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काष्" छापाकला की वापसी

👤 manish kumar | Updated on:12 Dec 2019 12:38 PM GMT

काष् छापाकला की वापसी

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छले दिनों भोपाल में आयोजित एक बड़ी कला फ्रदर्शनी `विश्वरंग' में कुछ युवा कलाकारों के वुडकट माध्यम से तैयार छापा चित्रों को देखकर बेहद सुखद अनुभूति हुई। वैसे चित्र रचना की जो तकनीक दुनिया भर में फ्रचलित हैं, उन्हीं में से एक है छापाकला या छापाचित्र निर्माण। किसी भी सामान्य दर्शक के लिए तो लगभग सभी चित्र तूलिका से रंगों के फ्रयोग से सृजित ही समझे जाते हैं। लेकिन चित्र निर्माण के अन्य तरीकों के बारे में उन्हें कम ही जानकारी होती है। आज फ्रिंटिंग की जिस तकनीक का ज्यादा फ्रचलन है वह है कंप्यूटराइज्ड ऑफसेट फ्रिंटिंग, इससे कुछ पुरानी तकनीक थी छापाखाना वाली। किन्तु समझा जाता है कि सबसे पुरानी तकनीकों में से एक है वुडकट फ्रिंटिंग यानी लकड़ी के ब्लॉक के द्वारा कागज या कपड़े पर छपाई वाली। मानव सभ्यता में छपाई की इस तकनीक के आने के बाद दुनिया भर में जो बदलाव आए उसे ब्रिटिश कला समीक्षक पी.एच.मूर के इस कथन से समझा जा सकता है- छापाकला और छपाई कला का मानव संस्.ति और समाज पर अद्भुत फ्रभाव पड़ा, मानव के दैनिक जीवन की समस्याओं से लेकर विज्ञान की बड़ी-बड़ी खोजों को छपाई कला ने विश्व के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचाया। छपाई कला ने ही चाक्षुष कला को जन-जन तक फ्रकाशित किया। समाज में कला चेतना का विस्तार किया। मानव संस्.ति और सभ्यता को आगे बढ़ाने में छापाकला ने हमेशा ही संवाहक की भूमिका का निर्वाह किया है।

वैसे इस छपाई की आवश्यकता क्यों महसूस हुई और इसकी शुरुआत कैसे हुई, इसे समझने में हमें मदद मिलती है देश के मशहूर छापाचित्रकार फ्रो. श्याम शर्मा के इन शब्दों से- मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ .षि की उपयोगिता भी बढ़ने लगी। एक कबीले से दूसरे कबीले में एक परिवार से दूसरे परिवार में आवश्यकतानुसार वस्तु विनिमय फ्रारंभ हुआ। विनिमय पद्धति के लिए किसी वस्तु अथवा सिक्के की आवश्यकता समझी जाने लगी। यह सिक्का कबीले का फ्रतीक होता था जिस पर कबीले का चिन्ह अंकित होता था। धीरे-धीरे एक जैसे अनेक फ्रतीक चिन्हों की की आवश्यकता पड़ने लगी। इस ािढया में मानव को अधिक श्रम और समय लगता था। अतः मानव ने बहुत सोच विचार कर एक "प्पे की कल्पना को मूर्तरूप दिया। इस समय मिट्टी के पके हुए पात्रों का फ्रचलन हो चुका था। अतः मानव ने पकी हुई मिट्टी के "प्पे बनाना फ्रारंभ कर दिए। इन "प्पों पर वह आ.तियों का हाथ से निर्माण करने लगा। कबीलों की आ.तियों के फ्रतीक चिन्ह बनने लगे। इन पकी हुई मिट्टी "प्पों से उसने मिट्टी पर ही आ.तियां छापना फ्रारंभ कर दिया। इन मिट्टी पर छपी आ.तियों को आग में पकाकर कुछ स्थाई रूप दिया जाता था। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई में लगभग तीन सौ मिट्टी के सिक्के और उनके सांचे उपलब्ध हुए हैं, ये सिक्के गोलाकार तथा आयताकार हैं। इन पर मानव तथा पशुओं की आ.ति के साथ लिपि भी छपी है। इससे स्पष्ट है कि मानव सभ्यता और संस्.ति के साथ छापाकला का ाढमिक विकास होता गया।

अब अगर भारत में इस छापाकला के फ्रचलन की बात करें तो श्याम शर्मा के अनुसार विवरण कुछ यूं है- लंदन के फ्रसिद्ध संग्रहालय में दो सूती छपे वस्त्र फ्रदर्शित हैं। इतिहासकारों के अनुसार पहला वस्त्र दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व का माना जाता है जो राजगृह (बिहार) से फ्राप्त हुआ है तथा दूसरा वस्त्र तीसरी शताब्दी ईसा-पूर्व का है जो भारत के नागार्जुनकोंडा (आंध्रफ्रदेश) से फ्राप्त हुआ है। भारत में मध्ययुग में छपे वस्त्राsं का आयात मिस्त्र देश से होता था। कालांतर में छपे वस्त्र यूरोप से भी आने लगे जिन पर आकृतियां छपी रहती थी। आ"वीं शताब्दी गुप्तकाल में स्टेन्सिल माध्यम द्वारा कपड़ों पर अंकन होता था। भारत में 14 वीं शताब्दी पूर्व कागज का फ्रचलन नहीं था अतः छापे या चित्रांकन के लिए सूती कपड़ा या तालपत्र का फ्रयोग होता था। मुगल साम्राज्य के अंतिम काल में सजावट तथा चित्रांकन के लिए स्टेन्सिल पद्धति का फ्रयोग होता था। कुछ मुगल मिनियेचर (लघुचित्र) चित्रों के बाहर अलंकारिक बॉर्डर बनाने में स्टेन्सिल छापा पद्धति का फ्रयोग होने लगा। वैसे भारत में छापा कला और काष्" छापाकला का विधिवत इतिहास अंग्रेजों के भारत आगमन के बाद ही मिलता है।

लकड़ी के "प्पों या ब्लॉक द्वारा छपाई के कुछ शुरूआती फ्रमाण वर्तमान चीन से भी मिलते हैं, जिसका काल लगभग 220 ईसा पूर्व माना जाता है। वहीं चीन से छपाई की इस तकनीक के यूरोप पहुंचने का काल तेरहवीं सदी माना गया है। यूरोप में कागज पर सबसे पुराने छपे किसी मौजूदा चित्र की बात की जाए तो यह दर्जा इटली के एक चर्च में रखे फायर मैडोना शीर्षक चित्र को जाता है। आज के कंप्यूटराइज्ड दौर में क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि कभी पुस्तकों में फ्रयुक्त चित्रों की छपाई के लिए वुडकट माध्यम का उपयोग ही इकलौता तरीका था। जो लगभग 16वीं सदी के उत्तरार्द्ध तक जारी रहा, जब तक तांबे और जस्ते की चादरों पर एचिंग माध्यम से चित्र निर्माण की विधा का फ्रसार नहीं हो गया। किन्तु इन सबके बावजूद लगभग सन 1550 से कलाकारों द्वारा छापाचित्रों के निर्माण के लिए इस तकनीक को आज भी अपनाया जा रहा है। अलबत्ता आज एक बड़ा बदलाव यह आया है कि अब ज्यादातर छापा कलाकार रंगीन छापाचित्रों में रूचि रखने लगे हैं, जबकि अपने फ्रारंभिक दौर में इस माध्यम से सिर्फ श्वेत-श्याम चित्र ही बनाए जा सकते थे। वैसे वुड ब्लॉक से रंगीन छापा चित्रों की शुरुआत का श्रेय भी चीन को ही जाता है। बौद्ध विषय से जुड़ा इस ज्ञात फ्रारंभिक रंगीन चित्र का निर्माणकाल दसवीं सदी माना गया है। जबकि जर्मनी में 1508 में इस तकनीक से पहला रंगीन चित्र अस्तित्व में आ पाया। इस रंगीन वुडकट तकनीक का विकास जापान में भी खूब हुआ जहां इसे निशिकी-ई नाम से जाना गया। यहां तक कि 1860 तक आते आते यूरोप विशेषकर फ्रांस में इस कला की धूम सी रही। जिसने उस दौर के एडवर्ड माने, पियरे बोनार्ड, हेनरी डे लोत्रेक, एड्गर देगास, पॉल गांग्व और विंसेंट वानगॉग जैसे उस सदी के महान चित्रकारों तक को फ्रेरित किया। वैसे तो ब्रिटिश छापा कलाकार थॉमस विविक को कला जगत में काष्" उत्कीर्ण छापाचित्रों का फ्रयोग करने वाले पहला कलाकार माना गया है।

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