फिल्मों में रोमांस का बदलता रूप
गणेश शंकर भगवती
पुराने जमाने की फिल्मों में जो शालीनता, जो खूबसूरती थी, आज की फिल्मों में उसकी जगह अश्लीलता और फूहड़ता ने ले ली है। आनन-फानन व व्यावसायिक सफलता के लालच में फिल्मकार पर्दे पर पेम दृश्यों के बजाय जो शारीरिक कसरत व उठा पटक दिखाते हैं वह संस्कृति के अवमूल्यन का ही परिणाम है। आजकल की हिंदी फिल्मों में जिस तरह का रोमांस लोगों को परोसा जा रहा है उसे सड़क छाप कहना ही ज्यादा बेहतर होगा। जरा बीते वक्त की फिल्मों के बारे में गौर करेंगे तो ये बात शीशे की तरह साफ हो जाएगी। रोमांस उस वक्त भी दिखाया जा रहा था, लेकिन उसमें एक शालीनता, एक गरिमा थी। तीन तिकड़ी के नाम से विख्यात दिलीप, राज व देव भी पेम दृश्यों की वजह से ही लोगों के दिमाग पर छाये हुये थे। दिलीप कुमार का नाम लेते ही जेहन में एक ऐसे उदास, सच्चे व असफल पेमी की तस्वीर साकार हो उठती है जिसकी तस्वीर में अपने प्यार से बिछड़ना ही लिखा है। दिलीप कुमार संभवतः ऐसे पहले अभिनेता थे जिन्होंने फिल्मों में सहज व स्वाभाविक अभिनय की शुरुआत की थी। दिलीप-मधुबाला, दिलीप-मीना कुमारी, दिलीप-वैजयंती माला, दिलीप-वहीदा की जोड़ियों वाले पेम दृश्यों की बात ही कुछ और रही है। एक खास किस्म की संजीदगी हमेशा इन दृश्यों में देखी गई है, जिसे दर्शक आज तक नहीं भुला पाए हैं।
राजकपूर और नरगिस की जोड़ी इसके ठीक विपरीत थी। हो-हल्ला मचाने वाली शरारतें करने वाली हंसमुख व जिंदादिल जोड़ी। राज और नरगिस के पणय दृश्यों में एक बेबाकी थी जो उसमें पहले कभी हिंदी फिल्मों में देखने को नहीं मिली थी। इन दृश्यों का एक अलग ही मदहोश कर देने वाला अंदाज था। बड़े ही खूबसूरत व दिलकश अंदाज से राज और नरगिस पर्दे पर अपने प्यार के उन्माद को जीवंत कर देते थे।
राज और दिलीप के पेमदृश्यों की तुलना अगर की जाए तो एक बात साफ तौर पर उभरकर सामने आती है। राज व नरगिस के पेम दृश्यों के गहराई नजर आती थी, जिसमें एक-दूसरे के पति समर्पण की तीव्र अभिलाषा होती थी। जबकि दिलीप व उनकी हीरोइनों के पेम दृश्यों में एक गंभीरता, संवेदनशीलता व ठहराव नजर आता था।
देवानंद के रूप में दर्शकों को एक ऐसे अल्हड़, अलमस्त व बेफिक पेमी के दर्शन हुए जो न तो प्यार के मामले में ज्यादा गंभीर था और ना ही अपनी पेमिका पर जरूरत से ज्यादा फिदा था। देव के पेमी में एक तरह का मैनेरिजम छिपा था जो उन्हें लीक से हटकर पेम करने को बाध्य करता था। देव का पहनावा, चाल-ढाल, चलने का अंदाज व इश्क फरमाने की अदा हीरोइनों को दीवाना बना देती थी। मजे की बात यह थी कि ये सभी पेमी अपने वास्तविक जीवन में भी रोमियो थे। जो सिर्प पर्दे पर ही नहीं अपितु निजी जीवन में भी पेम का पदर्शन शानदार ढंग से करते थे।
इस परंपरा के सच्चे वाहक का खिताब अगर किसी को जाता है तो वे हैं राजेश खन्ना। राजेश ने सत्तर के दशक में रोमांटिक फिल्मों को आसमान की बुलंदियों पर बिठा दिया। आराधना, कटी पतंग व महबूबा न जाने कितनी ऐसी फिल्मों के नाम गिनाए जा सकते हैं जिसमें उन्होंने रोमांस को भिन्न-भिन्न ढंग से जिया। उनके अंदाज में एक शोखी व एक तरह बांकापन था जिसने करोड़ों लोगों को अभिभूत किया।लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। फिल्म इंडस्ट्री ने भी अपने को जेट सेट रफ्तार से बढ़ाना शुरू कर दिया है। अब रोमांस भी इंस्टेंट कॉफी की तरह हो गया है। फिल्मों के पणय दृश्य कब अपना रुख पलट दे कुछ नहीं कहा जा सकता है। पर्दे के हीरो-हीरोइन कब खुद को निर्वस्त्र कर दें, कुछ नहीं कहा जा सकता। लगता है सभी को जल्दी ही पड़ी है। अभिनेता-अभिनेत्रियों ने रोमांस को हथियार की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। इसका निशाना हमेशा दर्शक होता है। बीच-बीच में कभी-कभी कुछ ऐसी फिल्में आ जाती हैं जो एक शीतल फुहार की तरह होती है, जिसमें दर्शक खुद को पेम में भीगता हुआ महसूस करता है। जैसे कयामत से कयामत तक, एक ऐसी ही फिल्म थी जिसमें दो मासूम पेमियों के रीति-रिवाज व खानदानी दुश्मनी की बलि वेदी पर शहीद करा देता है जिसमें लोगों को एक ऐसे पेमी के दर्शन हुए जो अपरिपक्व थे तथा जुदाई के लिए असहनीय थी। आशिकी, मैंने प्यार किया व हम आपके हैं कौन आदि कुछ ऐसी फिल्मों को अब उंगलियों पर गिना जा सकता है जिसने रोमांस को एक खूबसूरत भाषा अभिव्यक्ति के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। जिसमें दर्शक खुद को डूबता, उतराता हुआ महसूस करता है। नहीं तो आज की अधिकांश फिल्में पेम के नाम पर एक तरह के भौंडेपेन को दिखा रहे हैं, जहां रोमांस सिर्प खटिया, चोली, तकिया व रजाई तक सीमित होकर रह गया है। आज के अभिनेता-अभिनेत्री भी पेम को उसे शिद्दत से महसूस नहीं करते, जितनी दरकार हैं।
आज की इस छीना झपटी के माहौल में रोमांस भी छीनने की वस्तु बनकर रह गई हैं। पर्दे पर रोमांस भी ऐसे ढंग से दर्शाए जा रहे हैं, मानों किसी उत्पाद का विज्ञापन। हीरोइनें आज रोमांस के नाम पर लोगों में क्षणिक उत्तेजना फैलाने का काम कर रही है। जिसमें वो अपने पेमी से कम तथा लोगों से ज्यादा मुखातिब दिखती है। पुरानी फिल्मों के नायक-नायिका पर्दे पर रोमांस करते वक्त अश्लीलता की हदें पार करते हुए नहीं दिखते थे, कभी-कभी राजकपूर की फिल्मों में ऐसा भास होता था, पर उसमें भी एक खास तरह का संदेश जरूर छुपा होता था। लेकिन आज की तमाम फिल्में अश्लीलता की सरहद पार करने को बेचैन दिखती है। हर नई फिल्म पिछली फिल्म से ज्यादा आगे निकलने को बेताब दिखती है। पहले के पेमदृश्यों में एक खास तरह की शालीनता थी, मगर आज उसकी जगह अश्लीलता ने ले ली है।