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समय की मांग है एक देश-एक चुनाव

👤 manish kumar | Updated on:6 Oct 2019 4:50 AM GMT

समय की मांग है एक देश-एक चुनाव

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समय की मांग है एक देश-एक चुनाव

आज सरकार के वन नेशन वन इलेक्शन के एजेंडे को जल्द से जल्द प्रभावी बनाने की दरकार है। समय की आवश्यकता भी यही है क्योंकि प्रायः लोकसभा और विधानसभा के चुनावों को एक साथ कराने का प्रस्ताव निश्चित ही राष्ट्र के विकास के पक्ष में है इसीलिए सरकार लगातार इस पर मंथन कर रही है। साथ ही अनेक राजनीतिक दलों ने भी अपना मत व्यक्त किया है क्योंकि देश का विकास तभी संभव होगा जब उन सभी बातों पर ध्यान दिया जाए जो विकास कार्यों में लूप होल का कार्य करते हैं। हालांकि वन नेशन वन इलेक्शन की बात कोई नई नहीं है क्योंकि वर्ष 1952, 1957, 1962 तथा 1967 में लोकसभा और राज्यों के विधानसभा के चुनाव साथ-साथ हो चुके हैं लेकिन वर्ष 1967 के बाद कई बार ऐसी घटनाएं सामने आईं, जिसमें लोकसभा और राज्य विधानसभा अलग-अलग समय पर भंग होती रही है। इसका प्रमुख कारण विश्वास मत खो देना तथा गठबंधन का टूट जाना, जैसे मामले होते रहे।

वन नेशन वन इलेक्शन आज अपरिहार्य है लेकिन इसके लिए संविधान में संशोधन करना होगा क्योंकि यह देखा गया है कि पूर्व में विधानसभाएं समय रहते ही भंग होती रही हैं। अतः जाहिर है कि कई राज्य विधानसभाओं काी समय सीमा भी कम करनी होगी और कई की समय सीमा बढ़ानी भी पड़ेगी। यही समस्या लोकसभा में भी हो सकता है। अतः इन तमाम मुश्किलों से निदान पाने के लिए अनुच्छेद 83, अनु.172 और अनु. 356 में संशोधन करना आवश्यक होगा। साथ ही लोक प्रतिनिधि कानून में भी बदलाव की दरकार होगी। वन नेशन वन इलेक्शन से अनेक फायदे तो है ही, बार-बार चुनावों में खर्च होने वाली धनराशि भी बचेगी, जिसका उपयोग शिक्षा, स्वास्थ्य और जल संकट निवारण जैसे दूसरे कार्यों पर किया जा सकेगा। कई देशों ने विकास को गति देने के लिए एक देश एक चुनाव का फॉर्मूला अपनाया, जिसमें स्वीडन में पिछले साल सितंबर में आम चुनाव, काउंटी और नगर निगम के चुनाव एकसाथ कराए गए थे। इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका, जर्मनी, स्पेन, हंगरी, स्लोवेनिया, अल्बानिया, पोलैंड, बेल्जियम में भी एकबार चुनाव कराने की परंपरा है।

एकसाथ चुनाव से आर्थिक बोझ कम होगा क्योंकि वर्ष 2009 लोकसभा चुनाव में 1100 करोड़, वर्ष 2014 में 4000 करोड़ और वर्ष 2019 में प्रति व्यक्ति 72 रुपये खर्च हुआ है। इसी प्रकार विधानसभाओं के चुनाव में भी यही स्थिति नजर आती है। साथ ही बार-बार चुनाव के कारण आचार संहिता लागू होने से राज्यों में विकास कार्य बाधित होते हैं। इससे शिक्षा क्षेत्र भी अत्यधिक प्रभावित होता है। अलग-अलग चुनाव से कालेधन का अत्यधिक प्रवाह होता है। यदि एकसाथ चुनाव होगा तो कालेधन के प्रवाह पर निश्चित ही रोक लगेगी।

निश्चित ही एकसाथ चुनाव से कुछ समस्याओं का सामना भी करना होगा लेकिन सदैव के लिए इससे मुक्ति पाने के बाबत एक देश एक चुनाव जरूरी है। इससे क्षेत्रीय पार्टियों पर संकट आ सकता है और उनके क्षेत्रीय संसाधन सीमित हो सकते हैं तथा क्षेत्रीय मुद्दे भी खत्म हो सकते हैं। साथ ही चुनाव परिणाम में देरी भी हो सकती है तथा इसके लिए संविधान में संशोधन भी करना होगा। अतिरिक्त केंद्रीय अर्धसैनिक बलों की आवश्यकता भी होगी। अतः इनकी भारी संख्या में नियुक्ति की जरूरत भी पड़ेगी। एक साथ चुनाव कराने के लिए ईवीएम की पर्याप्त आवश्यकता भी पड़ेगी क्योंकि आज 12- 15 लाख ईवीएम का उपयोग किया जाता है। लेकिन जब एकसाथ चुनाव होंगे तो उसके लिए 30-32 लाख ईवीएम की दरकार होगी। इसके साथ वीवीपैट भी लगाने होंगे। अतः इन सबको पूरा करने के लिए 4 से 5 हजार करोड़ रुपए की अतिरिक्त आवश्यकता होगी। निश्चित ही पूंजीगत खर्च तो बढ़ेगा ही क्योंकि एकसाथ 30 से 32 लाख ईवीएम की जरूरत को पूरा करना होगा और प्रति 3 बार चुनाव अर्थात् 15 साल में इनको बदलना भी होगा क्योंकि इनका जीवनकाल 15 साल तक ही होता है।

एकसाथ चुनाव से अनेक फायदे भी होंगे। इससे सार्वजनिक धन की बचत तो होगी ही, प्रशासनिक सेटअप और सुरक्षा बलों पर भार भी कम होगा तथा सरकार की नीतियों का समय पर कार्यान्वयन सुनिश्चित हो सकेगा। यह भी सुनिश्चित होगा कि प्रशासनिक मशीनरी चुनावी गतिविधियों में संलग्न रहने के बजाय विकासात्मक गतिविधियों में लगी रहे। एक रिपोर्ट के अनुसार आम चुनाव में राजनीतिक दल 60 हजार करोड़ रुपए खर्च करते हैं और राज्य विधानसभा चुनाव में भी इतना ही खर्च होता है तो दोनों को मिलाकर 1.20 लाख करोड़ रुपए राजनीतिक दलों द्वारा खर्च किए जाते हैं। अतः अब एक चुनाव से प्रचार भी एक ही बार ही करना होगा इसलिए खर्च घटकर आधा रह जाएगा। एक देश एक चुनाव की अवधारणा में कोई बड़ी खामी नहीं है, किन्तु राजनीतिक पार्टियों द्वारा जिस तरह से इसका विरोध किया जा रहा है उससे लगता है कि इसे निकट भविष्य लागू कर पाना संभव नहीं है। इसमें कोई दो राय नहीं कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत हर समय चुनावी चक्रव्यूह में घिरा हुआ नजर आता है। चुनावों के चक्रव्यूह से देश को निकालने के लिये एक व्यापक चुनाव सुधार अभियान चलाने की आवश्यकता है। सरकार की प्रतिबद्धता से निश्चित ही यह कार्य संभव हो सकेगा।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

लालजी जायसवाल

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