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दो मूर्तियां बयां करती हैं सिंधु घाटी सभ्यता का वैभव

👤 Veer Arjun Desk | Updated on:7 Jan 2018 4:16 PM GMT

दो मूर्तियां बयां करती हैं  सिंधु घाटी सभ्यता का वैभव

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सुमन कुमार सिंह

सिंधु घाटी सभ्यता के महत्वपूर्ण स्थल मोहनजोदड़ो या मुअनजोदड़ो से जो मूर्तिशिल्प मिले हैं, उनमें महत्वपूर्ण हैं- एक पुरूष फ्रतिमा जिसे फ्रीस्ट किंग यानी पुजारी राजा या याजक नरेश के नाम से जाना जाता है तो दूसरी है लगभग 10.5 सेंटीमीटर की नृत्यांगना की कांस्य फ्रतिमा है। इन फ्रतिमाओं के बारे में वरिष्" पत्रकार व लेखक ओम थानवी जी अपनी पुस्तक मुअनजोदड़ो में लिखते हैं- मुअनजोदड़ो की दो जगत विख्यात कृतियां देखिए, गुलकारी के दुशाले में `याजक नरेश' (फ्रीस्ट किंग) और कांसें में ढली निर्वसन युवती, जिसे ना जाने किस ख्याल से नर्तकी (डांसिंग गर्ल) करार दिया गया है। गर्व से तना मस्तक, बंद आंखें, मोटे हों", कंधे पर झूल आयी वेणी, गले में हार, एक हाथ कमर पर, दूसरे हाथ में कंधे तक कंगन और आगे को बढ़ा पांव। इन दोनों मूर्तियों को मैंने बार-बार देखा है। नरेश की तराशी हुई दाढ़ी, अधखुली आंखें, मोटे हों", ललाट व बांह पर आभूषण और दुशाले के फूल। यह मूर्ति कराची में पिछली यात्रा में देखी थी। युवती की मूर्ति दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में है। कुल जमा छह अंगुल का आकार यानी एक पेंसिल से भी आधा। लेकिन अपनी आभा में मानो पूरे संग्रहालय पर भारी।
बहरहाल यहां हम बात करते हैं नर्तकी की फ्रतिमा की। वर्ष 1926 में फ्राप्त इस फ्रतिमा की खोज का श्रेय जाता है, ब्रिटिश पुरातत्ववेत्ता अर्नेस्ट मैके को। यूं तो यह फ्रतिमा नृत्य मुद्रा में नहीं है, किन्तु इसके रंग-ढंग के आधार पर यह माना गया है कि यह किसी नृत्यांगना या नर्तकी की फ्रतिमा है। इसके लंबे हाथ पैर, दुबला शरीर, पतली कमर, कंधे पर लटकता जूड़ा, चपटी नाक और भारी या मोटे हों" हैं शरीर पर कोई वस्त्र नहीं है। फ्रतिमा के बाएं हाथ में कोहनी तक 24-25 चूड़ियां हैं और जो दूसरा हाथ कमर पर है उसमें कोहनी और बाजू में कुल चूड़ियों की संख्या चार हैं। साथ ही इस फ्रतिमा के गले में झूलता कं"हार भी है। ब्रिटिश पुरातत्ववेत्ता मोर्टिमर व्हीलर के शब्दों में- मुझे लगता है कि यह लगभग 15 वर्षीय लड़की है इससे ज्यादा की नहीं। उसकी बांहें सिर्फ चूड़ियों से भरी हैं कुछ और नहीं (यानि निर्वसन) लेकिन वह अपने आप में पूरे आत्मविश्वास से भरी हुई है। मेरी समझ से दुनिया में इस तरह का दूसरा कोई उदाहरण नहीं है। वहीं जॉन मार्शल कहते हैं- कमर पर हाथ रख कुछ गर्वीले अंदाज में खड़ी यह युवती, जैसे अपने संगीत और पैरों की थाप से वह समय को परास्त कर देगी। उनके अनुसार जब मैने इसे पहली बार देखा तो मेरे लिए यह विश्वास करना क"िन था कि यह फ्रागैतिहासिक काल की फ्रतिमा है। विदित है कि यह फ्रतिमा अभी राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली के संग्रह में है। यह उन धातु फ्रतिमाओं में से एक है जो मुअनजोदड़ो से पायी गयी थीं।
दूसरी फ्रतिमा वर्तमान में पाकिस्तान के कराची संग्रहालय में है। नर्तकी की इस फ्रतिमा पर भी पाकिस्तान अपना दावा पेश कर यह मांग करता रहा है कि यह फ्रतिमा उन्हें वापस दी जाए। वैसे पिछले दिनों कुछ इतिहासकारों ने यह भी दावा किया था कि यह पार्वती की फ्रतिमा है। उन्होंने इसके समर्थन में अपने तर्क भी सामने रखे लेकिन अधिकांश इतिहासकारों ने उनके इस दावे को तवज्जो तक नहीं दी। देखा जाए तो यह फ्रतिमा कई मायनों में इस दौर की अन्य फ्रतिमाओं से काफी भिन्न है। कुछ स्कॉलर मानते हैं कि यह कोई काल्पनिक पात्र नहीं किसी महिला की वास्तविक फ्रतिमा है। हालांकि इन स्थानों से हजारों की संख्या में मूर्तियां और खिलौने पाए गए हैं। लेकिन इनमें ज्यादातर टेराकोटा (पकी हुई मिट्टी) की मातृदेवी फ्रतिमायें हैं, जिन्हें उर्वरता की देवी के रूप में चिन्हित किया गया है। इनके यौनांगों, नाभि, भारी वक्ष और चौड़े कूल्हों को मुखरता से उभारा गया है, जो मातृत्व की निशानियां मानी जाती हैं।
लेकिन पत्थर में तराशी गई पुरूष फ्रतिमा फ्रीस्ट किंग या पुजारी राजा और नर्तकी की फ्रतिमा उस काल की शिल्पकला के सर्वेत्तम नमूने हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि नर्तकी की यह फ्रतिमा उस काल की किसी वास्तविक महिला की फ्रतिमा है, कोई काल्पनिक, अनुष्"ानिक या मिथकीय चरित्र का अंकन नहीं। यही नहीं जहां कुछ जानकार यह मान रहे हैं कि यह महिला किसी अफ्रीकन समाज की है तो मोर्टिमर व्हीलर इसे बलोच महिला के रूप में चिन्हित करते हैं। यह फ्रतिमा जिन दो बातों को फ्रमाणित करती है वह एक तो यह कि उस दौर में यहां के लोग धातु की खोज कर चुके थे और उसका उपयोग करने लगे थे। दूसरा यह कि मनोरंजन विशेषकर नृत्य उनकी संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका था। इस फ्रतिमा को बनाने में जिस तकनीक को अपनाया जाता था उसे हम लॉस्ट वैक्स फ्रोसेस के नाम से जानते हैं। समझा जाता है कि इस काल तक चांदी, सोना, तांबा, रांगा और सीसा जैसे धातुओं को तैयार करने की विधि विकसित हो चुकी थी। अपनी पुस्तक मध्य एशिया के इतिहास में राहुल सांकृत्यायन ने वर्णन किया है- तांबे के निर्माण के साथ-साथ मानव पाषाण युग से धातु युग में ही नहीं आया बल्कि वह अब वैज्ञानिक युग का मानव बन गया। तांबा बनाना रसायनशास्त्र का बाकायदा फ्रयोग है। इसके साथ मानव के शिल्प में विशेष परिवर्तन हुआ।
संस्कृत और पालि के पुराने ग्रंथों में लौह का अर्थ तांबा होता है। इस फ्राचीनतम धातु के लिए भारतीय आर्यों की भाषा में अयस शब्द का भी फ्रयोग होता था, जो कि पीछे केवल लोहे के लिए बरता जाने लगा। नर्तकी स्त्रियों की इन कांस्य फ्रतिमाओं व अन्य मूर्तिशिल्पों के आधार पर यह अनुमान लगाया जाता है कि महिलायें बालों का एक बड़ा जूड़ा बनाकर बायें कान के पास से दाहिने कंधे तक लटका लेतीं थी। गहनों में मुख्यतः हार, बाजूबंद, मांगपट्टी, सीसफूल, मटरमाला, अंगू"ियां, करधनी, कानों की बालियां और नुपूर या पाजेब पहनते थे। धनी लोग जहां गहनों के लिए सोने-चांदी, हाथीदांत व कीमती पत्थरों का उपयोग करते थे वहीं आमजन शंख, हजाr और मिट्टी (पकी हुई) जैसी आसानी से उपलब्ध चीजों का फ्रयोग करते थे।

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