Home » रविवारीय » चार वर्ष बाद-जन धन योजना क्या सरकार के लिए 'गेम चेंजर' साबित होगी ?

चार वर्ष बाद-जन धन योजना क्या सरकार के लिए 'गेम चेंजर' साबित होगी ?

👤 Veer Arjun Desk | Updated on:17 Jun 2018 5:29 PM GMT

चार वर्ष बाद-जन धन योजना   क्या सरकार के लिए गेम चेंजर साबित होगी ?

Share Post

विजय कपूर

बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की फ्लैगशिप स्कीम फ्रधानमंत्री जन धन योजना अगस्त 2014 में लागू की गई थी। इसके बारे में 2015 के आर्थिक सर्वे ने दावा किया था कि 'फ्रत्येक आंख से हर आंसू पोंछ दिया जायेगा'। यह तो खैर नहीं हुआ, लेकिन अब जबकि मोदी सरकार अपने कार्यकाल के पांचवें वर्ष का भी एक माह पूरा कर लिया है तो लाजिमी हो जाता है कि इस योजना की समीक्षा की जाए खासकर इसलिए भी क्योंकि यह कुछ उन योजनाओं में से है, जिनके जरिये सरकार अपनी गरीब-विरोधी छवि को मिटाने का फ्रयास कर रही है।

हाल ही में जारी हुए वर्ल्ड बैंक ग्लोबल फिनडेक्स डाटा से मालूम होता है कि अब भारत में लगभग 80 फ्रतिशत वयस्कों के बैंक खाते हैं। इस आधार पर जन धन योजना को एक सफल योजना के रूप में फ्रचारित किया जा रहा है। इस योजना के परिणामस्वरूप बैंक खातों में वृद्धि (2014 में 53 फ्रतिशत से 2017 में 80 फ्रतिशत) निश्चित रूप से फ्रभावी है, लेकिन समस्या यह है कि इनमें से 48 फ्रतिशत खातेदारों ने पिछले एक वर्ष के दौरान अपने खाते से न पैसा निकाला है और न ही जमा किया है। इसलिए इन खातों का होना या न होना बराबर है।

आम लोगों को वित्तीय फ्रािढया में शामिल करने का अर्थ केवल यही नहीं है कि उनके बैंक खाते खोल दिए जायें, बल्कि इन खातों का फ्रयोग करना और उन्हें औपचारिक ऋण (ाढsडिट) फ्राप्त करने के अवसर उपलब्ध कराना भी है। जन धन योजना की मुख्य कमी यही रही है कि बड़ी संख्या में बैंक खाते खुलने के बावजूद इन खातों के फ्रयोग में, औपचारिक ाढsडिट उपलब्धि में या वित्तीय संस्थानों में बचत में कोई समानुपातिक वृद्धि नहीं हुई है, खासकर देश के गरीब व हाशिए पर पड़े वर्गों में।

ाढsडिट-डिपाजिट अनुपात एक तरीका है जिससे ाढsडिट उपलब्धता तक पहुंच का मूल्यांकन किया जा सकता है, जो हमें यह बताता है कि बैंक डिपाजिट के फ्रति 100 रूपये पर एक विशेष जनसंख्या समूह कितना ाढsडिट ले सकता है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) जनसंख्या को ग्रामीण, अर्द्ध-शहरी, शहरी और महानगरीय श्रेणियों में रखती है। इनमें से पहले दो क्षेत्रों पर फिलहाल फोकस करना बेहतर रहेगा क्योंकि इनमें ही बड़ी संख्या में गरीबों के होने की संभावना है। ग्रामीण जनसंख्या के लिए ाढsडिट-डिपाजिट अनुपात 1999 में 41 फ्रतिशत था जो 2016 में बढ़कर 66.9 फ्रतिशत हो गया। लेकिन इसमें अधिकतर वृद्धि जन धन योजना के लांच होने से पहले हुई, खासकर यूपीए-1 सरकार के दौर में, जब ाढsडिट-डिपाजिट अनुपात 43.6 फ्रतिशत (2004) से बढ़कर 57.1 फ्रतिशत (2009) हुआ। 2014 के बाद से यह ग्रामीण क्षेत्रों में कमोबेश स्थिर ही रहा है और अर्द्ध-शहरी क्षेत्रों के लिए इसमें मामूली सा पतन आया है कि 2014 में 58.2 फ्रतिशत से गिरकर यह 2016 में 57.7 फ्रतिशत रह गया।

इसलिए कम से कम इस पैमाने पर कोई संकेत नहीं है कि जन धन योजना ने अपने लाभान्वितों के लिए औपचारिक ाढsडिट तक पहुंच में कोई वृद्धि की है। चलिए गरीबों तक ाढsडिट पहुंच की अधिक स्पष्ट तस्वीर देखने के लिए ाढsडिट मात्रा से संबंधित डाटा का मूल्यांकन करते हैं। आरबीआई ाढsडिट संबंधी डाटा छोटे बनाम बड़े लेनदारों की दृष्टि से उपलब्ध कराती है। छोटे लेनदार वह होते हैं जिन पर दो लाख रूपये से कम का ऋण होता है। यहां भी तस्वीर अच्छी नहीं है। मोदी सरकार के कार्यकाल में कुल ाढsडिट में छोटे लेनदारों का हिस्सा भी निरंतर कम हो रहा है। वास्तव में यह 2002 से ही गिरता जा रहा है। 2004-14 अवधि के दौरान इस हिस्से में पतन इस वजह से आया कि बड़े लेनदारों के कॉर्पोरेट ाढsडिट में नाटकीय वृद्धि हुई थी, यह ट्रेंड बदला नहीं है बावजूद इसके कि हाल के दिनों में ाढsडिट की विकास दर गिरी है; क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों में नॉन-परफोर्मिंग एसेट्स (एनपीए) और फ्रलम्बित ऋणों में वृद्धि हुई है।

इस पैमाने पर मोदी सरकार के लिए सबसे अच्छा वर्ष 2016 था, लेकिन वह भी 2009-10 की संकट अवधि के बामुश्किल ही बराबर रहा, जब विकास दर सबसे कम थी। इन ट्रेंड्स के आधार पर यह बहस की जा सकती है कि जन धन योजना या उसके बिना भी गरीबों द्वारा ाढsडिट हासिल करने में कोई वृद्धि नहीं हुई है, अधिक से अधिक यथास्थिति बनी रही है। अनुमान यह है कि जन धन योजना के लाभान्वित औद्योगिक या अन्य ऋणों की बजाय कृषि ऋण व व्यक्तिगत ऋण का अधिक फ्रयोग कर सकते हैं। इसलिए यह मूल्यांकन भी आवश्यक हो जाता है कि इन दो पैमानों पर छोटे लेनदार कहां "हरते हैं ? डाटा से मालूम होता है कि पिछले चार वर्षों के दौरान छोटे कृषि ऋणों का हिस्सा स्थिर रहा है और छोटे व्यक्तिगत ऋणों, जो घर, वाहन आदि को कवर करते हैं, में गिरावट आयी है।

भारत में गरीब घरों को जब औपचारिक ऋण नहीं मिलता है तो वह सूदखोर महाजनों की शरण लेते हैं जो उनसे मोटी ब्याज दर वसूल करते हैं। यह सबसे बड़ी चिंता है। इस संदर्भ में नवीनतम उपलब्ध स्रोत 2016 का हाउसहोल्ड सर्वे ऑन इंडियाज सिटिजन एनवायरनमेंट एंड कंज्यूमर इकॉनोमी है, जिसके अनुसार जनसंख्या के टॉप एक फ्रतिशत में छह में से एक व्यक्ति अनौपचारिक ऋण लेता है, जबकि गरीब जनसंख्या में यह आंकड़ा चार गुणा अधिक है कि तीन में से दो व्यक्ति अनौपचारिक स्रोतों से ऋण लेते हैं। बैंक खाते खुलने के बाद भी सूदखोर महाजनों पर गरीबों की निर्भरता कम नहीं हुई है। आरबीआई की 2017 की रिपोर्ट बताती है कि फ्राइवेट ऋण लेने से व्यक्ति ब्याज के ऐसे दलदल में फंस जाता है जिससे निकलना क"िन होता है। फिलहाल जो रिपोर्ट, साक्ष्य व डाटा उपलब्ध हैं, उनके आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि देश में जो गरीब व्यक्ति अपने को कर्ज की दयनीय स्थिति में पाता है, वह जन धन योजना के जरिये उससे निकल नहीं सकता। जन धन योजना से किसी आंख का आंसू नहीं पोंछा जा रहा है और न ही इससे मोदी सरकार की गरीब-विरोधी छवि में कोई सुधार आ रहा है। इसलिए इसके गेम चेंजर साबित होने का कोई तुक ही नहीं है।

Share it
Top