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उद्धव को सच्चाई का अहसास

👤 Veer Arjun | Updated on:16 Oct 2019 8:52 AM GMT

उद्धव को सच्चाई का अहसास

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यह सच स्वीकार करने वाली परिपक्व सोच है या फिर परिस्थितियों के साथ समझौता? उद्धव ठाकरे ने अपने पुत्र आदित्य ठाकरे के पक्ष में की जा रही जुबानी दावेदारियों को विराम लगा दिया। वैसे तो आदित्य को मुख्यमंत्री के रूप में देखने का अपना अरमान उद्धव स्वयं व्यक्त कर चुके हैं। लेकिन अब उनका नजरिया कुछ बदला हुआ दिखा। शिवसेना के मुखपत्र 'सामना' को दिए एक इंटरव्यू में उद्धव ने कहा है कि आदित्य अभी-अभी तो राजनीति में आए हैं। चुनाव लड़ने का यह मतलब नहीं है कि वह तत्काल महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री या उपमुख्यमंत्री होंगे। शिवसेना प्रमुख की टिप्पणी के पीछे काफी कुछ है। विचारणीय बिंदु यह हो सकता है कि उद्धव को इस तरह का स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई? उनकी टिप्पणी शिवसेना के बड़े नेताओं के बयानों से मेल नहीं खा रही जो आदित्य को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के रूप में देखने के लिए लालायित हैं। ऐसे नेताओं में ठाकरे परिवार के करीबी और वफादार संजय राउत भी शामिल हैं। हाल ही में राउत ने कहा था कि कुछ तकनीकी खराबी के कारण चंद्रयान-2 चंद्रमा पर नहीं उतर सका लेकिन हम पूरा प्रयास करेंगे कि यह बेटा (आदित्य ठाकरे) 24 अक्टूबर (चुनाव परिणाम के दिन) को मंत्रालय के छठे माले (मुख्यमंत्री का कार्यालय) पर पहुंचे। राउत के भाव को राजनीति में अपने-अपने अंदाज में लिया गया। कुल निचोड़ यही रहा कि शिवसेना की सत्ता की लालसा प्रबल हुई है और ठाकरे परिवार चुनावी या सत्ता की राजनीति में प्रत्यक्ष भूमिका के लिए मन बना चुका है। कहा जा रहा था कि आदित्य को मुख्यमंत्री या उपमुख्यमंत्री बनवाने के लिए मातोश्री में खिचड़ी पक रही है। चुनावों में भाजपा-शिवसेना गठबंधन को बहुमत मिलने और दोनों के बीच सीटों का अंतर सीमित होने पर आदित्य के लिए उपमुख्यमंत्री पद का दावा ठोंक दिया जाएगा।

फिलहाल, उद्धव ने गठबंधन में तनाव को उत्पन्न होने से पहले ही रोकने की कोशिश की है। वह जानते हैं कि गठबंधन में सीनियर पार्टनर के रूप में उभरी भाजपा मुख्यमंत्री पद पर किसी दबाव को स्वीकार नहीं करेगी। भाजपा देवेन्द्र फडणवीस को अगले मुख्यमंत्री के रूप में भी पेश कर चुकी है। फडणवीस का पहला कार्यकाल काफी हद तक ठीकठाक रहा है। पांच सालों के दौरान सभी वर्गों में भाजपा की पहुंच मजबूत हुई है। खास बात यह है कि फडणवीस एक मजबूत क्षेत्रीय नेता के रूप में उभरे हैं।

मराठा मतदाताओं में भाजपा की पैठ ने शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के होश उड़ा रखे हैं। महाराष्ट्र में कहा जा रहा है कि भाजपा के पास फडणवीस के रूप में पवार का प्रभावी जवाब है। गौरतलब है कि एनसीपी की तरह शिवसेना भी काफी हद तक मराठा वोटों पर निर्भर रहती रही है। आदित्य ठाकरे वर्ली से चुनाव लड़ रहे हैं। शिवसेना की सबसे सुरक्षित सीट कहे जाने वाले वर्ली में ही 40 प्रतिशत मराठा मतदाता हैं। उद्धव महसूस कर रहे हैं कि फडणवीस की अच्छी छवि और पिछले पांच-सात सालों से जारी मोदी लहर को देखते हुए फिलहाल भाजपा पर किसी तरह का दबाव शिवसेना के लिए ठीक नहीं होगा। वैसे भी भाजपा की ओर से संकेत दिए जा चुके हैं कि शिवसेना को उपमुख्यमंत्री पद देने पर उसे कोई आपत्ति नहीं होगी। अब शिवसेना को तय करना होगा कि उपमुख्यमंत्री के रूप में वह आदित्य ठाकरे को देखना चाहेगी या किसी अन्य को।

उद्धव ठाकरे ने सीटों के बटवारे में भी भारतीय जनता पार्टी के साथ टकराव को टाला था। भाजपा के लिए अधिक सीटें छोड़कर उद्धव ने शिवसेना के मनोबल और आत्मविश्वास को दिखाने की कोशिश की है। शिवसेना भाजपा की बढ़ी हुई ताकत को स्वीकार कर रही है। इस समय शिवसेना का एक मात्र लक्ष्य सत्ता में आना है। यह भाजपा के साथ बने रहने से ही संभव है। चुनावी राजनीति में ठाकरे परिवार की आमद से बहुत से लोग आश्चर्य कर रहे हैं जबकि इसके संकेत काफी समय से मिल रहे थे।

आदित्य के चुनाव लड़ने से दो बातें जुड़ी हैं। पहली यह कि वह पिछले 53 सालों में ठाकरे परिवार के पहले सदस्य हैं जो चुनावी राजनीति में आया है। दूसरी, ठाकरे परिवार के किसी सदस्य ने पहली बार अपनी सम्पत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक किया है। आदित्य के दादा बाला साहेब ठाकरे सारी उम्र चुनावी राजनीति से दूर रहे। उद्धव ठाकरे ने भी वही रास्ता अपनाया। तब चुनावी राजनीति में ठाकरे परिवार के आने की वजह क्या हो सकती है? यह कहें कि समय के साथ ठाकरे परिवार के दृष्टिकोण में बदलाव आया है। सियासी कठपुतली शो दिखाने की बजाय स्वयं मंच पर उतरने का निर्णय लिया गया। आदित्य में उन्हें संभावनाएं नजर आ रही हैं। यह एक बड़ा दांव है। बाला साहेब के निधन के साथ करिश्माई व्यक्तित्व की कमी शिवसेना में महसूस की जाती रही है। जिज्ञासा इस बात की है कि क्या आदित्य कोई करिश्मा दिखा पाएंगे? बाला साहेब का व्यक्तित्व प्रभावशाली था। लेकिन एक सत्य यह है कि उनके जमाने में भी शिवसेना समूचे महाराष्ट्र में अपनी इकतरफा लहर पैदा नहीं कर पाई थी। विरोधियों में शिवसेना का खौफ अवश्य दिखाई देता रहा। शिवसेना का प्रभाव मुंबई, पुणे और मराठवाड़ा में अधिक देखा जाता था। शिवसेना पर भाषा और क्षेत्रीयता की राजनीति के आरोप लगते रहे हैं। बाला साहेब ने एक बार राजनीति को एक्जिमा की तरह निरूपित किया था। शिवसेना की पहली रैली को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि उनकी पार्टी की 80 प्रतिशत भूमिका समाजसेवा की होगी।

हाल ही में एक टीवी चैनल का माइक खुला रह जाने से उसके एंकर की विवादास्पद टिप्पणी लाखों लोगों ने सुन ली। एंकर किसी से कह रही थीं कि आदित्य शिवसेना के राहुल गांधी साबित होंगे। बवाल मचे इसके पहले एंकर ने खेद व्यक्त कर दिया। एंकर ने कहा कि उसके विचारों से चैनल का कोई लेना-देना नहीं है। इस प्रकरण ने लोगों के मन में सवाल तो उठा ही दिए। आदित्य ठाकरे का प्रदर्शन देखे बगैर ऐसी बातें करने का क्या मतलब है? आदित्य को जिस तरह तैयार किया जा रहा है, उसमें गंभीरता दिखती है। वंशवाद के नाम पर कटाक्ष तो होंगे लेकिन आदित्य मेहनत कर रहे हैं। उनकी अच्छी शिक्षा और सियासी ट्रेनिंग को नजरअंदाज नहीं कर सकते। आदित्य लंबी और गंभीर पारी खेलने के इरादे से आ रहे हैं। शायद इसीलिए उन्होंने अंग्रेजी और मराठी के साथ हिन्दी भाषा पर गहरी पकड़ बनाई है।

-अनिल बिहारी श्रीवास्तव

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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