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अपनी भाषा में हो शिक्षा और ज्ञान की साधना

👤 mukesh | Updated on:14 Sep 2020 10:55 AM GMT

अपनी भाषा में हो शिक्षा और ज्ञान की साधना

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- गिरीश्वर मिश्र

भाषा संवाद में जन्म लेती है और उसी में पल-बढ़कर समाज में संवाद को रूप से संभव बनाती है। संवाद के बिना समाज भी नहीं बन सकता न उसका काम चल सकता है इसलिए समाज भाषा को जीवित रखने की व्यवस्था भी करता है। इस क्रम में भाषा का शिक्षा के साथ गहरा सरोकार बन जाता है। शिक्षा पाने के दौरान बच्चा भाषा भी सीखता है और भाषा के सहारे विभिन्न विषयों का ज्ञान भी प्राप्त करता है। उसकी योग्यता, कौशल और मानसिकता के विकास पर उसके आसपास फैली-पसरी भाषा की दुनिया का बड़ा व्यापक असर पड़ता है। भाषा के सहारे ही सोचना होता है और हम जीवन का गुणा-भाग लगाते हैं। रिश्ते-नातों का बनना बिगड़ना, मन ही मन वर्तमान, अतीत और भविष्य की काल-यात्रा करना, निर्णय लेना और अपनी हालत समझना और दूसरों को समझाना आदि सारे कार्य भाषा में दक्षता आने पर ही हो पाते हैं।

इस तरह भाषा पकड़ में आने के साथ बच्चे को अपने ऊपर और अपने परिवेश पर नियंत्रण का अहसास होने लगता है। भाषा से मिलने वाली शक्ति को आत्मसात करते हुए उसके साथ अस्मिता भी जुड़ जाती है और यदि समाज में कई भाषाएं हों तो उनकी आपस में प्रतिद्वंदिता होने लगती है और जो भाषा अधिक सक्षम होती है उसका आकर्षण उतना अधिक होता है। इस ढंग से कुछ भाषाएं दौड़ में आगे निकल जाती हैं और कुछ प्रयोग के अभाव में असहाय होकर अस्त होने लगती हैं। अनुमान है कि दुनिया में बोली जानेवाली लगभग छह हजार भाषाओं में से इस सदी के अंत होते न होते शायद मात्र 200 भाषाएं ही जीवित रहेंगी और शेष नष्ट हो जाएंगी। भारत की भाषाओं का भी इसमें बड़ा हिस्सा होगा। खासतौर पर लिपिहीन भाषाओं पर संकट ज्यादा गहरा है परंतु बड़ी जनसंख्या में प्रचलित भाषाओं की भी हालत विचारणीय है।

भाषा की सत्ता का लोकतंत्र की व्यवस्था, राष्ट्र की कल्पना और सांस्कृतिक जीवन्तता से अभिन्न रिश्ता है। भाषाओं का जाना संस्कृति और सभ्यता के लिए भी खतरे की घंटी है। भाषा भावनात्मक, सौंदर्य, सुरुचि और संस्कार का मार्ग प्रशस्त करती है। ज्ञान के निर्माण, प्रशासन, शिक्षा और अनुसंधान सबकी साधन होती है, उसकी भूमिकाओं के साथ भाषा की सापेक्षिक प्रतिष्ठा जुड़ी होती है। भाषा को गम्भीर कार्य सौंपने पर उसकी मांग बढ़ती है। भारत में आज अंग्रेजी का आकर्षण खूब बढ़ा है और अंग्रेजी माध्यम के स्कूल तेजी से बढ़ते रहे हैं। अंग्रेजी भाषा के प्रति मोह की मनोवृत्ति, अंग्रेजियत की जीवनशैली और संस्कृति के विस्मरण की प्रवृत्ति ने सभ्यता का संकट खड़ा कर दिया है। चूंकि भाषा का कौशल समाज में रहते हुए ही अर्जित होता है इसलिए उसके निर्माण में सामाजिक परिवेश की खास भूमिका होती है। बोलने वाले की भाषा और उसके संवादी की भाषा में संगति और तारतम्य भी जरूरी होता है। इसलिए नई शिक्षा नीति की भाषा दृष्टि पर विचार करना जरूरी है।

शिक्षा नीति-2020 में भारतीय भाषाओं को लेकर जो विचार दिए गए हैं उनसे कुछ आशा बंधती है। यह संतोष की बात है कि यह नीति औपचारिक दुनिया में भारतीय भाषाओं के प्रति उदासीनता और इस कारण उनके अस्तित्व पर आ रहे संकट को रेखांकित करती है। भाषा द्वारा व्यक्ति और समाज की चेतना के निर्माण के महत्व को देखते हुए यह नीति इस बात को स्वीकार करती है कि भाषा का सवाल केवल शिक्षण माध्यम और विषय तक ही सीमित नहीं है। इसके साथ शिक्षा के मूल सरोकार, राष्ट्रीय एकता, अवसरों की समानता, संस्कृति के पोषण और आर्थिक विकास के प्रश्न भी गुंथे हुए हैं। अतएव भाषा के बारे में फैसला सिर्फ बहुमत के आधार या प्रयोग की सुलभता के आधार पर नहीं लिया जा सकता। उसमें विविधता और समावेशन का पूरा स्थान होना चाहिए। नई शिक्षा नीति में भाषा की उपस्थिति को भाषा-शिक्षण, शिक्षा के माध्यम के रूप में, भाषा को अध्ययन विषय के रूप में और भाषा के सांस्कृतिक संदर्भ के प्रति संवेदना की दृष्टि से समझा जा सकता है। इस नीति के अनुसार भारतीय भाषाएं पूर्व विद्यालयी स्तर से लेकर शोध के स्तर तक औपचारिक शिक्षा का माध्यम बननी चाहिए। साथ ही भाषाओं को केवल उनके साहित्य तक सीमित न रख इतिहास, कला, संस्कृति तथा विज्ञान जैसे विषयों को पढ़ाने का माध्यम बनाया जाना चाहिए। इस तरह भाषा के समुचित प्रयोग द्वारा समाज को लोकतांत्रिक और समावेशी बनाया जा सकता है।

यह भी गौरतलब है कि प्राथमिक और स्कूली स्तर पर पाठ्यचर्या विकराल भौतिक और मानसिक बोझ का एक बड़ा कारण विद्यार्थी के लिए स्वीकृत विषयवस्तु और उसके गृह संदर्भ में प्रयुक्त भाषाओं के बीच विद्यमान अंतर है। भाषा का सम्बन्ध केवल साहित्य से है, इस धारणा को तोड़कर उसकी अन्य क्षेत्रों में व्याप्ति को समझना जरूरी है तभी अनुवाद और रटन की अध्ययन संस्कृति के स्थान पर मौलिक सृजन की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल सकेगा। आज की प्रचलित परिपाटी में कुछ विषयों को अंग्रेजी के माध्यम से पढ़ाया जाना रूढ़-सा बना दिया गया है। सूचना एवं प्रौद्योगिकी, चिकित्सा एवं विधि के विषय इसके प्रमुख उदाहरण हैं। इस दिशा में भारतीय भाषाओं के माध्यम से पहल होनी चाहिए। यह भी उल्लेखनीय है कि कला, शिल्प, खेल और देशज ज्ञान को अपनी भाषा के माध्यम से ही खोजा और संरक्षित किया जा सकता है। नीति का यह मानना है कि ज्ञान, विज्ञान और कौशल की दृष्टि से भाषाओं को रोजगार की दुनिया में स्थापित किया जाना चाहिए। नीति में प्राचीन भाषाओं के लिए आदरभाव विकसित करने और भाषा शिक्षकों की नियुक्ति को प्रोत्साहन देने का सुझाव स्वागत योग्य है। सूचना क्रान्ति को अंग्रेजी के प्रभाव से मुक्त करते हुए भारतीय भाषाओं के माध्यम को सार्थक बनाने हेतु भारतीय भाषाओं के शिक्षण को समर्थ बनाने के लिए विचार करना होगा। भारतीय भाषाएं इतनी समर्थ हैं कि इनके द्वारा ज्ञान का सृजन और स्थानान्तरण किया जा सकता है। साथ ही औपचारिक शिक्षा, अर्थव्यवस्था एवं अन्य सामाजिक-राजनीतिक कार्यों के लिए इसका प्रयोग सुगमतापूर्वक किया जा सकता है।

जहां तक पूर्व विद्यालयी शिक्षा का प्रश्न है, मातृभाषा का प्रयोग करते हुए सोचने-विचारने की प्रक्रिया का सूत्रपात करना ही सर्वथा हितकर होगा। बच्चे की भाषा सीखने की सहजात क्षमता का उपयोग करते हुए सीखने का सक्रिय परिवेश बनाया जा सकता है। बच्चों में पढ़ने की आदत विकसित करने के लिए चित्रवाली किताबों एवं अन्य भाषा शिक्षण सहायक सामग्री का विकास करना आवश्यक होगा। प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षण को अनिवार्यत: लागू किया जाना ही श्रेयस्कर है। इस हेतु गणित, विज्ञान आदि विषयों में रोचक पुस्तकों की रचना एवं अन्य सामग्रियों की उपलब्धता को सुनिश्चित करना होगा। भारतीय भाषाओं में बालोपयोगी साहित्य के लिए राष्ट्रीय मिशन को संचालित कर युद्धस्तर पर यह कार्य करना होगा। नीति में तो उच्च शिक्षा तक को भारतीय भाषाओं के माध्यम से संचालित करने के अवसर का विस्तार करने की संस्तुति की गई है। यह सर्वविदित है कि चीनी , जापानी , फ्रांसीसी, जर्मन , रूसी , हिब्रू आदि गैरअंग्रेजी भाषा माध्यम में उच्चतम स्तर की शिक्षा दी जा रही है और शोध किया जा रहा है। अत: भारतीय भाषाओं में भी उच्चस्तरीय शोध होना चाहिए। नई शिक्षा नीति कला, शिल्प, इतिहास, देशज विज्ञान और लोक विद्या को भी औपचारिक शिक्षा के दायरे में लाने को सोच रही है। इनमें प्रवेश के लिए अपनी भाषा ही उपयुक्त होगी। भारतीय भाषाओं को व्यावसायिक शिक्षा में यथोचित स्थान देते हुए रोजगार बाजार से जोड़ना होगा।

आज सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में भाषायी कौशलों का संवर्धन बड़ी चुनौती हो गई है। आज की सबसे बड़ी सीमा है कि विद्यार्थी लिखित और मौखिक रूप में ठीक से संप्रेषित नहीं कर पाते हैं। अत: भाषायी दक्षता का संवर्धन जरूरी है। चूंकि सहज संज्ञानात्मक सक्रियता मातृभाषा में होती है अत: भारतीय भाषाओं में पाठ्यपुस्तक और अन्य पुस्तकों की उपलब्धता और उन्हें सतत अद्यतन करते रहना आवश्यक होगा। भारतीय भाषाओं में पारस्परिक संबंध विद्यमान है। कई क्षेत्रीय बोलियां जो लगभग भाषा जैसी है उनमें शब्दों, संज्ञाओं आदि की समानता का लाभ लेना होगा। अध्यापकों की नियुक्ति और प्रशिक्षण में उनकी भाषा संबंधी योग्यताओं में सुधार एवं परिष्कार जरूरी होगा।

अपनी भाषा को सीखने-सिखाने की प्रक्रिया का आधार बनाने की बात पुरानी है। बाबू भारतेंदु हरिश्चंद्र ने तो आज से डेढ़ सौ साल पहले ऐसा ही उद्घोष किया था:

निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति कौ मूल। तासों सब मिलि छाड़ि के दूजे और उपाय उन्नति भाषा की करौ अहौ भ्रात गण धाय।

अबतक बने आयोगों और समितियों ने भी बात दुहराई थी पर उसे कार्य रूप देने का मुहूर्त अब आ रहा है। देर से सही अपनी भाषा में शिक्षा की पहल दुरुस्त कदम है।

(लेखक महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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