Home » द्रष्टीकोण » धार्मिक कट्टरता के दुष्परिणाम

धार्मिक कट्टरता के दुष्परिणाम

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:15 Dec 2018 4:08 PM GMT
Share Post

इन्दर सिंह नामधारी

भारतीय संविधान के दूरदर्शी निर्माताओं ने भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में निरूपित किया था तथा पिछले सात दशकों से भारत उसी नीति का सफलतापूर्वक अनुसरण करता आ रहा है। गत कुछ वर्षों से पता नहीं किन कारणों से भारत में धार्मिक कट्टरता उत्तरोत्तर बढ़ती ही जा रही है।

टीवी चैनलों पर जानबूझकर ऐसे मुद्दों पर चर्चा कराई जाती है जिनमें खुलकर हिन्दु एवं इस्लाम धर्मों के कट्टरपंथी आपस में बिल्लियों जैसे लड़ते दिखाए जाते हैं। एक दूसरे के धर्मों पर तीखे-तीखे कटाक्ष करना मानो आज आम बात हो गई हो। धार्मिक कट्टरता की यह बीमारी अगर इसी तरह बढ़ती गई तो देश की धर्मनिरपेक्षता निस्संदेह खतरे में पड़ जाएगी। विभिन्न राजनीतिक दलों के कार्यकर्त्ता यदि धार्मिक मुद्दों पर बहस-मुबाहसा करें तो बात कुछ हद तक समझ में आ भी सकती है लेकिन यदि उच्च एवं सर्वोच्च न्यायालयों में बै"s न्यायाधीश भी धार्मिक कट्टरता को पश्रय देने लगें तो यह एक अनहोनी घटना ही होगी।

इसी तरह की एक घटना अनहोनी मेघालय उच्च न्यायालय में भी घटी है जो आज देश में चर्चा का विषय बनी हुई है क्योंकि एक माननीय न्यायाधीश श्री सुदीप रंजन सेन ने अपने एक फैसले में यहां तक लिख डाला है कि स्वतंत्रता के समय ही यदि भारत के अग्रणी नेताओं ने देश को हिन्दु राष्ट्र घोषित कर दिया होता तो आज देश में हिन्दु-मुसलमान का बखेड़ा ही खत्म हो गया होता। श्री सेन का तर्प है कि जब पाकिस्तान ने अपने देश को इस्लाम आधारित देश घोषित कर दिया था तो फिर भारत ने ऐसा क्यों नहीं किया? जस्टिस सेन की इस टिप्पणी को लेकर देश के विभिन्न टीवी चैनलों पर गर्मागर्म वाद-विवाद तो चल रहा है लेकिन मेरी दृष्टि से सेन साहब की उपरोक्त टिप्पणी कई अन्य बिंदुओं की ओर भी इशारा करती है।

उल्लेखनीय है कि यदि जस्टिस सेन की बात मान भी ली जाए तो भारत को आजादी के बाद पाकिस्तान की देखादेखी हिन्दु-राष्ट्र बन जाना चाहिए था। जस्टिस सेन को चाहिए कि वह देश को यह भी बतायें कि पाकिस्तान ने इस्लामिक देश बनकर आखिर कौन-कौन-सी उपलब्धियां पाप्त कर ली हैं जो भारत को नसीब नहीं हो सकी हैं? दुनिया का पत्येक देश यह मानता है कि आजादी के बाद भारत ने सभी क्षेत्रों में जितना विकास किया है उसके सामने पाकिस्तान का विकास बहुत बौना है।

भारत की आर्थिक शक्ति आज विश्व के 6 बड़े देशों में शुमार होने लगी है जबकि पाकिस्तान भीख का कटोरा लेकर कभी चीन और कभी अमेरिका की दहलीज पर भीख मांगता फिरता है। आतंकवाद एवं आपसी वैमनस्य का बोलबाला जितना पाकिस्तान में है उतना शायद दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं है। सभी जानते हैं कि पाकिस्तान में 99 प्रतिशत लोग एक ही धर्म इस्लाम के अनुयायी हैं लेकिन वे विकास से सर्वथा वंचित हैं।

यह ज्ञातव्य है कि पाकिस्तान के अस्तित्व में आने के समय उसके पूर्वी एवं पश्चिमी दो भाग थे। दोनों ही भाग इस्लाम धर्मावलंबियों से भरे थे लेकिन सारी दुनिया ने देखा है कि किस तरह वर्ष 1971 में पाकिस्तान का पूर्वी भाग बड़े खूनखराबे के बाद बंगलादेश के रूप में पाकिस्तान से अलग हो गया और आज दोनों देश अलग-अलग रास्तों पर चल रहे हैं। धर्म की एकरूपता यदि देश को एक रख पाती तो फिर पाकिस्तान को इस तरह की स्थिति का सामना क्यों करना पड़ता? पाकिस्तान की स्थिति को देखकर हिन्दु-राष्ट्र के कसीदे गढ़ने वाले लोगों की आंखें खुल जानी चाहिए कि धर्म की एकरूपता किसी देश को एक नहीं रख पाती जबकि देश यदि विभिन्नताओं से भरा हो तो उसके विकास के रास्ते ज्यादा पशस्त हो जाते हैं। भारत भी अगर पाकिस्तान की तरह एक धर्म आधारित देश बन गया होता तो अन्य धर्मों के नागरिकों के लिए भारत उतना ही भयावह बन जाता जितना आज पाकिस्तान है। जस्टिस सेन को उपरोक्त टिप्पणी करने के पहले यह भी सोच लेना चाहिए था कि भारत के बंटवारे के समय जितने मुसलमान भारत छोड़कर पाकिस्तान गए थे उनसे दो गुणा मुसलमानों ने भारत में ही रहना पसंद किया था तथा आज के दिन तो उनकी संख्या और बढ़ चुकी है। एक खास धर्म पर आधारित हो जाने के बाद भारत में भी मुस्लिम, सिख, ईसाई एवं पारसी जैसे अन्य धर्मावलंबियों को भी उसी घुटन से गुजरना पड़ता जिसमें आज पाकिस्तान में हिन्दु गुजर रहे हैं।

मेरी दृष्टि से जस्टिस सेन को भी अपने वक्तव्य की पेरणा उन्हीं तत्वों से मिली होगी जो दिन-रात हिन्दु-मुसलमान की रट लगाकर देश के वातावरण को विषाक्त करने में मगन हैं। जस्टिस सेन की टिप्पणी तो भारत के संविधान के भी खिलाफ है क्योंकि किसी न्यायाधीश की विचारधारा भारत के संविधान के इतर नहीं होनी चाहिए। आश्चर्य तो इस बात का है कि संविधान की व्याख्या करने वाले न्यायालय की उच्च कुर्सी पर बै"कर देश को एक धर्म आधारित देश बनाने की बात करना किसी भी दृष्टि से युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता। खरबूजा को देखकर खरबूजा रंग बदलता है कि पुरानी कहावत के अनुसार लगता यही है कि देश के राजनीतिज्ञों की धार्मिक रट को देखकर जज साहब भी पभावित हो गए हैं। सत्ता में बै"s दल एवं नेताओं को यह याद रखना चाहिए कि केवल धार्मिक कट्टरता ही देश की एकता को अक्षुण्ण नहीं रख सकती। दुनिया के कई देश इस कट्टरता के शिकार पहले ही हो चुके हैं। देश के कट्टरपंथियों को अमेरिका के लोकतंत्र से पेरणा लेनी चाहिए क्योंकि वहां का पत्येक नागरिक चाहे वह किसी भी धर्म का हो देश का राष्ट्रपति बनने का हक रखता है। मीडिया में छपी खबरों के अनुसार भारतीय मूल की एक हिन्दु महिला तुलसी गवार्ड ने अमेरिका के आगामी चुनावों में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने की तैयारी कर ली है। यह ज्ञातव्य है कि तुलसी गवार्ड चार बार अमेरिका के पार्लियामेंट में सांसद निर्वाचित हो चुकी हैं। एक अन्य भारतीय महिला कमला हैरिस ने भी राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने की इच्छा व्यक्त की है।

वास्तव में यही लोकतंत्र की खूबसूरती है क्योंकि धार्मिक संकीर्णता के डिब्बे में बंद होकर कोई देश विकास की ऊंचाइयों को नहीं छू सकता। जबसे भाजपा ने यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अपना स्टार पचारक बनाया है तबसे देश में धार्मिक उन्माद की बातें कुछ ज्यादा ही की जाने लगी हैं। सोशल मीडिया में तो एक ऐसी तस्वीर भी वायरल हुई है जिसमें एक बंदर कांग्रेस का झंडा लेकर घोषणा कर रहा है कि चूंकि योगी जी ने उनके पूर्वज हनुमान जी का दलित कहकर अपमान किया है इसलिए उसका बदला लेने के लिए मैंने कांग्रेस का झंडा थाम लिया है। भारत के पांच प्रांतों के चुनावी नतीजों को देखने के बाद भाजपा को सांपदायिक कट्टरता को बढ़ावा देने की नीति पर पुनर्विचार करना ही चाहिए।

(लेखक लोकसभा के पूर्व सांसद हैं।)

Share it
Top