब भी दे रहे हैं। 'हिंदी जाति' की बात करने से राष्ट्रव्यापी हिंदी का दायरा संकुचित होता है, एक समुद्र को नदी जैसा बनाना होता है और इसके परिणामस्वरूप अन्य भाषा-भाषियों में हिंदी के प्रति परायेपन का बोध होता है, इस बात को हमें ध्यान में रखना चाहिए।

श्री भगवान सिंह

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