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सिनेमा की भाषा

👤 Veer Arjun Desk 4 | Updated on:12 Oct 2019 11:23 AM GMT

सिनेमा की भाषा

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ल ही मे रिलीज फिल्म `आर्टिकल-15' के शुरू मे एक दृश्य है। फिल्म के नायक को गांव के अंजान इलाके की जानकारी उसकी सरकारी कार का ड्राइवर दे रहा है, `यहां से राइट जायेंगे तो अयोध्या, सीधे चले गए तो लखनऊ और कहीं लेफ्ट मुड़ गए सर, तो ये हाइवे सीधा कलकत्ता..' आप पूरी फिल्म देखेंगे तो पता चलेगा कि इस जानकारी का फिल्म की मुख्य कथा से कोई सीधा संबंध नहीं है। कहने का मतलब यह कि इस संवाद के न होने से फिल्म को कोई फर्क नहीं पड़ता। तो सवाल है कि फिर यह संवाद क्यों है ?

दरअसल `आर्टिकल-15' एक ऐसी सामाजिक फिल्म है, जिस पर राजनीति का साया मंडराता है। सत्ता का फ्रभाव सामाजिक स्थिति पर हावी है। इस संदर्भ में निर्देशक फिल्म के शुरू में ही मौजूदा राजनैतिक माहौल का परिचय दे देता है ः राइट जायेंगे (यानी दक्षिणपंथ ) तो अयोध्या, सीधा गए तो लखनऊ (नवाबों का शहर, खुशामदी के खानदानी तख्त के सामने तर्क की छुट्टी) और कहीं लेफ्ट मुड़ गए तो- वाक्य की रचना पर गौर करें- यह मुड़े तो भी हो सकता था, पर यहां मुड़ गए तो है- लेफ्ट यानी वामपंथ- शासन के खिलाफ की विचारधारा किसी को सहज नहीं रखती फिर भी अपनानी पड़े तो ऐसा कुछ होता है, इस बात का यहां इशारा है।

सिनेमा के दृश्य माध्यम का यहां इस तरह इस्तेमाल हुआ है की कार के दाहिने, बाएं और सीधे- इन तीनों दिशाओं को दिखाते हुए ड्राइवर यह संवाद कह पाता है- कथा के नायक को इन तीन मे से किसी एक दिशा मे अब जाना होगा यह बात यहां सूचित होती है। `साहित्य का सिनेमा मे योगदान', इस विषय पर अक्सर बातें होती रहती हैं। मगर सिनेमा का साहित्य मे योगदान अब तक जांचा नहीं गया। शायद सिनेमा मनोरंजन का लोकफ्रिय माध्यम है और लोकफ्रिय यानी अगंभीर, ऐसा माना जाता है, इसलिए अन्य ललित कलाओं जितना तवज्जो सिनेमा को नहीं दिया जाता। साहित्य का गुणधर्म है -असरदार, नयापन और कलात्मक पेशकश। जबकि सिनेमा एक ऐसा माध्यम है,जो साहित्य के एकाधिक भिन्न स्वरूप के जरिये अपना व्याकरण तैयार करता है। लेकिन साहित्य के तमाम अवयवों को सिनेमा किस तरह अपने ढंग से तराशता है, यह देखना रसपूर्ण होगा। ऊपर `आर्टिकल-15' के दृश्य में हमने संवाद में जो छिपे संकेत देखे वैसे संकेत कथा या कविता मे भी पाये जाते है पर हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि सिनेमा के पास शब्दो के अलावा दृश्य से भी कुछ कहने की सुविधा होती है।

फिल्म शोले में एक ऐसा मोड़ आता है,जब रामगढ़ गांव के लोग खुद को लूटने वाले डाकू गब्बर सिंह के खिलाफ बगावत पर उतर आते है। गब्बर इस बात से परेशान है। उसी समय गब्बर के डाकू रामगढ़ के एक नौजवान को पकड़कर गब्बर के पास ले जाते है और उससे पूछते हैं कि इसका क्या करें ? रामगढ़ पर अपना खौफ जमाने के लिए गब्बर इस पकड़े गए नौजवान को मार डालना चाहता है,पर यह बात वह शब्दों में नहीं कहता। इसके लिए वह एक दृश्य का सहारा लेता है। अपने हाथ में रेंग रहे एक कीड़े को वह मसल देता है। उसके साथी डाकुओं को जवाब मिल जाता है। अगले दृश्य में उस नौजवान की लाश रामगढ़ पहुंचती है।

यहां आप देख सकते है कि आधा संवाद दृश्य से कहा गया है। ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म `मिली' का एक दृश्य है, जिसमें दुनिया से नकारा गया नायक शेखर शराब के नशे मे खुद को जख्मी कर देता है,जबकि उसकी पड़ोसन (नायिका) मिली उसका इलाज करने की कोशिश कर रही है। फिल्म का कथासूत्र है ः समाज के कटु अनुभव से हताश नायक को नायिका कैसे सकारात्मक सोच की ओर मोड़ती है। अब इस कथावस्तु को मद्देनजर रखकर आप दोनों के संवाद देखिए - शराब के नशे मे धुत नायक अपना इलाज कर रही अंजान लड़की को देख कहता है, `तुम मुझे नहीं जानती, मैं बहुत बुरा आदमी हूं..' इस पर नायिका कहती है, `आप बीमार हैं और बीमार सिर्फ अच्छे होते है..'

निराशावादी रवैय्ये के सामने आशावादी नजरिये की इस फ्रस्तुति मे हम देख सकते है कि `अच्छा होना' के दो अर्थ हैं - एक शारीरिक रूप से स्वस्थ होना और दूसरा बेहतर इंसान होना। श्लेष अलंकार का सटीक उपयोग साहित्य में तो होता ही रहा है पर यहां राही मासूम रजा साहब ने सिनेमा मे कितना असरदार तरीके से किया है,देखा जा सकता है। केतन महेता की `मिर्च मसाला' फिल्म मे कथा यह है कि किस तरह गांव की अबला नारियों को गांव के रखवाले पुलिस अधिकारी से मोर्चा लेना पड़ता है। इस फिल्म के शीर्षक दृश्य में नायिका ज्वार के खेत मे पंछियो को फसल से दूर रखने के लिए गुलेल से पत्थर मार रही है। ऐसे में गुलेल से फेंका गया एक पत्थर खेत मे खड़े किए गए बिजूका को ही लग जाता है।

बिजूका का काम खेत की फसल की रक्षा करना है पर कहानी ऐसा मोड़ लेती है कि रक्षक को ही दंड देना पड़ता है। इस बात का संकेत निर्देशक ने बिना किसी शब्द के फिल्म के शुरू मे ही दे देता है -केवल संवाद या दृश्य ही नहीं बल्कि ऐसे फ्रयोग फिल्मों के गानो मे भी हुए है। यश चोपड़ा निर्देशित `वक्त' फिल्म में एक गाना है `आगे भी जाने न तू... पीछे भी जाने न तू... जो भी है, बस यही एक पल है..' इस गाने का आगे का अंतरा देखिए ः `एक पल उजाला है, एक पल अंधेरा है, ये पल गंवाना न, ये पल ही तेरा है..`इन पंक्तियों को आप फिल्म के परिफ्रेक्ष्य मे देखें तो लगता है कि एक किरदार को किसी महिला के गले से नेकलेस चुराने के लिए दूसरा किरदार इशारा करता लगता है और साहित्यिक के आईने में देखें तो `वर्तमान क्षण ही जीवन है' ऐसा आध्यात्मिक अर्थ नजर आता है। साहिर साहब की कमाल की ये पंक्तियां हैं। इसी तरह `दिल अपना और फ्रीत पराई' फिल्म मे अपना प्यार खो चुकी नायिका अपने फ्रेमी को छीननेवाली खलनायिका को अहंकारी आनंद बिखेरते हुए देख, गाती है `ये रोशनी के साथ क्यों धुंआ उ"ा चराग से?..' -किसी की फ्राप्ति या कामयाबी किसी दूसरे की बेबसी और मायूसी को जन्म देने वाली भी हो सकती है यह बात शैलेंद्र साहब ने कितने साहित्यिक ढंग से रखी है।

फिल्मों को क्लासिक का दर्जा कब मिलता है ? जब फिल्म में बात कहने, दृश्य संयोजन या संकलन, फोटोग्राफी, गीत, नृत्य, अभिनय जैसे फिल्म माध्यम के तमाम व्याकरणों का उसमें उपयोग किया जाता है। इसके बाद उस माध्यम से बात कही जा पाती है। अगली बार से जब भी आप फिल्म देखें सिनेमा की भाषा `पढ़ने' के नजरिए से देखें, तब इस- भाषा का आनंद महसूस कर पायेंगे।

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