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दुष्प्रचारकों को राष्ट्र से माफी मांगनी चाहिए

👤 mukesh | Updated on:15 Dec 2019 7:41 AM GMT

दुष्प्रचारकों को राष्ट्र से माफी मांगनी चाहिए

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- अनिल बिहारी श्रीवास्तव

गुजरात दंगों पर नानावती आयोग की रिपोर्ट सामने आ चुकी है। पिछले 17 सालों से शोर मचा रहे सेकुलरिस्ट खेमे में सन्नाटा है। हैरान कर देने वाली चुप्पी कहें तो बेहतर होगा। उधर, आम आदमी की उत्सुकता यह है कि आए दिन फुफकारने वाले भुजंग किस बिल में दुबके हैं? गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी पर लांछन लगाने की हर कोशिशों का नतीजा फिस्स रहा। याद करें, गुजरात दंगों में हुई मौतों के लिए मोदी को जिम्मेदार ठहराते जुबानें नहीं थक रही थीं। मौत का सौदागर जैसे आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग किया गया। मोदी और उनके कुछ मंत्रियों पर दंगाइयों को संरक्षण देने के आरोप लगाए गए। बहरहाल, देश-दुनिया में मोदी की छवि खराब करने की कोशिशों की कलई खुल चुकी है। एक और बड़ी बात यह है कि रिपोर्ट में मोदी को साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन के जले हुए एस-6 कोच का दौरा करने पर सबूतों से छेड़छाड़ के आरोप से भी बरी किया गया है। राजनीतिक स्वार्थों और वैचारिक विरोध में जले-भुने तत्वों को ऐसी नाकामी की उम्मीद नहीं रही होगी। आज हर भारतीय के मन यह सवाल भी अवश्य उठ रहा होगा कि क्या दुष्प्रचारकों ने एक पल के लिए भी नहीं सोचा कि उनके प्रलाप से देश की प्रतिष्ठा को चोट पहुंच रही है?

नानावती आयोग ने दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया है। आयोग ने माना है कि गुजरात दंगों के लिए मोदी और उनकी तत्कालीन राज्य सरकार के वो तीन मंत्री दोषी नहीं हैं, जिनके व्यवहार पर अंगुली उठाई गई थी। आयोग को गुजरात दंगों के दौरान राज्यभर में हुए रक्तपात में किसी राजनीतिक दल की भूमिका के सबूत नहीं मिले हैं। विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल पर मुसलमानों के विरूद्ध हिंसा भड़काने के आरोपों में दम नहीं दिखी। रिपोर्ट के अनुसार हिंसा की घटनाओं में विहिप और बजरंग दल से जुड़े कुछेक लोग स्थानीय स्तर पर अवश्य शामिल थे। आयोग को कानून-व्यवस्था बनाये रखने में पुलिस की ओर से किसी तरह की लापरवाही बरते जाने या कार्रवाई नहीं करने और पुलिस के काम में किसी मंत्री के हस्तक्षेप या किसी घटना में किसी मंत्री के लिप्त होने के भी प्रमाण नहीं मिले हैं। 27 फरवरी 2002 के गोधरा कांड के बाद भड़के दंगों में लगभग 1200 लोग मारे गए थे। साम्प्रदायिक हिंसा की इस आग में अरबों रुपये की सम्पत्ति नष्ट हुई थी।

आयोग ने फाइनल रिपोर्ट पांच साल पहले ही सौंप दी थी। ढाई हजार पृष्ठों और नौ खण्ड में फैली रिपोर्ट को इसी हफ्ते विधानसभा में पेश किया गया। लंबी और महत्वपूर्ण रिपोर्ट की विभिन्न पहलुओं का बारीकी से अध्ययन और उन पर मंथन के चलते इसे सदन में रखने में समय लग गया। आयोग की पहली रिपोर्ट 2008 में विधानसभा में रख दी गई थी। उसमें भी मोदी, मंत्रियों और पुलिस अधिकारियों को क्लीनचिट दी गई थी। उस रिपोर्ट का एक निष्कर्ष यह था कि गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में आग लगाये जाने की घटना पूर्व निर्धारित योजना का हिस्सा थी। मकसद उक्त ट्रेन में यात्रा करने वाले कारसेवकों को हानि पहुंचाना था। उल्लेखनीय है कि साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 कोच में उपद्रवियों की भीड़ द्वारा आग लगा दिए जाने से 59 कारसेवक जिन्दा जल गए थे। घटना की जांच पहले जस्टिस के. जी. शाह की अगुआई वाला एक सदस्यीय आयोग कर रहा था। बाद में इसका विस्तार कर इसकी अगुआई रिटायर्ड जस्टिस जी. टी. नानावती को सौंपी गई। 2008 में जस्टिस शाह के निधन के बाद जस्टिस अक्षय मेहता को इसमें नियुक्त किया गया था।

नानावती आयोग ने फाइनल रिपोर्ट में मीडिया की भूमिका पर अंगुली उठाई है। पुलिस अधिकारियों के बयानों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि गोधरा कांड और उसके बाद भड़की हिंसा के व्यापक मीडिया कवरेज ने लोगों को उत्तेजित किया। लोग साम्प्रदायिक हिंसा में लिप्त हो गए। जाहिर है कि मीडिया के एक वर्ग ने काफी गैरजिम्मेदाराना व्यवहार किया था। आयोग ने सिफारिश की है कि साम्प्रदायिक दंगों के दौरान मीडिया पर उचित रोक लगाई जानी चाहिए। रिपोर्ट की इस खरी बात पर सभी पक्षों को अवश्य विचार करना होगा। गुजरात दंगों का दौर देख चुके लोग आयोग की सिफारिश का जरूर समर्थन करेंगे। बात ठीक भी है। आखिर पत्रकारिता के नाम पर विवादित और भड़काऊ रिपोर्टिंग को क्यों नजरअंदाज किया जाता रहे? गुजरात में इसी का फायदा साम्प्रदायिक ताकतों ने जमकर उठाया था।

गुजरात के संदर्भ में एक कड़वा सच यह है कि वहां साम्प्रदायिक तनाव और हिंसा का लम्बा इतिहास रहा है। गुजरात में हिन्दू और मुसलमान के बीच पहला बड़ा दंगा 1969 में भड़का था, जिसमें 660 लोग मारे गए थे। उस दंगे में 48 हजार करोड़ की सम्पत्ति नष्ट हुई थी। उस समय ठेठ कांग्रेसी हितेंद्र कन्हैया लाल देसाई गुजरात के मुख्यमंत्री थे। 1961 से 1971 के बीच साम्प्रदायिक हिंसा की 685 और 1987 से 1991 के बीच 106 घटनाएं हुई थीं। 1996, 1997 और 1999 में हिंसा की छिटपुट घटनाएं होती रही हैं। नानावती आयोग ने पाया है कि साम्प्रदायिक दंगों एक बड़ा कारण हिन्दू और मुसलमानों के बीच गहराई तक जड़ें जमाई नफरत थी।

नानावती आयोग की रिपोर्ट से एक बात साफ हो जाती है कि चाहे 2002 का गुजरात दंगा हो या उससे पूर्व की साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाएं या दंगे, इन सबके मूल में असल भूमिका हिन्दू और मुसलमानों के बीच व्याप्त नफरत और अविश्वास की रही है। दिलों में ऐसी दरार समाज के लिए काफी खतरनाक होती है। राजनीतिक नेतृत्व और दोनों समुदाय के जिम्मेदार लोगों ने इस वैमनस्य को खत्म करने के लिए कोई ठोस पहल नहीं की। उसी नफरत ने पहले गोधरा कांड और फिर उस पर प्रतिक्रिया स्वरूप भड़के गुजरात दंगों के रूप में अपनी मौजूदगी का अहसास कराया था। अफसोस है कि इतने खून-खराबे के बाद भी दरारों को भरने की बजाय लोगों को उकसाने-भड़काने जैसी हरकतें की जाती रही हैं। जमकर राजनीति हुई। अचानक सेकुलरिस्ट मेकअप की मांग बढ़ गई। हासिल क्या हुआ? तय मानें कि मोदी, तत्कालीन गुजरात सरकार के मंत्रियों, पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों, भाजपा या संघ परिवार की बेगुनाही साबित हो जाने पर कुछ लोग बेचैन होंगे। इन व्याकुल और असंतुष्ट आत्माओं में सेकुलरिस्ट मुखौटाधारी राजनेता, स्वयंभू बुद्धिजीवी, लेफ्टिस्ट पत्रकार और तथाकथित समाजसेवी सभी मिल जाएंगे। जबकि होना क्या चाहिए? हर उस झूठे और फरेबी को राष्ट्र से क्षमा मांगनी चाहिए जो लोगों के दिलों में लगे जख्मों पर मरहम लगाने के बदले अदृश्य हाथों से उन्हें हरा रखने की जुगत में लगा था।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं।)

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