Home » रविवारीय » राजसत्ता बनाम बुद्धिजीवी आखिर कौन है महाबली?

राजसत्ता बनाम बुद्धिजीवी आखिर कौन है महाबली?

👤 manish kumar | Updated on:23 Dec 2019 11:55 AM GMT

राजसत्ता बनाम बुद्धिजीवी आखिर कौन है महाबली?

Share Post

जसत्ता और बुद्धिजीवियों के बीच समीकरण हमेशा से ही छत्तीस के रहे हैं। राजसत्ता को यही लगता है कि वह महाबली है, जिसे चाहे अपने दरबार की शोभा बना ले और बुद्धिजीवी यह सोचते हैं कि उन्हें सत्ता से क्या लेना देना, इसलिए वे महाबली हैं। हमेशा फ्रासंगिक रहा यह विषय मौजूदा दौर में कुछ ज्यादा ही फ्रासंगिक हो गया है। शायद यही वजह है कि विख्यात साहित्यकार असगर वजाहत के जेहन में यह सवाल एक बार फिर से सतह पर लौट आया कि इन दोनों में से महाबली कौन है या किसे होना चाहिए।

असगर वजाहत `जिन लाहौर नई वे ओ जन्माई नई' जैसे नाटक लिख चुके हैं। पिछले लगभग एक डेढ़ साल से उनकी लघुकथाओं ने भी अपनी फ्रतिबद्धता को जाहिर किया है। लिंचिंग, पुतला और बंदर जैसी लघुकथाएं लिखकर उन्होंने बताया है कि राजसत्ता क्या है और बुद्धिजीवियों के उससे कैसे रिश्ते होने चाहिए। असगर वजाहत कहते हैं कि फ्रतिरोध रचनात्मक होना चाहिए, अन्यथा उसका कोई अर्थ नहीं है। अपने फ्रतिरोध को दर्ज कराने के लिए ही असगर वजाहत के जेहन में एक नाटक लिखने का विचार आया। इतिहास के दो फ्रसंगों ने उन्हें अपनी तरफ आकर्षित किया।

पहला फ्रसंग तुलसीदास का है। उनका कालखंड 1532 से 1623 तक का है। तुलसीदास ने 16वीं शताब्दी में विचार के लोकतांत्रिकरण का जोखिम उ"ाया था। गौरतलब है कि तुलसीदास के रामचरित मानस लिखने से पहले रामकथा पर वर्ग विशेष का ही एकाधिकार माना जाता था। रामकथा आम लोगों के लिए सुलभ नहीं थी। ये लोग राम के आदर्शों और उसके संदेशों को जानने के लिए कथावाचक ब्राहम्णों पर आश्रित थे। लेकिन तुलसीदास ने इस एकाधिकार को तोड़ा और पूरे साहस के साथ तोड़ा। यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि तुलसीदास के समकालीन मुगल सम्राट अकबर (1542-1605) को उनके बारे में पूरी जानकारी थी। फ्रमाण के तौरपर अकबर द्वारा जारी राम टका है जिस पर राम और सीता के चित्र बने हुए हैं। दूसरा फ्रमाण यह है कि अकबर के नवरत्नों में से दो-अब्दुल रहीम खानखाना और राजा टोडरमल तुलसीदास के मित्र थे। उनके माध्यम से वह निश्तिच रूप से तुलसीदास के विषय में जानकारी हासिल करते रहे होंगे।

अकबर को फ्रतिभाओं को अपने दरबार में लाने का शौक था तो संभव है कि अकबर ने तुलसीदास को भी अपने दरबार में लाने का फ्रयास किया होगा। हालांकि इसके फ्रमाण इतिहास में नहीं मिलते। लेकिन असगर वजाहत ने `महाबली' नाटक लिखकर इस मुलाकात को साकार कर दिया है। इस नाटक में वह विचार का लोकतंत्रीकरण और राजसत्ता तथा कला के संबंधों को चित्रित करते हैं। नाटक की शुरुआत सोलहवीं शताब्दी के बनारस से होती है। यहां तुलसीदास और उनके शिष्य रामचरितमानस की चौपाइयों को श्रद्धालुओं के बीच सुना रहे हैं। नाटक के अलग-अलग दृश्यों में दिखाया गया है कि किस तरह तुलसीदास के फ्रति, चौपाइयों के फ्रति लोगों की आस्था लगातार बढ़ती जा रही है। लेकिन इसके समानांतर ही वहां रहने वाले अनेक पंडित और ब्राह्मण तुलसीदास के दुश्मन हो जाते हैं।

अलग अलग तरीकों से उन्हें काशी छोड़कर जाने के लिए उकसाया जाता है। उन्हें धमकियां तक दी जाती हैं। लेकिन तुलसीदास निरपेक्ष भाव से अपने काम में लगे रहते हैं। इस बीच अकबर के पास भी यह खबर पहुंचती है। सम्राट अकबर अब्दुल रहीम को यह हुक्म देते हैं कि तुलसीदास को सीकरी बुला लिया जाए। उन्हें इस तरह से संदेश दिया जाए कि उन्हें लगे कि उनके लिए सीकरी से बेहतर कोई जगह नहीं हो सकती। लेकिन तुलसीदास सीकरी आने के लिए तैयार नहीं होते। उधर सम्राट अकबर तुलसीदास को फ्रसन्न करने के लिए `राम टका' ढालने का आदेश देते हैं। इस पर राम और सीता के चित्र अंकित हैं। लेकिन तुलसीदास सीकरी आने के लिए किसी भी तरह तैयार नहीं होते। पूरे नाटक में असगर वजाहत ने संगीत और चौपाइयों का बहुत सुंदर फ्रयोग किया है।

नाटक के अंत में अपनी कल्पनाओं को साकार करते हुए असगर वजाहत शहंशाहे हिन्दुस्तान महाबली जलालउद्दीन अकबर की मुलाकात तुलसीदास से करवाते हैं। अकबर स्वयं तुलसीदास की झोंपड़ी में पहुंचते हैं। यहां अकबर कहते हैं, हुकूमतें सच नहीं सुनतीं..न सच बोलती हैं..न सच देखती हैं...लेकिन कभी कभी कोई सच की गिरफ्त में आ जाता है..सच का शिकार हो जाता है..गोस्वामी पता नहीं कब, कैसे और क्यों हम भी सच की गिरफ्त में आ गए थे...। दोनों के बीच संवाद होते हैं। अकबर कहते हैं, तुम जानते हो गोस्वामी हमने हिन्दुस्तान के कोने-कोने से ऐसे लोगों को अपना नवरत्न बनाया है जिन पर किसी को भी गर्व हो सकता है।

तुलसीदास जवाब देते हैं, महाबली क्षमा करें...क्या आप मुझे भी अपने गर्व का साधन बनाना चाहते हैं? तुलसीदास यह भी कहते हैं कि आपका आदेश होता तो मुझे गिरफ्तार करके सीकरी पहुंचा दिया जाता...अकबर जवाब देते हैं, वह हमारी शिकस्त होती। अकबर कहते हैं, जिस तरह एक मयान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं और एक मुल्क में दो बादशाह नहीं रह सकते, उसी तरह एक मुल्क में दो महाबली भी नहीं रह सकते। अकबर तुलसीदास को महाबली स्वीकार करते हैं। तुलसीदास अंत में कहते हैं, महाबली इन पोथियों में आपकी वीरता और शौर्य की ऐसी गाथाएं लिखी हुई हैं जो आपको अमर कर देंगी। वह यह भी कहते हैं कि हम इतिहास में नहीं रहेंगे महाबली, वर्तमान में रहेंगे महाबली वर्तमान में...सदा वर्तमान में...।

अंत में मंच पर कुछ नाचती गाती और दोहे का गान करती दो टोलियां आती हैः परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई, निर्नय सकल पुरान वेद कर, कहेउं तात जानहिं कोबिद नर। असगर वजाहत ने महाबली में राजसत्ता और कला के संबंधों को बेहद खूबसूरत ढंग से उकेरा है। एक तरफ इन संबंधों की जटिलताएं आपको दिखाई पड़ती हैं तो दूसरी तरफ रह रहकर आपके जेहन में वर्तमान दौर तैरता रहता है। आप फिलवक्त राजसत्ता और बुद्धिजीवियों के रिश्तों को खंगालने लगते हैं। तुलसीदास के इस संवाद `मैं वर्तमान में रहूंगा' के माध्यम से असगर वजाहत शायद आज के दौर में ऐसे बुद्धिजीवियों को तलाशना चाहते हैं जो किसी अकबर के हुक्म की तामील न करे या कम से कम अपनी पहचान और अपने काम को दरबार की शोभा न बनने दें। इस नाटक के माध्यम से असगर वजाहत राजसत्ता और कला के रिश्ते को दोबारा परिभाषित करते दिखाई पड़ रहे हैं जो आज अत्यंत जरूरी हो गया है।

Share it
Top