विपक्ष के नये हथियार
- डॉ. नीलम महेंद्र
सीएए को कानून बने एक माह से ऊपर हो चुका है लेकिन विपक्ष द्वारा इसका विरोध अनवरत जारी है। बल्कि गुजरते समय के साथ विपक्ष का यह विरोध तमाम हदों को लांघ हताशा व निराशा से होकर विद्रोह का रूप अख्तियार कर चुका है। शाहीन बाग का धरना इसी बात का उदाहरण है। अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिए ये दल किस हद तक जा सकते हैं, यह धरना इस बात का भी प्रमाण है। दरअसल नोएडा और दिल्ली को जोड़ने वाली सड़क पर लगभग एक महीने से चल रहे धरने के कारण लाखों लोग परेशान हो रहे हैं। प्रदर्शनकारी सड़क पर इस प्रकार धरने पर बैठे हैं कि लोगों के लिए वहाँ से पैदल निकलना भी दूभर है। लोग अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज पा रहे, स्थानीय लोगों का व्यापार ठप हो गया है। रास्ता बंद हो जाने के कारण आधे घंटे की दूरी तीन चार घंटे में तय हो रही है, जिससे नौकरीपेशा लोगों का अपने कार्यस्थल तक पहुंचने में असाधारण समय बर्बाद हो रहा है। जाहिर है इससे गाड़ियों में ईंधन की खपत भी बढ़ गई है जो निश्चित ही पहले से प्रदूषित दिल्ली की हवा में और जहर घोलेगी।
जो राजनैतिक दल इस धरने को खुलकर समर्थन दे रहे हैं और इनका जोश बनाए रखने के लिए बारी-बारी से यहां उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं, उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि यह ज़हर कहीं देश की फिजाओं में भी न घुल जाए। क्योंकि हाल में बीजेपी के आईटी सेल प्रमुख ने एक वीडियो साझा किया, जिसमें एक युवक कह रहा है कि यहाँ महिलाओं को धरने पर बैठने के पांच सौ से सात सौ रुपये तक दिए जा रहे हैं। ये महिलाएं शिफ्ट में काम कर रही हैं और एक निश्चित संख्या में अपनी मौजूदगी सुनिश्चित रखती हैं। इतना ही नहीं, उस युवक का यह भी कहना है कि वहाँ की दुकानों के किराए भी मकान मालिकों द्वारा माफ कर दिए गए हैं। वीडियो की सत्यता की जांच गंभीरता से की जानी चाहिए क्योंकि अगर इस युवक द्वारा कही गई बातों में जरा भी सच्चाई है तो निश्चित ही विपक्ष की भूमिका संदेह के घेरे में है। सवाल तो बहुत उठ रहे हैं कि इतने दिनों तक जो लोग धरने पर बैठे हैं, इनका खर्च कैसे चल रहा है। जो खाना-पीना धरनास्थल पर उपलब्ध कराया जा रहा है, वो कहाँ से आ रहा है।
दरअसल विपक्ष आज बेबस है क्योंकि उसके हाथों से चीज़ें फिसलती जा रही हैं। जिस तेजी और सरलता से मौजूदा सरकार देश के सालों पुराने उलझे मुद्दे, जिनपर बात करना भी विवादों को आमंत्रित करता था, उसे सुलझाती जा रही है इससे विपक्ष खुद को मुद्दाविहीन पा रहा है। ऊपर से मौजूदा सरकार की कूटनीति के चलते संसद में विपक्ष की राजनीति भी नहीं चल पा रही, जिससे वह खुद को अस्तित्वविहीन भी पा रहा है। शायद इसलिए अब वो अपनी राजनीति सड़कों पर ले आया। खेद का विषय है कि अपनी राजनीति चमकाने के लिए अभीतक विपक्ष आम आदमी और छात्रों का सहारा लेता था लेकिन अब वो महिलाओं को मोहरा बना रहा है। देश की मुस्लिम महिलाएँ और बच्चे अब विपक्ष के नये हथियार हैं क्योंकि शाहीन बाग का मोर्चा महिलाओं के हाथ में है।
अगर शाहीन बाग का धरना वाकई में प्रायोजित है तो इसका समर्थन करने वाला हर शख्स और हर दल सवालों के घेरे में है। संविधान बचाने के नाम पर उस कानून का हिंसक विरोध जिसे संविधान संशोधन द्वारा खुद संसद ने ही बहुमत से पारित किया हो क्या संविधान सम्मत है? जो लड़ाई आप संसद में हार गए उसे महिलाओं और बच्चों को मोहरा बनाकर सड़क पर लाकर जीतने की कोशिश करना किस संविधान में लिखा है? लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनी हुई सरकार के काम में बाधा उत्पन्न करना लोकतंत्र की किस परिभाषा में है? संसद द्वारा बनाए कानून का अनुपालन हर राज्य का कर्तव्य है। संविधान में उल्लिखित होने के बावजूद विभिन्न राज्यों में विपक्ष की सरकारों का इसे लागू नहीं करना या फिर केरल सरकार का इसके खिलाफ न्यायालय में चले जाना क्या संविधान का सम्मान है? जो लोग महीने भर तक रास्ता रोकना अपना संवैधानिक अधिकार मानते हैं उनका उनलोगों के संवैधानिक अधिकारों के विषय में क्या कहना है जो उनके इस धरने से परेशान हैं? अपने अधिकारों की रक्षा करने में दूसरों के अधिकारों का हनन करना किस संविधान में लिखा है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न उन मुस्लिम महिलाओं से जो धरने पर बैठी हैं। आज जिस कांग्रेस के मणिशंकर अय्यर, शशि थरूर जैसे नेताओं का भाषण उनमें जोश भर रहा है उसी कांग्रेस की सरकार ने शाहबानो के हक में आए न्यायालय के फैसले को संसद में उलटकर शाहबानो ही नहीं हर मुस्लिम महिला के जीवन में अंधेरा कर दिया था। यह दुर्भाग्यजनक ही है कि वर्तमान सरकार की नीतियों के कारण तीन तलाक से छुटकारा पाने वाले समुदाय की महिलाएँ उस विपक्ष के साथ खड़ी हैं जो एक राजनैतिक दल के नाते आजतक उन्हें केवल वोटबैंक समझकर उनका उपयोग करता रहा और आज भी कर रहा है।
चूंकि 2016 के बाद अपने परिसर में विभिन्न देशविरोधी गतिविधियों के सार्वजनिक होने के चलते जेएनयू अब बेनकाब हो चुका है और वहाँ का छात्र आंदोलन राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में प्रभाव छोड़ने के बजाए खुद ही विवादों में आ जाता है। इसलिए विपक्ष ने अब महिलाओं को अपना मोहरा बनाया है। क्योंकि मोदी सरकार की नीतियों ने वोटबैंक की राजनीति पर जबरदस्त प्रहार किया है और जो थोड़ा बहुत मुस्लिम-दलित का वोटबैंक बचा भी है तो उनमें प्रतियोगिता बहुत हो गयी है क्योंकि भाजपा को छोड़ लगभग समूचा विपक्ष उसे साधने में लगा है। इसलिए उसने विश्व इतिहास पर नज़र डाली और महिला आंदोलन की कुंजी खोजी जिसका इस्तेमाल वो सबरीमाला मंदिर के संदर्भ में भी कर चुका था। यह अब मुस्लिम महिलाओं के सोचने का विषय है कि वे किसी दल के राजनैतिक हथियार के रूप में अपनी पहचान बनाना चाहती हैं या देश के उस जागरूक नागरिक के रूप में, जो देश निर्माण में योगदान देता है।
(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)