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पूर्ण वैज्ञानिक है भारतीय कालगणना

👤 mukesh | Updated on:8 April 2024 8:36 PM GMT

पूर्ण वैज्ञानिक है भारतीय कालगणना

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- कृष्णप्रभाकर उपाध्याय

भारतीय नववर्ष का आरम्भ 09 अप्रैल को हो रहा है। सम्राट विक्रमादित्य द्वारा शक्-विजय की स्मृति में आरम्भ संवत अपने 2080 वर्ष व्यतीत कर 2081वें वर्ष में प्रवेश करेगा। प्रायः आधुनिक कहलाने वाले अंगरेजीदां लोगों के मध्य यह प्रश्न उठता है कि हमारी भारतीय गणना कितनी सटीक, सही व वैज्ञानिक है? सच यह है कि अंग्रेजी शासन के चलते आज विश्व में मानक बनी ईसवी कालगणना न तो वैज्ञानिक है, न ही काल के वास्तविक समय से मेल खाने वाली। इसका प्रकृति से तो दूर का भी संबंध नहीं है। इस कालगणना का एक मात्र आधार पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा में लगने वाला समय है। किन्तु यह भी इतना अपूर्ण है कि विश्व को प्रायः अपनी घड़ियां आगे-पीछे करते रहनी पड़ती हैं। इसके विपरीत भारतीय कालगणना में सृष्टि के प्रारम्भ से अब तक 100वें भाग का भी अंतर नहीं आया है।

सामान्यतः गणनाकारों द्वारा कालगणना करते समय पृथ्वी के अपनी धुरी पर संचरण की अवधि को दिवस; चंद्रमा के पृथ्वी की परिक्रमा की अवधि को मास तथा; पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा करने की अवधि को वर्ष मान काल के मान निर्धारित किये हैं। किन्तु यह मान काल अनुमान भले ही कर लें, काल का शुद्ध मान ज्ञात करने में सर्वथा असमर्थ हैं। कारण, पृथ्वी की सूर्य की परिक्रमा का काल 365.25 दिवस है। चन्द्रमा की पृथ्वी की परिक्रमा का काल भी 28 से 30 दिवस है। दूसरे पृथ्वी की संगति कर सूर्य की भी परिक्रमा कर रहे चंद्रमा का अपना परिपथ भी समरेखीय नहीं। यही कारण है कि गणनाकारों को इसके परिपथ का विचारण करते समय तिथिवृद्धि या तिथिलोप करते रहना पड़ता है। इसके अलावा पृथ्वी के अपने अंश पर 27 अंश झुके होने के कारण यहां भी सदैव दिन-रात समान नहीं रहते।

ऐसे में काल का शुद्ध मान ज्ञात करने के लिए किसी एक पद्धति के स्थान पर भारतीय गणनाकार- सौरगणना, चन्द्रगणना, सप्तर्षि कालमान आदि अनेक पद्धतियों का सहारा लेकर काल का शुद्ध मान निकालते हैं। यह दुरूह तो है, किन्तु है इतना सटीक कि आज तक इसमें निमिष भर का अंतर भी नहीं आया। दूसरी ओर ईसवी कालगणना मूलतः उस जूलियन कलेंडर का परिवर्तित परिवर्धित रूप है जिसे रोमन सम्राट जूलियस सीजर ने लागू किया था। 45 ई0पू0 से लागू हुआ यह कलेंडर आरम्भ में 8 दिन के सप्ताहवाला था। इसमें एक वर्ष 304 दिन का 10 महीनोंवाला था। (चोंकानेवाला तथ्य यह भी कि इस दसमासी कलेंडर के 7वें माह का नाम सेप्टेंबर (सप्तअम्बर), आठवें का ओक्टोबर (अष्टअम्बर), नवें का नवम्बर (नवअम्बर) व दसवें का दिसम्बर (दसअम्बर) नाम था।) जूलियस सीजर ने इसमें अपने नाम से जुलाई तथा सीजर अगस्ट्स के नाम से अगस्त माह से जोड़ इसे 360 दिन का बना दिया।

1582 में कैथोलिक देशों का इस कलेंडर से परिचय होने के बाद अंततः 1739 में इंगलेंड ने स्वीकार किया और 1752 तक ब्रिटिश-अमेरिका आदि ब्रिटिश उपनिवेश में इसे स्वीकारा गया। अनेक विद्धान तो इसमें भी समय का 24 घंटा विभाजन भारतीय होराकाल (ढाई घड़ी का एक होरा माना जाता है) को ही इस कलेंडर में गृहीत हाॅवर/ऑवर मानते हैं। इसके विपरीत भारतीय गणनाकार पृथ्वी-सूर्य के परिक्रमा पथ के साथ-साथ पृथ्वी पर सीधा प्रभाव डालने वाले पृथ्वी-चंद्र परिपथ को दृष्टिगत रख, इसे 360 अंश में बांट इसका 27 नक्षत्रों में पुनः विभाजन कर तथा उसमें भी पल-विपल की बारीकियों को ध्यान रखने काल की गणना करते हैं। इस कालगणना को अवैज्ञानिक बताया जाना कालगणना का नहीं विज्ञान का अपमान करने के तुल्य है। लोगों की गलत सोचों के विपरीत भारतीय कालगणना अचूक व अत्यन्त सूक्ष्म रूप से की गयी कालगणना है। इसमें त्रुटि से लेकर प्रलय तक की गणना संभव है।

भारतीय कालगणना के लिए प्रयुक्त ‘सूर्य सिद्धान्त’ में काल के दो रूप बताए गये हैं। पहला अमूर्तकाल तथा दूसरा मूर्तकाल । दोनों कालों की गणना सूर्य सिद्धान्त में वर्णित विभिन्न पद्धतियों द्वारा काल की मूल इकाई त्रुटि से की जाती है जिसका आधुनिक मान 0.324 सेकेंड है। सूर्य सिद्धान्त के अनुसार पृथ्वी द्वारा सूर्य की की जानेवाली परिक्रमा की अवधि 365 दिन 15 घटी 31 पल 31 विपल व 24 प्रतिविपल है। इसे 365.25 दिन भी कह सकते हैं। इस परिपथ का विभाजन 27 नक्षत्र, 108 पाद में किया गया है। 9-9 पाद मिलकर 12 राशियां बनाते हैं। इसमें जिस कालखंड में सूर्य जिस राशि में रहता है वहीं उस समय का सौरमास होता है।

भारतीय कालगणना केवल सौर परिपथ की गणना कर ही संतुष्ट नहीं होती। वह चंद्रमा के पृथ्वी की परिक्रमा में लगनेवाले समय की भी गणना करता है। यह गणना भी सौरगणना की भांति 27 नक्षत्र, 108 पाद व 12 राशिचक्र में होती है। चंद्रवर्ष सौरवर्ष से 11 दिन 3 घटी 48 पल छोटा होता है। सौर गणना तथा चंद्र गणना में सामंजय बनाने के लिए 32 माह 16 दिन 4 घटी बाद एक चंद्रमास की वृद्धि की जाती है। यह अधिक मास कहलाता है। कालगणना में यह वृद्धि अकारण या सौरगणना से संगति बिठाने हेतु यूं ही नहीं की जातीं। वरन यह भी नक्षत्र संचरण के अनुसार होती हैं। इसके अलावा एक तीसरी गणना "सप्तर्षि संवत्" नाम से भी प्रचलित है। इसमें सप्तर्षि कहे जानेवाले नक्षत्रों के परिभ्रमण पथ के आधार पर गणना की जाती है। इसके अनुसार 27 नक्षत्रों के परिभ्रमण पथ पर सप्तर्षि प्रत्येक नक्षत्र पर 100-100 वर्ष रहकर 2700 सौरवर्ष (2718 चंद्रवर्ष) में एक परिभ्रमण चक्र पूरा करते हैं।

भारतीय पंचाग- तिथि, वार, नक्षत्र, योग व करण इन पांच अंगों का विवेचन करने के कारण कालगणना की इस विधा को पंचांग कहा जाता है। इनमें सूर्य व चन्द्र के मध्य का परिक्रमा मार्ग को 360 अंशों में विभाजित कर इसमें अमावस्या के अन्त पर सूर्य व चन्द्र को एक समान राशि अंश पर होने पर शीघ्र गतिमान चन्द्र से सूर्य का 12 अंशों का क्रमिक अंतर होने पर प्रतिपदा, 12 से 24 अंश के अंतर पर द्वितीया, 24-36 अंश के अंतर पर तृतीया...होते-होते 168 से 180 अंशान्तर पर पूर्णिमा को माना जाता है। पूर्णिमा के पश्चात गणना उलट जाती है। तब 180 से 168 अंश पर प्रतिपदा, 168-156 अंश के मध्य द्वितीया... आदि के बाद 12 से 0 अंशांतर पर अमावस्या होती है।

दूसरे, 12 बजे आधी रात को होने वाले अंग्रेजी तिथि परिवर्तन के विपरीत भारतीय पद्वति में सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय के मध्य का काल एक तिथि काल (पंचांग की भाषा में वार) माना जाता है। पीएन ओक सरीखे विद्वान तो अंगरेजों की आधी रात को तिथि परिवर्तन करने की परिपाटी को भी भारतीय गणना पद्वति का अनुकरण मानते हैं। आकाश को 360 अंशों में मान, भचक्र को 27 भागों में बांट, 13 अंश 20 कला अर्थात 800 कला का एक क्षेत्र एक नक्षत्र का क्षेत्र माना जाता है। आश्वनि से रेवती नक्षत्र तक 27 नक्षत्रों में बांटे गये इस चक्र में चंद्र जब जिस दिन व समय को जिस भाग में गति कर रहा होता है, वह उस नक्षत्र का काल होता है। गणना की बारीकी के लिए नक्षत्र को भी 4 चरणों में विभाजित किया गया है। एक चरण 3 अंश 20 कला का माना जाता है।

योग सूर्य व चंद्र गति में 13 अंश 20 कला का अंतर होने की स्थिति का नाम है। इसे कलांश भी कहा जाता है। यह भी नक्षत्र की भांति 27 हैं। जबकि तिथि का आधा भाग करण कहा जाता है। इन पांचों की गणना के उपरान्त आप स्वयं ही विचार कर सकते हैं कि भारतीय गणना कितनी वैज्ञानिक है। हां, विशुद्ध गणना करने के कारण थोड़ा जटिल अवश्य है। और संभवतः यही कारण है कि हम काल की जटिलता में पड़े बिना एक सरल पद्धति का सहारा लिए हुए हैं। भले ही वह कितनी ही अवैज्ञनिक, कितनी ही अमानक क्यों न हो।

इस सृष्टि का प्रारम्भ भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को हुआ माना जाता है। दूसरे शब्दों में कहें कि गणनाकारों ने सृष्टि के आरम्भ की तिथि का आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा रविवार से मान अपनी गणना की है। इस दिवस के प्रथम होरा का नामकरण राशिस्वामी सूर्य के नाम पर जबकि द्वितीय होरा का नामकरण राशि स्वामी चन्द्र के नाम पर कर दिवसों के नामकरण किये गये हैं। यही दिवसों के अन्य नामकरण (यथा- मंगल, बुध, गुरु, शुक्र व शनि) का भी आधार हैं। ईसवी सन् के दिवसों के संडे, मंडे.. आदि नाम अथवा विश्व के अन्य कलेंडरों में दिवसों के नाम भी भारतीय नामों की नकल (अनुकरण) मात्र हैं।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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