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बदलते दौर की फिल्मों में बदल गया है पैसे का कंटेंट

👤 Veer Arjun Desk | Updated on:22 Oct 2017 5:33 PM GMT

बदलते दौर की फिल्मों में  बदल गया है पैसे का कंटेंट

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कैलाश सिंह

हमारे जीवन में पैसे के मूल्य व महत्व को लेकर आज़ाद भारत में क्या परिवर्तन आए हैं? इस प्रश्न का बेहतरीन उत्तर हिंदी फिल्मों और उनमें पैसे के चित्रण के संदर्भ में आए बदलाव से दिया जा सकता है । अगर आप 50 व 60 के दशकों की क्लासिक फिल्मों पर गौर करें तो नायक गरीबी में पैदा होता या गरीबी उस पर थोप दी जाती, और उसके 'हीरो' होने का सबूत यह होता कि वह अक्सर सिर्फ इतना कमाता कि जिंदा रह सके और ऐसा करते में हमेशा ईमानदार रहता । फिल्म की पृष्ठभूमि ग्रामीण हो या शहरी, यही बात लागू होती थी । पैसा सिर्फ विलेन या खलनायक के पास होता था,जो रईस बने रहने व शोषण करने के लिए हर हथकंडा अपनाता था ।
फिल्म 'मदर इंडिया' में ना।गस का किरदार हो या 'नयादौर' में दिलीप कुमार व 'प्यासा' में गुरुदत्त के चरित्र हों, वे तमाम कठिनाइयों के सामने भी अपनी नैतिकता बनाये रखते हैं । पैसा उनके लिए मोह नहीं है, उन्हें उनके सही मार्ग से नहीं डिगाता है, भले ही ना।गस के लिए गरीबी में अपनी अस्मत बचाए रखना समस्या हो, दिलीप कुमार के लिए अपने समुदाय का रोज़गार बचाना समस्या हो या गुरुदत्त के लिए साहित्यक निष्ठा की सुरक्षा कठिन हो । उस दौर में एक अन्य प्रकार का हीरो भी था जो पैसे के चकाचौंध संसार में अपनी नैतिकता को बचाये रखने के लिए संघर्ष करता है,जैसे राजकपूर 'आवारा' में या देवानंद 'बाज़ी' में ।
श्रेणी चाहे नैतिकता बनाये रखने की हो या बचाये रखने के संघर्ष की हो, लेकिन जिनके पास पैसा था वह आमतौर से खलनायक, ज़मीदार या पूंजीपति होते थे। इसलिए 'मदर इंडिया' में हवस के पुजारी सुक्खी लाला (कन्हैयालाल) को ना।गस व उनके बच्चों की पीड़ा नज़र नहीं आती; 'नयादौर' में शहर से लौटे अमीरजादे कुंदन (जीवन) को इस बात की परवाह नहीं है कि आधुनिक टेक्नोलॉजी गांव की अर्थव्यवस्था को चौपट कर देगी; और 'प्यासा' में प्रकाशक घोष (रहमान) को बस मुनाफा चाहिए भले ही शायर को जेल में बंद कराकर उसे मृत घोषित करने की साज़िश करनी पड़े । संक्षेप में यह कि जब तक हीरो संघर्ष करने वाला व नैतिक मूल्यों को प्रमुखता देने वाला था, तब तक भ्रष्टाचार या टकराव या दोनों का स्रोत रईस आदमी था । 'श्री 420' में सेठ सोनाचंद ईमानदार राज को चमचमाती माया (नादिरा) के ज़रिए अपराध की दुनिया में धकेलने का प्रयास करता है ।
किरदारों का नाम 'सोनाचंद' व 'माया' रखकर यह बताने का प्रयास किया गया कि सोना (पैसा) कुछ नहीं है, बस माया है । और इसका एहसास आख़िरकार खलनायक को भी करा दिया जाता था । 'कालिया' में अमजद खान कहते हैं, "दौलतका पेड़ जब भी उगता है, पाप की ज़मीन में ही उगता है ।" अमिताभ बच्चन का जब दौर आया तो उन्होंने समाजवादी परम्परा को जारी रखने का प्रयास किया कि श्रमिक हीरो पूंजीवादी से टक्कर लेता है, जैसा 'कुली' में, लेकिन जब वह पैसा हासिल भी करते हैं तो भी उसका उद्देश्य शानो-शौकत का जीवन व्यतीत करना या अपनी आा।थक स्थिति में सुधार लाना नहीं है बल्कि अपने दिल के किसी ज़ख्म की भरपाई करना है । इसलिए 'त्रिशूल' में वह अपना बिज़नेस साम्राज्य इसलिए खड़ा करते हैं कि उस व्यक्ति को आा।थक रूप से बर्बाद कर दें जिसने दौलत की खातिर उनकी गर्भवती माँ को बेसहारा छोड़ दिया था ।
फिल्म 'दीवार' में पैसे की चाहत अपने बचपन की गरीबी से बदला लेने के लिए है । लेकिन इस फिल्म का क्लासिक डायलॉग स्पष्ट करता है कि पैसे से आप प्यार नहीं खरीद सकतेः "आज मेरे पास बिल्डिंगे हैं, प्रॉपर्टी है, बैंक बैलेंस है, बंगला है, गाड़ी है । क्या है, क्या है तुम्हारे पास?" तस्कर विजय (अमिताभ बच्चन) के इस सवाल के जवाब में ईमानदार पुलिसकर्मी (शशि कपूर) बस इतना कहकर उसे लाजवाब कर देता है, "मेरे पास माँ है।" इन फिल्मों का प्रयास भी अच्छे व बुरे पैसे में अंतर करना था, जो 'दीवार' के ही एक अन्य डायलॉग से स्पष्ट हो जाता हैः निरूपा राय अमिताभ बच्चन से कहती हैं, "तूबहुत बड़ा सौदागर है रे, लेकिन अपनी माँ को खरीदने की कोशिश मत करना।"
बहरहाल, जब नरसिम्हा राव की सरकार आा।थक उदारवाद का दौर लेकर आयी तो हमारे जीवन की तरह सिनेमा के पैसा संबंधी कंटेंट में भी बदलाव आ गया । 'दीवार' का हीरो अगर 'फेंके हुए पैसे' उठाने से इंकार कर देता है तो आा।थक उदारवाद के दौर में आयी फिल्म का हीरो (रणबीर कपूर) 'वेकअप सिड' में अपना परिचय इस प्रकार कराता है, "मैं? मैं अपने डैड के पैसे खर्च करता हूं ।" दूसरे शब्दों में अब वह दौर आ चुका था जब पैसा होना व उसे हासिल करने के लिए प्रयास करना, चाहे तरीका जो भी हो, ठीक व स्वीकार्य होने लगा । अब पैसा किसी भावनात्मक उद्देश्य की पा।त के लिए नहीं था । मणि रत्नम की 'गुरु' का मुख्य किरदार (संभवतः धीरूभाई अम्बानी पर आधारित) मशीन के पार्ट्स की तस्करी करता है व स्टॉक मा।कट को अपने इशारे पर चलाता है - वह अब खलनायक नहीं है बल्कि हीरो है।
'रईस' में भी अवैध शराब बेचने वाला गैंगस्टर हीरो के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जो व्यवसायिक समाज का नतीजा है । अब माँ भी आदर्शवादी नहीं है, वह सिंगल है और अपने बेटे को सिखाती है, "हमारे लिए कोई धंधा छोटा नहीं होता, और धंधे से बड़ा कोई धर्म नहीं होता ।" पैसे ने धर्म, नैतिकता आदि 50 के दशक के सभी आदर्शों पर पानी फेर दिया है । पैसे ने नए भारत में अमीर और गरीब के बीच बहुत चौड़ी खाई बना दी है । यही बात बॉलीवुड की फिल्मों में भी नज़र आ रही है । सैफ अली खान (शेफ) या रणबीर कपूर (तमाशा) के पास बहुत अधिक पैसा है और वह पैसे से ऊपर उठकर आत्म की तलाश में हैं, लेकिन दूसरी ओर जिनके पास पैसा नहीं है वह चोरी करके (ओए लकी, लकी ओए) या ड्रग्स बेचकर (फुकरे) या हिंसक अपराध करके (फंस गये रे ओबामा) अमीर बनने का प्रयास कर रहे हैं।

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