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उम्मीदों के बोझ चरमराते हिन्दुस्तान के शहर

👤 Admin 1 | Updated on:17 Jun 2017 5:55 PM GMT

उम्मीदों के बोझ चरमराते   हिन्दुस्तान के शहर

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निनाद गौतम

क्या आपको मालूम है कि देश के जितने महानगर हैं उनमें से किसी के पास अपने कर्मचारियों को समय से वेतन देने के लिए खजाने में पैसे नहीं हैं। जी हां, यह सबसे बड़ी सच्चाई है और तो और ब्रहन्न मुंबई नगर महापालिका के पास तक, जिसका सालाना बजट देश के तमाम फ्रांतों से ज्यादा होता है और जिसके पास आय के पटना के मुकाबले 21 रास्ते ज्यादा हैं, उस मुंबई में भी म्युनिस्पल कर्मचारियों को समय से वेतन नहीं मिलता। दरअसल बीएमसी (बॉम्बे म्युनिस्पल कारपोरेशन) के पास अपने कर्मचारियों को समय पर तनख्वाह देने के लिए पैसे नहीं होते। यही वजह है कि महानगरपालिकाओं के स्कूलों के अध्यापकों की तनख्वाहें 4-4, 6-6 महीने तक लेट हो जाती हैं। पैसों की कमी और समय से वेतन न दे पाने के कारण ज्यादातर म्युनिस्पलटी कर्मचारी अक्सर हड़ताल के मोड में रहते हैं। वेतन समय से न दे पाने कारण देश के तमाम म्युनिस्पल कार्पोरेशनों को कर्मचारियों का गुस्सा तो झेलना ही पड़ता है, हर साल 10 से 20 प्रतिशत तक कार्यदिवसों का नुकसान होता है।

अब सवाल है कि शहरों के पास आखिर पैसा क्यों नहीं होता ? उसकी कई वजहें हैं।एक बड़ी वजह तो भ्रष्टाचार है जिसके चलते कलेक्शन सही से नहीं होता।देश के तमाम शहरों में सिर्फ 40 से 55 प्रतिशत तक ही पानी के बिल कलेक्ट हो पाते हैं। दूसरी बड़ी वजह है कि हर जगह कर्मचारी बहुत हैं यानी कमाई पर बोझ ज्यादा है तथा कार्य निष्पादन बहुत कम है। लेकिन इन सबसे बड़ी बात यह है कि शहरों की आबादी बहुत तेजी से बढ़ रही है और शहरी ढांचा दिन पर दिन चरमराता जा रहा है। दरअसल हमारे शहरों की आबादी 20 से 35 प्रतिशत सालाना तक बढ़ रही है। जबकि हमारे पास बुनियाद से बसाए गए एक-दो कोई शहर नहीं हैं। हमारे तमाम शहर मुगल या ब्रिटिश शासन के दौर के हैं। ये तमाम शहर बहुत पहले ही अपनी एक्सपायरी डेट को ाढा@स कर चुके हैं। लेकिन नियम से क्या होता है। हमारे पास नियम को लागू करने या मान लेने की सुविधा भी तो हो।

विश्व बैंक की एक ताजा रिपोर्ट बताती है कि भारत में शहरों का विकास बहुत ही बेतरतीब ढंग से हुआ है और हो रहा है। लेकिन देश का आम नागरिक इस सच्चाई को जानकर भी क्या करे ? देश के हुक्मरान इस मामले में खुशनसीब हैं क्योकि उन्हें कुछ भी नहीं करना पड़ा। अंग्रेज जहां रहते थे। उनके बाद सारी की सारे वह व्यवस्था हमारे देशी शासकों ने खुद कब्जा लिया, इसलिए उन्हें कोई बहुत परेशानी नहीं हुई, क्योंकि आज भी दिल्ली का लुटियन जोन या दूसरे शहरों के पुराने पॉश इलाके वैसे का वैसे ही कम दबाव में हैं। आवास से लेकर सड़कें तक आज भी इन इलाकों में ज्यों की त्यों हैं जैसा अंग्रेजों के समय या मुगलों के समय था।

देश के ज्यादातर शहर चाहे वह दिल्ली हो या कोलकाता आज भी वैसे ही हैं बुनियादी रूप में जैसे सौ साल पहले थे। समय के साथ-साथ बहुत कुछ बदल गया है लेकिन तमाम शहरों का पॉश इलाका ज्यों का त्यों है। जबकि इन्ही शहरों के आम इलाकों की हालत दिनोंदिन बदतर होती जा रही है। बेतरतीब ढंग से बसी कालोनियां। बुनियादी सुविधाओं का हाहाकार, व्यवसायिक गतिविधियें की धक्कमपेल हमारे शहरों की स्थाई पहचान बन गयी है। बिना किसी नियम कानून के जिसके जो जहां मन में आता है वह वहां मकान, रास्ता, पार्क, खेत, गली, व्यावसायिक फ्रतिष्"ान, अस्पताल आदि निकालकर देश के विकास में अपना महती योगदान दे रहा है। हालत यह है कि एक तरफ सरकार स्मार्ट सिटी का शगूफा छोड़े हुए है दूसरी ओर अपनी सुविधानुसार लोगों ने रातोंरात पार्क और सड़क व गली कूचे तक गायब कर को"ियां व व्यावसायिक फ्रतिष्"ान खड़े कर लिए हैं। अपने देश में 95 फीसद शहरों का विकास इसी अंदाज में हुआ है।

यही कारण है कि अधिकांश शहर बेहद संकरे व अनियंत्रित, भारी-भरकम आबादी वाले हैं। लेकिन इन्ही शहरों में रसूखदार अभिजात्य वर्ग ने अपने लिए अलग से वही व्यवस्था बरकरार रखी है जो अंग्रेजों ने अपने लिए मुकर्रर की हुई थी। देश की राजधानी को ही लें। मध्य नई दिल्ली के करीब 9,800 एकड़ में 1,600 से 2000 के आसपास आलीशान बंगले हैं जो कि अ्रग्रेजों ने खास अपने उच्च स्तरीय हुक्मरानों के लिए बनवाए थे। लेकिन बाकी दिल्ली का कितना बुरा हाल है,छिपा नहीं है। लुटियन जोन को छोंड दें तो दिल्ली के ज्यादातर इलाकों में संकरी व तंग गलियां हैं, जिनमें घरों के बाहर गाड़ियां खड़ी करने के बाद पैदल आवाजाही तकरीबन मुश्किल हो जाती है। चांदनी चौक, दरियागंज, लाजपत नगर आदि इलाकों में कई क्षेत्र उत्तर फ्रदेश के पुराने शहरों को भी अव्यवस्था और भीडभाड़ में मात देते हैं।

कई-कई जगह तो सड़कें ही बिलकुल खत्म हो गई हैं।गलियां नालों में तब्दील हो गई हैं। 1990 के दशक से विकसित हो रहे गुड़गांव का उदाहरण सामने है, जहां निजी व सरकारी क्षेत्र ने बड़ी तेजी से अव्यवस्थित तथा बेतरतीब ढंग से विकास किया है। आम जनता व मध्यम वर्ग के लिए जहां अनाप-शनाप ढंग से कालोनियां काटी गई हैं वहीं अभिजात्य वर्ग की आलीशान को"ियां बड़ी शानदार ढंग से बेहद चौड़ी व साफ-सुथरी सड़कों एवं पार्किग समेत निर्मित की गई हैं। यही नोयडा और गाजियाबाद में हुआ है। कोलकाता और मुंबई से लेकर देश के तमाम बड़े महानगरों में यही हालत है। अंग्रेजों ने अपने लिए देश के हर फ्रमुख कोनों में कई-कई एकड़ में आलीशान शाही आवास निर्मित कराए थे जो आज तक पूरी शानो शौकत के साथ बरकरार हैं। जब अंग्रेजों ने दिल्ली के कुछ चुनिंदा हिस्से का पुनर्निर्माण कर उसे नई दिल्ली के रूप में विकसित किया तो राजसी शक्ति के फ्रतीक के तौरपर शहर के बिल्कुल बीचोंबीच शानदार वायसराय हाउस बनाया जो कि बाद में राष्ट्रपति भवन बन गया। राष्ट्रपति भवन व उसके आसपास के इलाकों की सैंकड़ों एकड़ भूमि स्वर्गिक छटा लिए हुए है, जबकि उसके किनारे और अन्य आसपास रहने वाले लोग घनी, मलिन व विस्थापितों जैसी बस्तियों में जैसे-तैसे जिंदगी काट रहे हैं।

कहते हैं फ्रथम फ्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने नई दिल्ली को ब्रिटिश ताकत का फ्रतीक बताते हुए कहा था कि इसका नए सिरे से पुनर्निर्माण होना चाहिए। लेकिन इसके बाद की जानकारियां मौन हैं यानी यह नहीं पता कि किसकी वजह से जवाहरलाल बस यह बात सोचते ही रह गए इसे अमली जामा न पहना सके ? इस सवाल का जवाब है किसी की वजह से नहीं गुलामी और शोषण का फ्रतीक कहना तो बस एक रस्म भर थी। दरअसल कोई भी हुक्मरान नहीं चाहता कि जब वह सत्ता में हो तो वह अंग्रेजों से कोई कम दिखे। इसलिए अंग्रजों के "ा"-बा" को बरतना हर किसी की ख्वाहिश थी वह तो जनता को बरगलाने के लिए बीच-बीच में कुछ ाढांतिकारी जुमलों की छौंक भर लगानी होती है। यही वजह है कि एक दो जुमले छोड़कर नेहरू की सरकार और वो खुद शानदार ब्रिटिश आवासों में रहने चले गए।

केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय की नई दिल्ली समेत भारत के 40 बड़े नगरों को पुनः निर्मित करने के लिए 29,000 करोड़ रुपये की एक योजना लागू करने की बात कर रही है।किसी भी दल या नेता ने इसका विरोध नहीं किया है, क्योंकि यह योजना अभिजात्य वर्ग के लिए है। पर आम नागरिक के लिए सरकार के पास इस तरह की कोई योजना नहीं है। चंडीगढ़ एकमात्र ऐसा शहर है जो पूर्णतया योजनाबद्ध तरीके से बसाया गया। जयपुर भी काफी हद तक ऐसा ही है, परन्तु अब इन शहरों में भी बेतरतीबी अपना कब्जा जमाती जा रही है। चंडीगढ़ अपने मूल स्वरूप से काफी परिवर्तित हो चुका है और वहां भी जगह-जगह अपामण, अवैध निर्माण तथा बेतरतीब रिहाइश बढ़ती जा रही है। दरअसल ऐसा होना भी लाजिमी है क्योंकि इन व्यवस्थित शहरों में उन लोगों के लिए कोई गुंजाइश नहीं बनाई जाती जो कि शहर को सािढय बनाये रखने के लिए कामकाज करते हैं।

भारत में धन का अपव्यय व बेतरतीब विकास का सबसे ज्वलंत उदाहरण है,फार्मूला वन रेस के लिए ट्रैक।दिल्ली से सटे नोयडा में यह करोड़ों डॉलर खर्च करके एक बिल्कुल अलग ढंग से विकसित व निर्मित किए गए। साल में केवल दो दिन इस्तेमाल करने को बनाया गया दिल्ली का रेसिंग ट्रैक मुकम्मल तौरपर सिंगापुर ही नहीं अन्य तमाम उन्नत देशों से बेहतर है पर शहर व निर्माणकर्ताओं को शायद ही इससे कोई लाभ हुआ होगा। दरअसल यह हमारे हुक्मरानों की सोच का आइना है कि उनकी फ्रियोरिटी क्या है ?

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