मजदूरों को मजबूर नहीं मजबूत बनाइए
- प्रभुनाथ शुक्ल
दुनिया सम्भवतः सृष्टि की सबसे बड़ी महामारी से जूझ रही है। कोरोना संक्रमण की वजह से अबतक लाखों लोग अपना बहुमूल्य जीवन खो चुके हैं। लेकिन हम इस विपदा में भी राजनीति का अवसर खोज रहे हैं। उत्तर प्रदेश में प्रवासी मजदूरों पर काँग्रेस और राज्य की योगी सरकार के बीच जिस तरह की राजनीति दिखी वह बेहद शर्मनाक है। मजदूरों के साथ इससे भद्दा मजाक भला और क्या हो सकता है। संक्रमण को लेकर हालात इतने बुरे हैं कि महाशक्तियों ने भी घुटने टेक दिए हैं। अभीतक कोई वैक्सीन उपलब्ध नहीं हो पाई है और हम राजनीति पर उतारू हैं। यह मतभेद के बजाय यह सरकारों और मानवीयता के लिए परीक्षा की घड़ी है।
जब विश्व स्वस्थ्य संगठन ने साफ कर दिया है कि इस महामारी का अंत नहीं दिखता है, इसका मतलब हुआ कि हमें अपनी सुरक्षा के साथ जीना होगा। यह लड़ाई इतनी जल्दी ख़त्म होने वाली नहीं है। भारत में यह महामारी तेजी से पाँव पसार रही है। चौथा लॉकडाउन भी घोषित कर दिया गया है लेकिन उसका कोई प्रभाव फिलहाल नहीं दिख रहा है। भारत में एक लाख से अधिक लोग संक्रमित हो चुके हैं। तीन हजार से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। हजारों की संख्या में कोरोना वारियर भी संक्रमण के शिकार हो चले हैं। कई डॉक्टरों और पुलिसवालों की मौत हो गई है। प्रवासी मजदूरों की हालत किसी से छुपी नहीं है। लेकिन अब उसपर राजनीति हो रही है। मजदूरों को घर भेजने को लेकर सरकारें किस हद तक जा सकती हैं, उसका उदाहरण हम पश्चिम बंगाल, बिहार और यूपी में देख रहे हैं।
भारत में प्रवासी मजदूरों का पलायन थमने का नाम नहीं ले रहा है। कोरोना काल में रोजगार छिन जाने से इस वक्त सबसे अधिक मजदूरों के सामने भूख का संकट खड़ा हो गया है। जिसकी वजह से मजदूर शहरों से पलायन कर रहे हैं। उनके पास कोई रोजगार नहीं रह गया है। धंधे बंद हो गए हैं। कमरे का किराया देने के लिए पैसा भी नहीं है। लोगों में इतना भय और डर समा गया है कि अब जीवन बचना मुश्किल है। जिसकी वजह से लोग शहरों से अपने गाँवों की तरफ लौट रहे हैं। गाँव सबसे सुरक्षित ठिकाना लगने लगा है क्योंकि इस वक्त हर व्यक्ति के सामने जीवन बचाने की चुनौती है।
आर्थिक गतिविधियों के प्रमुख केंद्र मुम्बई, सूरत, दिल्ली, पंजाब, तेलंगाना, कोलकाता, गुड़गांव, चेन्नई समेत दूसरे राज्यों में उद्योग-धंधे बंद हैं। सरकारें मजदूरों से अपील कर रही है कि वह शहर न छोड़ें लेकिन कोरोना का फैलता संक्रमण और उनमें समाया डर उन्हें पलायन को बाध्य कर रहा है। सरकारों ने यह बताने में करोड़ों का विज्ञापन खर्च कर दिया कि आप जहाँ हैं वहीं रहें, सरकार आपको घर लाएगी। लेकिन वह कैसे रहें जब उनके पास पैसा, भोजन और दूसरी सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। काम-धँधा बंद होने से उनके सामने भुखमरी की स्थिति पैदा हो गई है। हालाँकि सरकारी दुकानों से राशन की सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है लेकिन क्या सिर्फ राशन से जिंदगी चल जाएगी। जीवन की दूसरी जरूरतें कैसे पूरी होंगी। इस वक्त प्रवासी मजदूर सबसे अधिक मुश्किल में है। जितनी बड़ी चुनौती मजदूरों के सामने है उतनी समाज के दूसरे तबके के साथ नहीं है। इसलिए उन्हें सीधे आर्थिक सहायता की ज़रूरत है।
प्रवासी मजदूर एक से डेढ़ हजार किलोमीटर तक की पैदल यात्रा करने को बाध्य हैं। दुनिया में इस तरह की त्रासदी केवल भारत में देखने को मिल रही है। मजदूरों के हौसले की वजह से सड़कें छोटी पड़ गई हैं। लोग माँ-बाप, पत्नी और बच्चों को कंधे पर ढो रहे हैं। गर्भवती महिलाएं अपने बच्चों को ढोने के लिए बैलगाड़ी खींच रही हैं। पिता अपने बच्चों को कांवरी में लेकर लम्बी यात्रा तय कर रहा है। बेटी अपने बीमार पिता को साइकिल पर बिठाकर बिहार तक का अंतहीन सफर तय कर रही है। मजबूर मजदूर ख़ुद हाथ गाड़ी बनाकर सैकड़ों किमी की सड़कें नाप रहे हैं। मासूम बच्चे सड़क पर दौड़ती सूटकेस पर गहरी नींद पर सो रहे हैं। लोग भूख और प्यास से तड़प-तड़पकर दम तोड़ रहे हैं। घर आने की जल्दबाजी में अबतक अनगिनत मजदूर सड़क हादसों में अपनी जान गँवा चुके हैं।
प्रवासी मजदूरों पर देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में काँग्रेस और सरकार के बीच खूब राजनीति देखने को मिली। कौन सच है कौन झूठ यह तो वहीं जाने। लेकिन मजदूरों को क्या हासिल हुआ? शायद इसका जवाब न तो सरकार के पास है और न काँग्रेस के पास। यह वक्त राजनीति का नहीं है। मजदूरों को सुरक्षित पहुँचाना सरकार, विपक्ष और समाज सबकी नैतिक जिम्मेदारी और जवाबदेही है। देश के निर्माण में मेहनतकश श्रमिकों के योगदान को भुलाना नाइंसाफी होगी। जब वह हमारे साथ होंगे तभी देश की बुनियाद मजबूत बनेगी। उन्हें मजबूर नहीं मजबूत बनाएं। मजदूरों को लेकर हमारी चुनौतियां बढ़ रही हैं। वक्त रहते अगर हमने कदम नहीं उठाए तो प्रवासी मजदूरों के हालात और बदतर होंगे। हमें पूरी मजबूती के साथ उनके साथ खड़े होना होगा। अगर उनका भरोसा टूट जाएगा तो हम बेहतर राष्ट्र निर्माण की बात नहीं कर सकते।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)