इकतीस दिसंबर की रात का कहर
ल के आखिरी दिन की रात जब हम जश्न के धूम धड़ाके में एक मुश्किल और हंगामेदार साल के गुजर जाने पर राहत महसूस कर रहे होते हैं, "ाrक उसी समय हम अपने को भुलावे में रखने के लिए या गुजरे पूरे साल की अपनी तमाम अनुशासनहीनताओं, गैरजिम्मेदारियों और लापरवाहियों की झेंप मिटाने के लिए कई ऐसे आदर्शपूर्ण संकल्प कर लेते हैं जो 1 लाख में से 99 हजार 999 के मामले में महज एक झू"ाr दिलासा, महज एक भुलावा या फाल्स होप सिंड्रोम ही साबित होता है।
आश्चर्यजनक किंतु सत्य शैली में दुनिया में साल के आखिरी रात में जितने लोग अगले साल के लिए बड़े-बड़े संकल्प लेते हैं,उन संकल्पधारियों में से एक फीसदी भी अपने किये गये संकल्पों पर खरा नहीं उतरते। शायद दुनिया में इससे बड़ा झूं"ा वायदा कोई भी नहीं होता, जो किसी और से नहीं हम अपने आपसे करते हैं। पूरी दुनिया में तमाम मनोवैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों ने इस पर विस्तृत अध्ययन किया है और यह जानने की कोशिश की है कि ऐसा क्यों होता है? हालांकि इसे जानना और समझना कोई बहुत बड़े व जटिल फार्मूले को डिकोड करना नहीं है, फिर भी सदियों से इसे दोहराये जाने के बावजूद हर साल एक बार फिर इसे आजमाने का उत्साह और रोमांच मनोविदों और समाजशास्त्रियों के लिए आश्चर्य का विषय है।
दुनिया में एक फीसदी लोग भी कभी साल की आखिरी रात पर किये गये संकल्पों पर खरे नहीं उतर पाते। इसके बावजूद हर साल दुनिया में 60 फीसदी से ज्यादा लोग साल की आखिरी रात में अगली सुबह के लिए एक से पर एक आकर्षक और आदर्शपूर्ण संकल्प लेते हैं। आखिर हर बार इतने बड़े पैमाने पर नये संकल्प लेने के लिए लोगों में ऊर्जा कहां से आती है और इसके लिए मनःस्थिति कैसे बनती है? मनोवैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों को यह सवाल हमेशा परेशान करता है। दुनियाभर के मनोविद, समाजशास्त्राr और पर्सनैलिटी गुरुओं ने फाल्स होप सिंड्रोम के बारे में जो कुछ तथ्य और निष्कर्ष एकत्र किये हैं, उनके मुताबिक बार बार अपने ही टूटे संकल्पों से परेशान होने की बजाय हर नये साल नये संकल्प लोग इसलिए कर लेते हैं क्योंकि भविष्य हमेशा से उम्मीदें बंधाने वाला होता है।
खास से लेकर आम लोगों तक में यह एक सहज पवृत्ति होती है कि हर कोई आज भले कुछ न कर सका हो, लेकिन आने वाले कल में बहुत कुछ कर सकने की उम्मीदों से लबालब होता है। हर कोई आशान्वित रहता है कि गुजरा हुआ कल भले कितना ही खराब रहा हो, लेकिन आने वाला कल उससे बेहतर होगा। यही वजह है कि कोई व्यक्ति कभी भी नये संकल्पों को लेकर न तो निराश होता है और न ही ऐसा करने पर हताश होता है, भले उसके एक, दो नहीं दर्जनों बार संकल्प टूट चुके हों। पूरी दुनिया में करीब 50 फीसदी लोग हर साल सुबह जल्दी उ"ने का संकल्प करते हैं जो अकसर देर से उ"ा करते हैं। करीब 55 से 60 फीसदी हर साल ऐसे लोग नये साल में मॉर्निंग वाक का भी संकल्प लेते हैं, जो गुजरे हुए सालों में या तो नियमित रूप से मॉर्निंग वाक नहीं जाते या बहुत अनियमित तरीके से जाते हैं। पलिखने से संबंध रखने वाले लेखक, बुद्धिजीवी और छात्र भी बड़े पैमाने पर हर साल संकल्प लेते हैं कि नये साल में वह कम से कम इतनी किताबें तो जरूर ही पमगर साल के अंत में पता चलता है कि डेसे दो फीसदी लोग ही अपने संकल्पों को पूरा कर सके हैं।
सवाल है आखिर क्यों लोग इकतीस दिसंबर की रात उम्मीदों का जो सुनहरा रास्ता बुनते हैं, उस पर अगले पूरे साल नहीं चल पाते? विभिन्न शोधों से पता चला है कि नये नये संकल्प करने वाले लोगों में से करीब 40 फीसदी लोग तो पहले या दूसरे दिन के बाद ही आगे नहीं बकरीब 30 से 35 फीसदी लोग एक हफ्ते तक अपने इस संकल्प को हैं। करीब 10 फीसदी लोग एक महीने तक इसके साथ ईमानदार रहते हैं और सिर्फ 4 से 5 पतिशत लोग ही ऐसे होते हैं, जो अपने संकल्पों का बोझ उ"ाकर फरवरी माह में पवेश करते हैं, जबकि एक फीसदी से भी कम ऐसे लोग होते हैं जो अपने इन संकल्पों के साथ मार्च माह में पहुंचते हैं। चूंकि यह स्थिति पूरी दुनिया में है, चाहे कोई विकसित देश हो, कम विकसित देश हो या अविकसित देश हो। अमरीका में भी लोगों के न्यू ईयर रेजोल्यूशन वैसे ही टूटते हैं जैसे घाना, कांगो और हैती के लोगों के संकल्प टूटते हैं। शायद इसीलिए लोग अपने संकल्पों के साथ इस तरह गैरईमानदार होने या रहने पर जरा भी शर्म या झिझक महसूस नहीं करते और अगले साल फिर से संकल्प उ"ाने की कवायद करते हैं।
दरअसल लोग अपने टूटे हुए संकल्पों से परेशान या विचलित नहीं होते हैं तो इसलिए क्योंकि वे खुद इसकी वजह जानते होते हैं। वास्तव में ज्यादातर लोगों के संकल्प सिर्फ इसलिए टूटते हैं; क्योंकि कोई भी व्यक्ति खुद में बदलाव करने के लिए कभी भी ईमानदारी और सहजता से तैयार नहीं होता। दूसरे शब्दों में हर किसी को बदलाव से जोखिम महसूस होता है और वे इसे टाल देते हैं। कभी आचार्य रजनीश ने कहा था कि 100 के 100 फीसदी लोग टालमटोल वाली पवृत्ति के होते है। लेकिन कुछ लोग इससे असहजता महसूस करके खुद को इसके विपरीत पवृत्ति का बनाने की कोशिश करते हैं। मतलब यह है कि टालमटोल इंसान की बुनियादी आदत है। फाल्स होप सिंड्रोम की एक वजह यह भी होती है कि लोग जब नये साल के लिए अपने संकल्प तय करते हैं तो वे बेहद अवास्तविक संकल्प तय कर लेते हैं। वे जानबूझकर अपनी क्षमताओं को लेकर मुगालते में रहते हैं। वे उन विचारों के पति अपनी निष्"ा दिखाने की झू"मू" में कोशिश करते हैं, जिन विचारों से उनका कोई वास्ता नहीं होता।
कुल मिलाकर देखें तो लोग संकल्पों के संदर्भ में खुद अपने आपको चकमा देते हैं। ..तो प्लीज भले आप ये न मानिए कि आप ऐसे हैं, लेकिन कम से कम इस साल इकतीस दिसंबर की रात खुद पर तब कोई संकल्पों का बोझ डालने की कोशिश न करें, जब आप आधे चेतन और आधे अचेतन की स्थिति में हों। अपने आपको बख्शें, स्वीकार करें कि आप कीमती हैं और संकल्पों के इस कहर को झेलने के लिए नहीं बने हैं। मगर यदि आदर्शों का कीड़ा कुलबुलाए और आपको मजबूर ही करें कि संकल्पों की माला पहननी है तो ईमानदारी से अपने आपको इसके लिए तैयार करें। यह तैयारी शारीरिक नहीं मानसिक होनी चाहिए। क्योंकि अगर दिमाग से आपने किये गये संकल्प को पूरा करने की "ान ली, तो फिर आप कभी फेल नहीं होगें। पर हां, वास्तविक या जमीनी संकल्प ही करें। हवाहवाई संकल्प तो आपकी तमाम दृसे भी पूरा नहीं होने वाला।
ऐसे सपने तो सिर्फ रोमांच के लिए लिखे जाते हैं और उसके लिए इकतीस दिसंबर की रात खर्च न करें। साल की इस आखिरी रात को इंज्वॉय करें और बड़े हल्के फुल्के अंदाज में नये साल की सुबह में जगें।