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घर का काम, आखिर कब तक रहेगा बेदाम

👤 Veer Arjun Desk | Updated on:4 March 2018 4:11 PM GMT

घर का काम, आखिर कब तक रहेगा बेदाम

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वीना सुखीजा

साल 2015 में मद्रास हाईकोर्ट ने गृहिणियों के कामकाज को लेकर एक बेहद गम्भीर टिप्पणी की थी। दरअसल एक साल पहले मदुरै में एक हाउस वाइफ की सड़क दुर्घटना में मौत हो गयी थी। उसके पति ने ट्रिब्यूनल में क्षतिपूर्ति की अपील दायर की, जिसे 1 लाख 62 हजार रुपये का मुआवजा दिया गया। पति को मुआवजा मंजूर नहीं हुआ। मामला हाईकोर्ट गया जिसने इसे बढ़ाकर 6 लाख 86 हजार कर दिया। साथ ही टिप्पणी की कि ट्रिब्यूनल ने महिला के काम के महत्व को कम करके आंका, यह सही नहीं है।
लेकिन यह एक ट्रिब्यूनल की गलती नहीं थी। भारत सरकार के संग"न नेशनल सैंपल सर्वे ने अपने सालाना राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएसओ) के 68वें पा में इस सम्बन्ध में व्यापक आंकड़े जुटाए थे, जो बताते हैं कि महिलाएं चाहे शहरों में रहती हों या गांवों में वो पुरुषों से ज्यादा ही काम करती हैं। लेकिन इसका दाम तो छोडिये उनको इसका मान भी नहीं मिलता। एनएसएसओ के आंकड़े एक और गलतफहमी दूर करते हैं, वह यह कि शहरी महिलाएं शिक्षित होने के नाते दफ्तरी काम यानी घर से बाहर के ज्यादा काम करती हैं ? आंकड़ों से मालूम होता है कि ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्र की महिलाएं घरेलू काम कहीं ज्यादा करती हैं। इस सर्वे से पता चला था कि 64 फ्रतिशत शहरी महिलाएं जो 15 वर्ष व उससे अधिक की हैं, घरेलू कामकाज में व्यस्त रहती हैं जबकि ग्रामीण क्षेत्रों के लिए तब यह फ्रतिशत महज 60 था। इन आंकड़ों से मालूम होता है कि ज्यादातर महिलाएं घरेलू कामकाज में ही व्यस्त रहती हैं, जिसका उन्हें कोई आर्थिक लाभ नहीं मिलता है। इन आंकड़ो से इस मांग को बल मिलता है कि घरेलू कामकाज को श्रम माना जाए और महिलाओं को इसका मेहनताना दिया जाए जैसा कि हाल के सालों में बार बार मांग की जाती रही है। गौरतलब है कि दोनों ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में लगभग 92 फ्रतिशत महिलाएं अपना ज्यादातर समय घरेलू काम में व्यतीत करती हैं।
गौरतलब है कि गृहिणियों के पारिश्रमिक को लेकर सुफ्रीम कोर्ट अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कह चुका है, `एक हाउस वाइफ का भी देश की अर्थव्यवस्था में अहम योगदान है, उसके काम को अनुत्पादक मानना गृहिणी मात्र के साथ भेदभाव है।' इसी आधार पर कुछ साल पहले दिल्ली की तीस हजारी अदालत ने एक सड़क हादसे में गृहिणी की हुई मौत पर बतौर मुआवजा 7.33 लाख रुपये उसके परिजनों को दिए जाने का आदेश दिया था। इस तरह करीब दस साल पहले गृहिणी की आय को अदालत ने फ्रति माह छह हजार रुपये के हिसाब से आंका था। 1989 के `लता बधवा बनाम स्टेट आफ बिहार' केस में सुफ्रीम कोर्ट ने महिला की आय 3,000 रुपये फ्रति माह आंकी थी, जिसे बढ़ती महंगाई को ध्यान में रखकर तीस हजारी कोर्ट ने 6,000 कर दी थी।
सवाल है क्या इन अदालती फैसलों का रोजमर्रा की जिन्दगी में कोई मतलब है ? सच्चाई यही है कि अदालतों ने कुछ भी कहा हो और फैसला भी कुछ दिया हो लेकिन व्यवहारिक रूप से हमारे समाज में इन्हें जरा भी महत्व नहीं दिया जा रहा ? बावजूद इसके कि पुरुष जहां रोजाना औसतन नौ घंटे काम करता है वहीं महिलाएं 16 घंटे घरेलू मोर्चे पर खटती हैं। हमारे यहां हमेशा से महिला श्रम के साथ भेदभाव होता रहा है। पिछले साल यूनाइटेड नेशन डेवलपमेंट फ्रोग्राम ने कहा था कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 2.5 से 5 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है अगर महिलाओं को रोजगार और आर्थिक गतिविधियों में पुरुषों के बराबर महत्व दिया जाय। दरअसल हमारे यहां अर्थव्यवस्था में महिलाओं के आर्थिक योगदान को मापने का कोई सही पैमाना ही नहीं है। जबकि 2011 की जनगणना के हिसाब से देखें तो भारत में कुल 48.18 करोड़ कार्यशील लोगों में से 31 फ्रतिशत महिलाएं थीं जो कि करीब 15 करोड़ बनती थीं।
लेकिन जनगणना के उन्हीं आंकड़ों से यह भी पता चल रहा था कि 15 से 59 वर्ष के आयु वर्ग में जो कुल 30.31 करोड़ लोग थे,वे उस समय किसी काम में भाग नहीं ले रहे थे। दूसरे शब्दों में ये गैर-कामगार थे। इनमें 22.20 करोड़ यानी 73 फ्रतिशत महिलायें थीं। जबकि इन गैर कामगार महिलाओं में 97.6 प्रतिशत महिलायें गृहिणी थीं मतलब यह कि ये हर दिन 14 से 16 घंटों तक खाना बनाने, बर्तन एवं कपड़े धोने, बच्चों की देखभाल करने, पीने के लिए पानी भरने, घर की सफाई करने और कपड़े धोने का काम कर रही थीं। मगर उन्हें कामगार नहीं माना गया था। इसी जनगणना के आंकड़ों से यह भी पता चला था कि कामकाजी पुरुषों में से सिर्फ 2.4 प्रतिशत पुरुष ही घरेलू काम में हाथ बंटाते हैं जबकि 76 प्रतिशत महिलायें नौकरी करने के बाद भी घर के सभी काम करती हैं। शायद यह दोहरी मेहनत से ही उकताकर एनएसएसओ के सर्वे में 34 फ्रतिशत ग्रामीण महिलाओं ने इस बात की इच्छा व्यक्त की कि अगर उन्हें घर पर ही कोई अन्य काम दिया जाए तो वह खुशी से उसे स्वीकार कर लेंगी। इसी तरह की इच्छा 28 फ्रतिशत शहरी महिलाओं ने भी व्यक्त किया था। इस सर्वे से तब पता चला था कि मात्र 8 फ्रतिशत महिलाएं ही ऐसी हैं जिन्हें अपना ज्यादातर समय घरेलू काम करते हुए गुजारना नहीं पड़ता है यानी ये वे खुशनसीब महिलायें हैं जो सिर्फ नौकरी करती हैं।
यह बात पहले भी कई बार कही जा चुकी है कि अगर साल 2020 तक भारत को एक बड़ी आर्थिक ताकत बनना है तो हमें अपने देश की महिलाओं के श्रम की महत्ता को समझना होगा। लेकिन समझने से मुराद महज मुंहजुबानी शाबाशी देना या ये कहना नहीं है कि सब कुछ तुम्हारा ही तो है। वास्तव में हमें महिलाओं के श्रम को आर्थिक दृष्टि से बराबर का सम्मान देना होगा। साथ ही उन्हें तमाम आर्थिक गतिविधियों में बराबर का महत्व और हैसियत देना होगा महिलाएं अगर बड़े पैमाने पर उत्पादक यानी नकदी श्रम का हिस्सा बन जाती हैं तो इससे न सिर्फ अर्थव्यवस्था को जबरदस्त सामाजिक और नैतिक बल मिलता है बल्कि अर्थव्यवस्था के बहुआयामी विकास का रास्ता भी साफ होता है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि महिलाएं पुरुषों से कहीं ज्यादा सकारात्मक सोच की होती हैं। इसलिए कहा जाना चाहिए कि अब वह वक्त आ गया है कि महिलाओं के श्रम को न सिर्फ भावनात्मक और सांस्कृतिक रूप से समझा जाए व मान दिया जाए बल्कि उनके श्रम को आर्थिक और सामाजिक रूप से भी पुरुषों के बराबर रखा जाए।

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