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कब तक दबाव में रहेगा रुपया

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:9 Sep 2018 3:06 PM GMT

कब तक दबाव में रहेगा रुपया

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आदित्य नरेन्द्र

हर देश की करेंसी की एक वाजिब कीमत होती है जो उस देश की माली हालत को बयां करती है। लेकिन कई बार इन करेंसियों में असमय ही अप्राकृतिक उतार-चढ़ाव आ जाते हैं जिन्हें उस देश की सरकार या विश्व समुदाय ज्यादा तूल नहीं देता क्योंकि इन्हें कोर्स करेक्शन करने वाला माना जाता है। समझा जाता है कि कुछ उतार-चढ़ाव के बाद उस करेंसी की उचित विनिमय दर तय हो जाएगी। लेकिन कई बार मामला इतना सीधा और सपाट भी नहीं होता। क्योंकि अकसर किसी भी करेंसी में बदलाव घरेलू कारणों के साथ-साथ वैश्विक कारणों से भी आता है। आजकल रुपए के साथ भी यही हो रहा है। रुपया गुरुवार को कारोबार के दौरान 72.10 रुपए प्रति डॉलर के सबसे निचले स्तर को छू गया। रुपए का इतना गिरना भारतीय अर्थव्यवस्था के स्वरूप को देखते हुए चिन्ताजनक है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर रुपया कब तक दबाव में रहेगा। इस नाजुक मसले पर वित्तमंत्री अरुण जेटली का कहना है कि रुपए में गिरावट वैश्विक कारणों की वजह से है। भारतीय रुपया अन्य मुद्राओं की तुलना में बेहतर स्थिति में है। उन्होंने कहा कि यदि आप घरेलू आर्थिक स्थिति और वैश्विक स्थिति को देखें तो इसके पीछे कोई घरेलू कारण नजर नहीं आएगा। इसके उलट कुछ जानकार इसका दोष सरकार की नीतियों को देने में नहीं हिचकिचाते। उनका कहना है कि असमय जिस तरीके से नोटबंदी और जीएसटी को लागू किया गया उससे भारतीय अर्थव्यवस्था को अंतत नुकसान ही हुआ है। बड़ी संख्या में छोटे उद्योग-धंधे इसकी चपेट में आ गए और निर्यात पर भी इसका काफी असर पड़ा है। भारतीय परिपेक्ष्य में देखा जाए तो तेल की बढ़ती कीमतें भी काफी हद तक रुपए को दबाव में लाने के लिए जिम्मेदार हैं। ईरान और रूस को लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की नीतियों से भारतीय रुपए पर और दबाव बढ़ने की आशंका है क्योंकि हम पेट्रो उत्पादों की अपनी जरूरतों का लगभग 75 फीसदी आयात करते हैं। इसमें रूस और ईरान की भागीदारी अच्छी-खासी है। ईरान को हम इसका भुगतान यूरो और भारतीय रुपए में करते हैं। ट्रंप सरकार के दबाव के चलते यदि हमने किसी ओर देश से तेल आयात कर उसका भुगतान डॉलरों में किया तो रुपए पर और भी दबाव बढ़ेगा। उधर देश के अंदर भी गिरते रुपए की मार से लोग कराह रहे हैं। राजधानी दिल्ली में ही पेट्रोल 80 और डीजल 72 रुपए को छू चुका है। पेट्रोल-डीजल की महंगाई का असर आम आदमी पर भारी पड़ना शुरू हो गया है। यदि यही हाल रहा तो देश के सबसे निचले आदमी तक इसकी मार पड़ेगी। एक तरफ किसानों के लिए डीजल की मोटर से खेत को पानी देना महंगा हो जाएगा वहीं दूसरी ओर फसलों और अन्य सामानों को गंतव्य तक पहुंचाने का खर्च भी बढ़ेगा। विपक्ष जहां इस अवसर को भुनाने के लिए हड़ताल का आह्वान कर रहा है वहीं सरकार की तरफ से अभी तक ऐसा कोई इशारा नहीं मिला कि वह गिरते रुपए के चलते लोगों को कुछ राहत देने जा रही है। पेट्रोलियम पदार्थों को जीएसटी में लाने का यह सही अवसर है। क्योंकि इस समय जनता त्रस्त है और अगले कुछ महीनों में आम चुनाव की घोषणा होने वाली है। ऐसे में कोई भी दल पेट्रोल-डीजल को जीएसटी में लाने का खुलेआम विरोध करके जनता की नाराजगी का जोखिम क्यों मोल लेना चाहेगा। इसके जीएसटी में आने से लोगों को 10-15 रुपए की राहत मिल सकती है लेकिन कोई सरकार इस पर बात नहीं करना चाहती क्योंकि पेट्रो उत्पादों पर लगाए कर उनकी आदमनी का बड़ा स्रोत हैं। हालांकि इससे मिली आमदनी के एक हिस्से का उपयोग सरकार गरीबों को सब्सिडी देने और कई अन्य कल्याणकारी योजनाओं में करती है। लेकिन सरकार दूसरे मतदाताओं के प्रति भी तो लापरवाह नहीं रह सकती। उसे रुपए पर दबाव बनाने वाले आंतरिक और वैश्विक कारणों में सामंजस्य बिठाना होगा। एक्सपोर्ट के मुकाबले यदि इम्पोर्ट अधिक किया जाए तो करेंसी पर दबाव बढ़ता है। इससे निपटने के दो तरीके ज्यादा प्रचलित हैं। एक अनउत्पादक वस्तुओं के आयात को हतोत्साहित किया जाए और दूसरे देशों के साथ उनकी करेंसी या यूरो में व्यापार के रास्ते तलाशे जाएं। हालांकि भारत जैसे विकासशील देश के सामने विदेशी निवेश को देश में लाने की एक मजबूरी होती है ताकि देश में रोजगार और तकनीक को बढ़ावा मिल सके। ऐसे में संभव है कि सरकार गिरते रुपए को रोकने के लिए दखल देना पसंद न करे क्योंकि इससे उस पर आर्थिक सुधारों से पीछे हटने का आरोप लगाया जा सकता है। आगामी चुनावों के मद्देनजर विपक्ष और आम जनता के आक्रोश को देखते हुए क्या सरकार अपनी मुद्रा की विनिमय दर में हस्तक्षेप न करने की नीति पर टिकी रहेगी या बाजार में डॉलर झोंक कर रुपए को मजबूत करने का प्रयास करेगी। यह देखना भी दिलचस्प होगा। फिलहाल रुपया अभी दबाव में है। आने वाले अगले कुछ महीनों में इसमें मजबूती के संकेत फिलहाल दिखाई नहीं देते।

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