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सांप्रदायिक शक्तियां भारत को विश्व गुरु बनाएंगी

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:12 Oct 2018 5:34 PM GMT
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डॉ. बलराम मिश्र

वर्णाश्रम की भांति संप्रदाय एवं परिवार, ये दो संस्थाएं भी हजारों सालों से भारत की समाज व्यवस्था को सुदृढ़ बनाती रही हैं। यह विडंबना ही रही की भारत के मन को ठेस पंहुचाने के लिए लुटेरों ने इन की जड़ों पर मट्ठा डालने का काम किया। वर्तमान काल में सर्वाधिक प्रहार हुए संप्रदाय एवं तथाकथित `सांप्रदायिक शक्तियों' अर्थात हिन्दुओं पर। अब, जब हिन्दुस्तान करवट बदल रहा है तो यह आवश्यक हो जाता है कि इस विषय को ठीक से समझा जाय, क्यों कि भारत विश्व के लगभग सभी मत-पंथों व संप्रदायों की शरणस्थली एवं धर्मप्राण राष्ट्र रहा है। परमात्मा का बोधि जारों नामों से संह रही फलती फूलती बखूबी परम्परा की करने। उसको पाने का मार्ग क्या है? अपने-अपने मजहब के अनुसार लोग अलग-अलग रास्ते या मार्ग या पंथ बताते रहे है, बरेली के सुप्रसिद्ध सूफी संत मलिक मोहम्मद जायसी (1477- 1542) ने परमात्मा को पाने के पंथों की जो संख्या बतायी थी उस की गणना कर पाना शायद असंभव है। उन्हों ने कहा था, 'विधना के मारग हैं तेते, सरग नखत तन रोवां जेते', अर्थात विधाता को पाने के पंथों की संख्या उतनी है जितना आकाश के सारे तारों और सारे प्राणियों के देह पर हुए रोमों का योग होता है।

एक से अनेक होना कुदरत का नियम है। अनेकता विकास और समृद्धि की सूचक होती है। भारत सदैव अपनी अनेकता के गुण के कारण महान रहा है। हर पंथ के क्रमिक विकास से अनेक पंथ, मत, मार्ग या संप्रदाय निकले। हिन्दू धर्म में वैष्णव, शैव, स्मार्त, शाक्य, आदि जैसे 200 से भी अधिक पंथ एवं उप पंथ या संप्रदाय बताये जाते है। इस्लाम में शिया, सुन्नी, अहमदिया, बहाई आदि जैसे 73 पंथ या संप्रदाय बताये जाते हैं। सिक्खों में निरंकारी, नामधारी, कूका, आदि जैसे 7 पंथ या संप्रदाय बताये जाते है। राधा स्वामी, सिंधी, उदासी, कबीर पंथी, निर्मल आदि जैसे अनेक पंथ प्रचलित रहे हैं। बौद्ध धर्म में हीनयान, महायान, थेरवाद, तांत्रिक, जेन, आदि जैसे अनेक पंथ या संप्रदाय प्रचलित रहे हैं। ईसाई मजहब में कथोलिक, प्रोतेस्तैन्ट, बैप्टिस्ट, ऐदवेंट आदि जैसे चर्च की अनेकों विधाएं प्रचलित हैं, जो अलग-अलग संप्रदायों की भांति फलफूल रहे हैं। पारसी संप्रदाय में शहंशाही तथा कादमी पंथ जैसे अनेक उप पंथ या संप्रदाय बताए जाते हैं। जैसे जैसे इंसान के ज्ञान विज्ञान नित्य नए नए खोजों, नए नए विचारों तथा नए नए सोच-सरणियों को जन्म देते रहे है, इंसान अपनी सुविधानुसार नए मार्ग या पंथ खोज कर उन पर आचरण करने या न करने की स्वतत्रता का लाभ उठाता रहा है। आखिर सभी मतों या संप्रदायों के अनुयायी हैं तो अपनी ही इंसान-कौम के बन्दे, यदि अपने अपने पंथ में वे सुकून के साथ रह रहे हैं तो किसी अन्य मतावलंबी को यह अधिकार कैसे मिल जाता है कि वह किसी दूसरे के मत-पंथ का विरोध करे? हालात तो यहां तक गिर गए हैं कि एक संप्रदाय के अनुयायी खुले आम यह कहते है की केवल उन्हीं का मत आचरणीय है, इस लिए उनके अलावा दुनिया के जितने भी लोग है उनके सामने केवल दो ही विकल्प होते हैं ः पहला यह कि वे उनके पंथ को स्वीकार कर लें या मरने के लिए तैयार रहें। वर्तमान समय में विश्वव्यापी आतंकवाद के पीछे यही मनोवृत्ति काम करती है। ऐसी क्या बाध्यता हो सकती है? कुछ दशाब्दियों पूर्व शारजा की प्रसिद्ध फैज मस्जिद में सीरिया के एक प्रसिद्ध विद्वान् प्रोफेसर आब्दी से मैं ने एक लंबी चर्चा के दौरान जब पूछा कि यदि इस्लाम पूरे विश्व में एक ही है तो क्या वजह है कि जो इस्लाम संयुक्त अरब अमीरात में सुख शांति पूर्ण सह अस्तित्व का कारण बनता है, वही भारतीय उपमहाद्वीप के देशों में अनंत असंतोष, अशांति,तथा खतरों का सूचक जैसा बना है? क्या इस लिए कि आप अरबियों ने अच्छा वाला इस्लाम अपने देशों में रख लिया और नंबर दो का इस्लाम हमारे देशों को भेज दिया था? अब्बादी साहेब ने कहा था, `इस्लाम सब जगह एक ही होता है। स्थानीय राजनीति उसे दूषित कर देती है।' तब मैं ने यह निष्कर्ष निकाला था कि यह बात सिर्प इस्लाम पर ही नहीं हर मजहब पर लागू होती है। सत्तातुर लोग सत्ता पाने के लिए मजहब, मत, पंथ या संप्रदाय का मनमानी विधि से दुरुपयोग करते रहे हैं। सत्तातुर लोग, कामातुरों की भांति, लज्जा-निरपेक्ष और भय-निरपेक्ष होते है। सत्ता पाने के लिए वे मजहब का इस्तेमाल कुछ इस तरह करते हैं जैसे मछली पकड़ने के लिए लोग केचुए का इस्तेमाल करते हैं।

मजहब अर्थात केचुआ, और मछली अर्थात सत्ता। उनके लिए प्रमुख होती है सत्ता, न कि मजहब, जो कि नितांत व्यक्तिगत मसला होता है। धर्म-प्राण भारत के मन में राज-सत्ता महत्त्वहीन मानी जाती रही है। धर्म के आचरण से सत्ता निरर्थक हो जाती है। इसी लिए यह सूक्ति प्रसिद्द रही है, `न राज्यं न च राजासीत, न दण्डो न च दाण्डिक, धर्मेणैव प्रजा सर्वे रक्षन्तिस्म परस्पर'। अर्थात एक ऐसा स्वर्ण युग था जब न राज्य होता था न राजा होता था। न किसी को दंड देने की आवश्यकता होती थी और न किसी दंड देने वाले की आवश्यकता होती थी, क्यों कि सभी नागरिक धर्म का आचरण करते हुए परस्पर एक-दूसरे की रक्षा करते थे। यदि समाज में धर्माचरण की यह आदर्श स्थिति लाई जा सके तो सिर्प उच्च कोटि की इंसानियत ही राज करेगी, और सारे संप्रदाय, मत पंथ, जाति, वर्ग निहायत व्यक्तिगत मुद्दे बन कर रह जाएं गे, और पूरी मानव जाति केवल तीन वर्गों में बंटी नजर आए गी। 5वीं सदी (ईस्वी) के समाज हित चिन्तक ऋषि भर्तृहरि ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ `नीति-शतक' के 27 वें श्लोक में एक अति सुंदर व्यवस्था दी थी, जिस के अंतर्गत मानव समाज में केवल तीन वर्ग ही होने चाहिए।,

1. नीच, 2. मध्यम और 3. उत्तम। संस्कृत भाषा में लिखा वह श्लोक इस प्रकार हैöप्रारभ्यते न खलु विघ्न भयेन नीचैह,प्रारभ्य विघ्नविहताः विरमन्ति मध्याः, विघ्नैह पुन पुनरपि प्रतिहन्यमानाः प्रारभ्य चोत्तमजनाः न परित्यजन्ति । अर्थात नीच वर्ग में वे लोग आते है जो विघ्नों के डर से कोई काम शुरू ही नहीं करते। मध्यम वर्ग में वे लोग आते हैं जो कोई काम शुरू तो करते हैं किन्तु विघ्नों की मार खा कर उस काम को छोड़ भागते हैं। उत्तम वर्ग में वे लोग आते हैं जो शुरू किए गए काम को, विघ्नों की मार बार बार खाने के बावजूद, छोड़ते नहीं। अब इस परिवर्तन एवं प्रगतिशील वर्ग विभाजन के सिद्धांत से कौन संप्रदाय, जाति, मजहब या वर्ग असहमत हो सकता है? इस की सक्रियता के ज्वलंत उदाहरण हम को इस विचित्र युग में प्रचुरता से देखने को मिलते हैं। गूगल, ऐपिल, सफारी, ऐन्द्राsइद, फेसबुक, ट्विटर, अमेजन जैसी अनेक जादुई विधाओं ने तो मजहब, जाति, क्षेत्रीयता, संप्रदाय आदि विभाजक तत्वों की तो मानों लाइफ लाइन ही काट दी। नित निरंतर होते जा रहे अन्वेषण मानव जाति से भेद भाव मिटाने के लिए कटिबद्ध है।

भारत ने ऋषि भर्तृहरि जैसे अनेक समाज हित चिन्तक दिए है, जिन के मार्ग दर्शक सिद्धांतों की अशांत विश्व को नितांत आवश्यकता है। इसी लिए भारत को विश्व गुरु मानने की आवश्यकता बलवती होती जा रही है। इस में भरत भू पर फलफूल रहे सभी मजहबों, संप्रदायों, मत-पंथों तथा आदर्शों की भूमिका निश्चित होनी चाहिए। क्या देश के तथा कथित बुद्धिजीवी, भोगैश्वर्य-प्रशक्ति के प्रलोभन के अनंत दलदल से निकल कर इस दिशा में सक्रिय होंगे? यह परमात्मा का विधान ही है कि आज विज्ञान एवं बहुआयामी तकनीकी के आधार पर विकसित हो रहे भारत में जाति, वर्ग, मजहब आदि संबंधी सारे द्वंद्व तेजी से समाप्त हो रहे है। आज देश केवल दो वर्गों में विभाजित लगता है ः देशभक्त नागरिक एवं देशद्रोही नागरिक। दोनों वर्गों में सभी मजहबों, जातियों आदि के लोग मिलते है। तीव्र विकास यह अंतर भी मिटा देगा, और तब हर भारतीय केवल भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय/वैश्विक इकाई ही रहेगा, जो लोक कल्याण हेतु कार्यरत रह कर, सुप्रसिद्ध `एकात्म मानव दर्शन' के आलोक में नूतन भारत एवं नूतन विश्व का निर्माण करने में योगदान देगा।

यहां अत्यंत महत्वपूर्ण है सरसंघ चालक डॉ. मोहन भागवत के द्वारा संघ एवं हिन्दुस्तान के लिए दिया गया यह सन्देश कि हम को देश और विश्व के कल्याण को सर्वोच्च प्राथमिकता देना होगा और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले सभी औजार, जैसे हमारे आदर्श, विचारधाराएं, मान्यताएं, व्याख्याएं आदि, जिन को, हो सकता है, हमने व्यतिगत, पारिवारिक, वंशीय, सामुदायिक, सांप्रदायिक, मजहबी, जातीय, क्षेत्रीय या वर्गीय स्तरों पर अनेकानेक वर्षों से सहेज कर रखा हो, की युगानुकूल ओवरहालिंग/मरम्मत/जोड़-घटाव आदि करना होगा। आदर्शों, विचार धाराओं तथा मान्यताओं में नित नूतन रक्त संचार करने के लिए तैयार रहना होगा। क्योंकि प्रमुख है हिन्दुस्तान एवं विश्व। शेष सभी तत्व इस दृष्टि से गौण हैं। हिन्दुस्तान एवं विश्व के कल्याण एवं गौरव के हित में हमको अपने आदर्शों के बोझ का पुनरीक्षण तो करना ही होगा।

(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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